Monday, May 13, 2024
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सत्ता की राजनीति और वैचारिक प्रतिबद्धता, दोनों की धरातल अलग-अलग हैं : रतन वर्मा

आग जब भी कोई आकाश से बरसाता है, मूक इंसान भी तब जोर से चिल्लाता है ! " लेकिन वह मूक इंसान चिल्लाता कब है ? जब उस आग की जलन उसके लिये पूरी तरह असहनीय हो जाती है।

साक्षात्कार:

प्रख्यात कथाकार, कवि,समीक्षक, नाटककार रतन वर्मा देश के चुनिंदा साहित्यकारों में एक हैं। पांच दशकों की उनकी लम्बी साहित्यिक यात्रा निरंतर आगे बढ़ती ही चली जा रही है। इस यात्रा में अब तक डेढ़ सौ से अधिक कहानियां, छः उपन्यास, कई नाटक, कविताएं, समीक्षाएं आ चुकी हैं। उनकी दृष्टि की परिधि बड़ी व्यापक है । वे समाज के बदलते परिदृश्य, एक – दूसरे को मात देने की दौड़, परिवार के बनते बिगड़ते रिश्ते, वोट की राजनीति और सत्ता की स्वार्थ युक्त राजनीति पर चुप नहीं बैठते हैं, बल्कि अपनी कहानियों और उपन्यासों के माध्यम से समाज में एक नवजागरण पैदा करना चाहते हैं। साथ ही उनकी कृतियां लोगों को संघर्ष के लिए प्रेरित भी करती हैं। उनकी पांच दशकों की साहित्यिक यात्रा, लेखकीय जीवन के उतार-चढ़ाव और कृतियों से लेकर सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक आदि विविध विषयों पर हुई लंबी बातचीत के प्रमुख अंश निम्न है )

विजय : कथा- लेखन की ओर आपकी रुझान कैसे हुई? इस विधा को अपनाने की प्रेरणा आपको किससे मिली ?
रतन : कथा-लेखन की ओर रुझान का एक दिलचस्प किस्सा है। छिटपुट कविताएँ तो मैं स्वान्तः सुखाय लिखा ही करता था । हज़ारीबाग आगमन के बाद जब भारत यायावर से भेंट हुई, तो वे मुझे सम्भावना संगोष्ठी की बैठकों में भी ले जाने लगे। फिर भी मेरे मन में ऐसा कुछ नहीं था कि एक कवि के रूप में मेरी स्वीकार्यता बने। बस, भारत जी से मित्रता का ही निर्वाह था कि गोष्ठियों में जाकर कवि मित्रों की कविताओं का श्रोता बन जाया करता था। कभी-कभार कुछ सुना भी दिया करता था।
लेकिन जब भारत जी चास महाविद्यालय में प्राध्यापक नियुक्त होकर हज़ारीबाग से चास ( बोकारो ) चले गये, तब उनसे सम्पर्क का माध्यम पत्राचार बन गया। उन्हें मेरे द्वारा लिखे गये पत्र भाषायी स्तर पर रोचक लगा करते थे, जिससे प्रभावित होकर वे अक्सर मुझे प्रेरित करते रहते कि मैं अगर कथा- लेखन करूँ, तो अच्छा कहानीकार हो सकता हूँ।
उन दिनों मैं अपने कार्य के सिलसिले में अधिकांश शहर से बाहर यात्राओं पर रहा करता था और यात्रा की ऊब मिटाने के लिये बस में या ट्रेन में पढ़ने के लिये पत्र -पत्रिकाएं साथ रखा करता था । उन्हीं दिनों की एक घटना है। मैं सारिका पत्रिका में ‘ पीले गुलाबों वाली लड़की ‘ शीर्षक कहानी पढ़ रहा था। उस कहानी को पढ़ते हुए मुझे अपने जीवन की एक घटना याद आती रही, जो मुझे प्रेरित करती रही कि मैं भी कहानी लिख सकता हूँ । वह घटना मेरे मस्तिष्क पर कुछ इस तरह सवार हुई कि घर लौटकर एक ही बैठक में मैंने अपने जीवन की उस घटना को आधार बना कर ‘ हालात ‘ शीर्षक से एक कहानी रच डाली । और जो भारत यायावर द्वारा संपादित पत्रिका ‘ प्रगतिशील समाज ‘ के अप्रैल 1984 अंक में प्रकाशित हुई। वह पत्रिका पटना से प्रकाशित होती थी।पाठकों के द्वारा उस कहानी को खूब पसन्द किया गया। फिर तो जीवनानुभवों का दबाव मुझपर इस तरह सवार होता चला गया कि जिसने कहानीकार के तौर पर मुझे पहचान दिलवाकर ही दम लिया।

विजय : आपकी जन्मभूमि दरभंगा ( बिहार ) रही, फिर आपकी कर्मभूमि हज़ारीबाग कैसे बन गयी ?
रतन : इंसान की पहली समस्या जीवन-यापन की समस्या है। इस समस्या के समाधान के लिये इंसान को जहाँ भी सम्भावना नज़र आती है, वह उधर का ही रुख करता है।
मेरा भी हज़ारीबाग आगमन उक्त समस्या के समाधान के निमित्त सम्भावना और अवसर को देखते हुए हुआ। हज़ारीबाग के पूर्व मैं मसूरी-देहरादून, दिल्ली और लखनऊ प्रवास भी कर चुका हूँ। सच तो यह है कि बचपन से आज तक मैं सिर्फ जीवन के खट्टे , मीठे, सर्वाधिक कड़वे और कसैले आदि जैसे अनुभवों को ही समेटता रहा हूँ। और आज अगर मैं छोटा – मोटा लेखक भी हूँ, तो मेरे लेखक होने में इन्हीं अनुभवों का योगदान है।

विजय : आप एक अच्छे कथा-लेखक के साथ-साथ अच्छे कवि भी हैं । फेसबुक पर यदा-क़दा आपकी कविताएँ भी आती रहती हैं। आपकी अधिकांश कविताएँ सकारात्मकता लिये होती हैं।आपकी कविताओं पर समीक्षाएँ भी छपती रहती हैं और प्रतिक्रियाएं तथा सराहना भी खूब मिलती हैं। आपके कई कथासंग्रह और उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं, पर कविता-संग्रह सिर्फ एक ? ऐसा क्यों ?
रतन : जबसे मैं कथा-लेखन में आया, काव्य-लेखन मुझसे दूर होता चला गया। कभी-कभार किसी खास मनःस्थिति में कोई कविता लिख भी गयी, तो पता नहीं क्यों, उसे मैं गम्भीरता से नहीं लेता। मेरी अधिकांश कविताएँ इधर-उधर बिखरी पड़ी हैं। कभी मन बना, तो किसी कागज़ के टुकड़े पर कविता लिख गयी और उसे जेब में या पर्स में रखकर भूल गया। फिर कभी उसपर नज़र पड़ गयी और लगा कि ठीक-ठाक ही लिख गयी है , तो फेसबुक में डाल दिया। पाठकों ने किस हद तक उस कविता को पसन्द किया, इससे भी उत्साहित या हतोत्साहित नहीं होता हूँ। हाँ, कहानियों या उपन्यास के प्रति मैं पूरी तरह गम्भीर होता हूँ। अपनी प्रत्येक कहानी या उपन्यास में मुझे अपने ख़ुद के मन, जीवन और विचारों की प्रतिछाया दिखती है।

विजय : आपने कथा-लेखन को ही क्यों अपनाया, जबकि आप काव्य-लेखन में भी अच्छी दख़ल रखते हैं ?
रतन : देखिये विजय जी, जब आपके पास भरपूर उड़ान के लिये मजबूत पंख हों और सामने खुला आकाश भी, तो दिल खोल कर उड़ान भरना आवश्यक हो जाता है। मेरे डैने हैं — अभिव्यक्ति की उड़ान और आकाश, मेरे व्यापक जीवनानुभव, परिवेश, विचार और वे पात्र, जो मुझे खुद को सम्प्रेषित करते रहने के लिये निरन्तर आंदोलित करते रहते हैं। जब मेरे मस्तिष्क पर अमरितवा जैसा एक नौकर सवार होकर मुझे विवश करने लगता है कि मैं उसकी पीड़ा को शब्दावाज दूं, तब वह एक बड़े फ़लक की मांग करता है। ऐसे में उस चरित्र के विस्तार को कविता में समेट पाना कैसे सम्भव हो सकता है ? सच कहूँ, तो मुझे कथा -लेखन एक ऐसा माध्यम महसूस होता है, जिसमें मैं खुलकर अपने पात्र और परिवेश को जी सकता हूँ। मेरी कहानी ‘ गुलबिया ‘ हो , ‘ नेटुआ ‘ हो, ‘ शेर ‘ हो, या कोई भी, आप उनके विस्तार को देखिये और खुद ही निर्णय लीजिये कि क्या इन कहानियों को कविता के माध्यम से अभिव्यक्ति दी जा सकती है ? कई बार तो मेरे साथ ऐसा भी हुआ है कि किसी कथानक के लिये कहानी का फ़लक भी छोटा पड़ जाता है। तब मुझे उस कथानक को सम्पूर्णता में अभिव्यक्ति देने के लिये उपन्यास विधा का सहारा लेना पड़ता है। उदाहरण भी आपके सामने है। मेरी ‘ नेटुआ ‘ कहानी ने ‘ हंस ‘ में प्रकाशित होकर अच्छी ख्याति अर्जित की। लेकिन मुझे लगता रहा कि इस कथानक की मांग एक बड़े विस्तार की थी और मैंने उसे एक छोटी सी कहानी में समेट दिया। मन पर नेटुआ का ऐसा दवाब बना कि उसने ‘ नेटुआ करम बड़ा दुखदाई ‘ शीर्षक से एक वृहत उपन्यास लिखने को विवश कर दिया। और अब वह उपन्यास पाठकोँ के सामने है।
आप समझ गये होंगे कि कविता की ज़गह कथा – लेखन को मैं क्यों अधिक महत्व देता हूँ। फिर भी ऐसा नहीं कि कविताएँ मैं लिखता ही नहीं हूँ । जब कभी भी भावाव्यक्ति के लिये मनःस्थिति काव्यमय बनती है, कविता का जन्म हो ही जाता है।

विजय : आपकी अधिकांश कहानियों के केंद्र में स्त्रियाँ ही होती हैं! समाज में पुरुषों की समस्याएँ क्या कम हैं या क्या पुरुष पात्र आपको किसी भी रूप में प्रभावित नहीं करते, जिस कारण उन्हें आप अपने लेखन में वाजिब स्थान नहीं देते ?
रतन : ऐसी बात नहीं है विजय जी ! दरअसल मेरी स्त्री केन्द्रित कहानियाँ ही पाठकों के द्वारा अधिक पसन्द की गयीं, इसीलिये आप मेरे बारे में ऐसी धारणा रखते हैं। लेकिन जिसने भी मुझे सम्पूर्णता में पढ़ा है, वे मेरे रचना-संसार में देश-समाज की हर इकाई को उसी अनुपात में देखते हैं, जिनके केन्द्र में स्त्री भी है, पुरुष भी, बच्चे, वंचित वर्ग, किन्नर, स्त्रैण चरित्र वाले पुरुष, पशु-पक्षी आदि , सभी हैं। एक लेखक किसी खास दायरे में बंधकर लेखन कैसे कर सकता है भला ? आपने अगर मेरी गुलबिया, दस्तक, ढोल, सबसे कमजोर जात, पराजिता आदि स्त्री केन्द्रित कहानियां पढ़ी हैं, तो शेर, परमेसरा बैकवर्ड हो गया, पलायन,सरस्वती-पुत्र आदि पुरुष समस्याओं पर आधारित कहानियाँ भी पढ़ी होंगी। या फिर अमरितवा, खरगोश, अब चेतना स्वस्थ है, झरना, बच्चे बुरे नहीं होते आदि बाल- मनोविज्ञान की कहानियाँ भी ? ऐसे में अब आप ही बताइये कि मेरे लेखकीय सोच का दायरा व्यापकता लिये हुए है या इकहरा ? हाँ, यहाँ एक बात मैं ज़रूर उल्लेख करना चाहूंगा कि बचपन से ही जो मैंने समाज-परिवारों या आस- पड़ोस में स्त्रियों की दशा देखी है, चाहे वह स्त्री निम्न वर्ग की हो, निम्न-मध्य वर्ग की, मध्य या उच्च वर्ग की , अधिकांश की स्थिति पुरुषों की तुलना में बेहतर नहीं ही कही जा सकती । हालांकि यह आज की ही स्थिति नहीं है। आप रामायण, महाभारत, पुराण आदि को ले लें। उस काल में भी स्त्रियों की क्या हालत थी ? चक्रवर्ती सम्राट दानवीर हरिश्चंद्र की पत्नी तारामती का क्या दोष था कि उसे बिक जाना पड़ा और हरिश्चंद्र को इसकी कोई ग्लानि नहीं हुयी। राम ने सीता की अग्नि परीक्षा ली । द्रौपदी को उनके पंचवीर पतिगण जुए में हार गए और भरी सभा में द्रौपदी का चीर-हरण देखते रहे , दक्ष प्रजापति ने अपनी हठ में अपनी पुत्रियों रोहिणी, रेवती, सती आदि के साथ क्या क्या अन्याय किये या उन्हीं के दामाद चन्द्रमा ने अपनी पत्नी रेवती को दासी जैसे हालात के सुपुर्द बनाये रखा…. ।
कहने का अर्थ यह कि हमारे समाज में स्त्रियों को हमेशा से द्वयम दर्जे का ही अधिकार प्राप्त रहा है।
मेरे ही मुहल्ले में एक विधवा युवती थी, जो अपने दो मासूम बच्चों की परवरिश के लिये एक कॉलोनी के चार घरों में नौकरानी का काम किया करती थी । हमारे पुरुष प्रधान समाज में उसकी देह पुरुषों के लिए आकर्षण बनी रहा करती थी। एक दिन पूरे मोहल्ले को पता चलता है कि वह नौकरानी गर्भवती हो गयी है। कॉलोनी की चारों घरों की मालकिनें उसे चरित्रहीन मानकर काम से निकाल देती हैं । सारी मालकिनों को अपने अपने पतियों पर शक होता है कि उस चरित्रहीन नौकरानी ने ही उनके पतियों को फंसाकर वह कुकृत्य किया होगा। सभी नौकरानी से जानना भी चाहती हैं कि बच्चा किसका है, पर नौकरानी अपना मुँह नहीं खोलती है।
कहानी के अंत में वह बोलती है कि अगर वह बता भी देती कि उसके कोख में किसका बच्चा पल रहा है, तो क्या समाज मुझे माफ कर देता ? बस, इतना ही होता कि उस आदमी की पत्नी अपने पति से थोड़ा लड़ झगड़ लेती, लेकिन सारा गाज नौकरानी पर ही गिरता। वह अपने गाँव की एक लड़की का उदाहरण देती हुई कहती है कि सरपंच के बेटे ने उसके साथ बलात्कार किया होता है। बात पंचायत तक पहुँचती है और पंचायत उस लड़की को ही चरित्रहीन सिद्ध करके उसे आत्महत्या की परिणति तक पहुंचा देती है।
अपनी एक कहानी का उदाहरण और देता हूँ—‘ मुट्ठी भर हवा ‘ !…. यह एक ऐसी पत्नी की कहानी है, जिसका पति उद्योगपति होता है और उसका सारा समय सिर्फ धन कमाने में व्यतीत होता है। पत्नी के लिये उसके पास बिल्कुल समय नहीं होता। पत्नी को सारी सुख – सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं, सिर्फ दाम्पत्य-सुख के अलावा। ऐसे में घुटती हुई वह एक अलग क़दम उठा लेती है, जिसे हमारा समाज पाप समझता है। और उस क़दम के बावजूद उसे वह मुट्ठी भर हवा नहीं उपलब्ध हो पाती, जिसकी आकांक्षा वह पाले रहती है।
मैंने निम्न वर्ग और उच्च वर्ग की दो स्त्रियों के उदाहरण रखे। आप देख लें कि हमारे समाज में स्त्रियों की क्या स्थिति है।

विजय : ‘ गुलबिया ‘ कहानी की नायिका गुलबिया के माध्यम से स्त्री संघर्ष का जीवन्त चित्रण किया है आपने। जिस काल खण्ड में आपने गुलबिया कहानी लिखी थी, क्या आज भी गुलबिया उसी हाल में है या उसके जीवन स्तर में सुधार भी आया है ?
रतन : देखिये विजय जी ! झाड़ू- पोछा करने वाली बाई आपके घर में भी काम करती है और मेरे घर में भी। ये कई पीढ़ियों से यही काम करती आ रही हैं। देश-समाज कहाँ से कहाँ पहुँच गया, मगर ये जहाँ थीं, वहीं की वहीं हैं। इनके उत्थान के लिये सरकार अनेक योजनाएं चला रही है। इनके लिये राशन मुफ़्त, चिकित्सा मुफ़्त, घर और शौचालय मुफ़्त, यहाँ तक कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण की भी सुविधा ! बावज़ूद इन सुविधाओं के, इनका जीवन स्तर क्यों ऊपर नहीं उठ पा रहा? यह सोचनीय है। आप इसके कारण पर गम्भीरता से सोच कर देखें। ये मानसिक , पारिवारिक और सामाजिक रूप से इससे ऊपर उठने की सोच ही नहीं सकते। आप इनकी बस्तियों में चले जायें— नंग-धड़ंग बच्चों की एक फौज सी दिख जायेगी इधर-उधर खेलते हुए। मतलब, एक-एक स्त्री कई-कई बच्चे। ऐसा नहीं कि इनके घर के पुरुष कुछ काम नहीं करते, लेकिन शराब इनकी बहुत बड़ी कमज़ोरी है। अपनी कमाई से तो पीते ही हैं , अपनी पत्नी की कमाई को भी जबरन छीन कर अपनी ऐय्यासी में उड़ा देते है। हैरत तो तब होती है, जब मुफ़्त के मिले राशन को भी ब्लैक में बेचकर दारू-सारु में बरबाद कर देते हैं । घर के पुरुषों को पता होता है कि उनकी पत्नियाँ जिन घरों में काम करती हैं, अधिकतर घरों में उन्हें भोजन मिल ही जाता है। वे अपने बच्चों के लिये भी अपनी मालकिनों से मांग-मूंग कर कुछ बासी-वासी ले ही आती हैं …

विजय : क्या इस वर्ग की सारी स्त्रियों का हाल ऐसा ही है ?
रतन : नहीं, कुछ अपवाद तो हर ज़गह होते ही हैं। मसलन आप अखबारों में पढ़ते होंगे कि फलानी ज़गह बाई का काम करने वाली औरत के बेटे या बेटी ने यूपीएससी , जेपीएससी कम्पीट कर अफसर बन गये। या फलानी जमादारिन का बेटा क्लर्क या प्रोफेसर बन गया..। ये उन्हीं अपवादों में हैं।

विजय : ‘ दस्तक ‘ आपकी लोकप्रिय कहानियों में से एक है। क्या ‘ दस्तक ‘के पात्र आज भी समाज में दस्तक देते नज़र आते हैं ?,दस्तक जैसी कहानी लिखने की प्रेरणा आपको कहाँ से मिली ?
रतन : हाँ विजय जी ! यह कहानी हंस के अक्तूबर 1988 अंक में प्रकाशित हुई थी। उस कहानी के पूर्व मेरी कोई सात – आठ कहानियाँ ही प्रकाशित हो पायी थीं। मतलब हिन्दी साहित्य में मैं बिल्कुल ही अपरिचित नाम था। इस कहानी ने ही एक बड़े पाठक वर्ग से मेरा परिचय करवाया।
यह कहानी समाज के आर्थिक तौर पर असमर्थ या वंचित वर्ग के छोटे छोटे सुख के सपने के लिये किये जाने वाले संघर्ष की कहानी है। यह संघर्ष निम्न से निम्नतर स्तर तक के समझौते की परिणति तक भी पहुँच सकता है। इसी कहानी को ले लें। कथा नायिका जूठन की माँ सुकरी कभी जंगल की मजदूरन हुआ करती थी , अपने सौंदर्य के बल पर ठेकेदार , जिसे सभी बड़े बाबू कहा करते थे ,उनकी रखैल बन जाती है और अपनी देह की कीमत पर, ठेकेदार प्रदत्त हर तरह के सुखों का उपभोग करती है , जिसमें मांस और मदिरा का खास तौर पर समावेश होता है । इस कारण वह मदिरा की लती हो जाती है। कालांतर में उम्र ढल जाने और बड़े बाबू के निधन के बाद वह उन ऐय्यासिओं के सुख से वंचित हो जाती है। लेकिन दारू की लत तो लत ही ठहरी, इसलिये वह अपनी बेटी जूठन से भी चाहती है कि उसी की तरह, जैसे भी हो, वह भी बड़े बाबू के बेटे छोटे बाबू, जो अब अपने पिता की जगह
ठेकेदारी सम्भाल रहे हैं, उसकी रखैल बन जाये, ताकि उसकी ऐय्यासी फिर से चालू हो सके। जूठन कोशिश भी करती है , लेकिन असफल रहती है।
आपने पूछा है कि क्या ‘ दस्तक ‘ के पात्र आज भी समाज में दस्तक देते नज़र आते हैं ?
देखिये, कहानी, उपन्यास या किसी भी विधा में रची गयी रचना अगर अपने सृजन के काल के ही गाल में समा कर रह जाय, तो उसकी सार्थकता कैसे बनी रह सकती है ? ऐसी ही परिस्थितियों और कथ्यों से जूझते पात्र आपसे ज़गह ज़गह टकराते ज़रूर मिल जाएंगे। इस यथार्थ को अपनी ही एक कहानी के उदाहरण से आपके समक्ष स्पष्ट करता हूँ —
आपने इंडिया टुडे में प्रकाशित मेरी कहानी ‘ कलाकार ‘ तो पढ़ी ही है। इस कहानी का निष्कर्ष परिस्थितियों के थोड़े फेर बदल के साथ ‘दस्तक ‘ से अलग कहाँ है ? ‘ कलाकार ‘ कहानी का मुख्य पात्र एक नाट्य निर्देशक सह मंचीय कलाकार है, जिसकी एक नाट्य संस्था भी है। लोगों से चंदा-वंदा लेकर जैसे-तैसे उसने अपनी संस्था को सक्रिय बना रखा है , जिससे आमदनी न के बराबर ही होती है। वह एक निजी संस्थान में छोटी सी नौकरी भी करता है, जिससे होने वाली अत्यंत सीमित सी आय में ही उसका और उसके परिवार का खर्च चलता है। उसका भी सपना है कि उसका घर सुसज्जित हो, घर में टीवी हो आदि। लेकिन उसके घर का खर्च ही जैसे – तैसे चल पाता है, फिर सपना भला कहाँ से पूरा हो पाता !
तभी अचानक उसका पुत्र दिल की बीमारी से ग्रसित हो जाता है, जिसके इलाज़ के लिये उसे बहुत सारे रुपयों की ज़रूरत होती है। एक दोस्त की सलाह और सहयोग से अपने पुत्र के इलाज़ के लिये वह घूम घूम कर चैरिटी शोज आयोजित करवाता है, जिससे अच्छी रकम आने लगती है। लेकिन उन पैसों से बेटे के इलाज़ की ज़गह सर्वप्रथम वह अपने छोटे- छोटे सपनों को पूरा करने लगता है, इस सोच के साथ कि बेटे के ऑपेरशन को कुछ दिनों के लिये टाला भी जा सकता है। और बेटे के बहाने चैरिटी शोज की निरन्तरता तो बनी ही रहनी है। इस प्रकार उसका घर सुसज्जित होने लगता है। चौकी पर नयी चादर, दरवाज़े पर नये पर्दे, घर में छोटा सा टीवी आदि। हश्र यह होता है कि बेटे की हालत ख़राब होती जाती है।
कहने का अर्थ यह कि आप देखेंगे कि समाज में अनेक ऐसे असमर्थ लोग हैं, जिन्हें अपने छोटे छोटे सपने को पूरा करने के लिये बड़े बड़े समझौते करने पड़ते हैं। वह समझौता स्त्री के लिये देह स्तर पर और पुरुष के लिये किसी अन्य स्तर पर भी हो सकता है।

विजय : जब आप अपनी कहानियों में स्त्री को विमर्श के केंद्र के रूप में स्थापित करते हैं, तब समाज की उच्च और मध्य वर्ग की स्त्रियां क्यों उपेक्षित दिखाई देती हैं ? क्या वैसी स्त्रियों में आपको कोई समस्या नज़र नहीं आती ?
रतन : ऐसा बिल्कुल नहीं है विजय जी। आपने तो मेरी लगभग सभी कहानियाँ पढ़ी हैं, फिर भी ऐसा प्रश्न ? आप ही बताइये– मेरी ‘ अंततः ‘ कहानी किस वर्ग की स्त्री की पीड़ा पर आधारित है ? या मुट्ठी भर हवा , अप्रत्याशित नहीं , विडम्बना , एहसास, दीपक-राग आदि, सभी कहानियाँ तो आपने पढ़ ही रखी हैं । देखिये , प्रत्येक वर्ग की स्त्रियों की अपनी अपनी पीड़ाएँ होती हैं। कहीं अपार धन-सम्पदा के बावजूद एकाकीपन की पीड़ा है, कहीं पुरुष की अति व्यस्तता के कारण देह – सुख की पीड़ा, कहीं बड़े पदों पर कार्यरत स्त्री की पारिवारिक समस्याओं की पीड़ा, तो कहीं उस विधवा की पीड़ा, जिसे सारे आर्थिक सुख तो उपलब्ध हैं, लेकिन अपने पुत्रों से मिलने वाली उपेक्षा की पीड़ा…। अब कितना गिनवाऊँ ? और मेरी कोशिश रही है कि समाज की प्रत्येक उन स्त्रियों को अपनी कहानी या उपन्यास में समेट सकूँ , जिनका जीवन विभिन्न अभावों को झेलने और उनसे पीड़ित रहने को अभिशप्त है। मैंने तो वैसी स्त्रियों को भी अपनी कहानी में स्थान दिया है, जो परिवार के के लिये अभिशाप सरीखी हैं और अपने क्रूर आचरण से घर के सदस्यों की नाक में दम किये रहती हैं।
ख़ैर, आगे पूछिये, और क्या जानना चाहते हैं आप ?

विजय : एक कथाकार के तौर पर अपनी पहचान बनाने में क्या आपको भी लम्बे संघर्ष से गुज़रना पड़ा था ?
रतन : नहीं विजय जी ! इस मामले में मैं थोड़ा भाग्यशाली रहा हूँ। मेरी पहली ही कहानी भारत यायावर द्वारा सम्पादित पत्रिका ‘ प्रगतिशील समाज ‘ में प्रकाशित होकर पाठकों द्वारा पसन्द की गयी थी। बाद में, मेरी और भी दो कहानियाँ प्रगतिशील समाज पत्रिका में ही छपी। फिर रांची एक्सप्रेस और प्रभात खबर अखबारों में लगातार कहानियाँ छपती रहीं। यह तो ठहरी लेखन के प्रारंभिक दिनों की बात। लेकिन असल पहचान मुझे ‘ हंस ‘ में प्रकाशित कहानी ‘ दस्तक ‘ से मिली। उसके कुछ ही दिनों बाद 1989 में वर्तमान साहित्य द्वारा आयोजित ‘ कृष्ण प्रताप स्मृति कहानी प्रतियोगिता ‘ में जब मेरी कहानी ‘ गुलबिया ‘ को प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ और फिर ‘ आनन्द डाइजेस्ट ‘ पत्रिका द्वारा आयोजित ‘ आंचलिक कहानी प्रतियोगिता ‘ में मेरी कहानी ‘ सबसे कमजोर जात ‘ सर्वश्रेष्ठ हुई, उसके बाद मैंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1990 में ‘ हंस ‘ में प्रकाशित मेरी ‘ नेटुआ ‘ कहानी पर आधारित नाटक ‘ नेटुआ ‘ , जिसमें मुख्य भूमिका प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता मनोज बाजपेयी ने निभाई थी, वह दशक के सर्वश्रेष्ठ छः नाटकों में शामिल किया गया, तब तो पाठकों के साथ साथ एक बड़े दर्शक वर्ग में भी मेरी पहचान बननी शुरू हो गयी। इस नाटक के उस समय तक सैकड़ों मंचन हो चुके थे। इस नाटक के मंचन आज भी ‘ साइक्लोरामा नाट्य संस्था ‘ द्वारा निरन्तर विभिन्न शहरों में हो रहे हैं।
सच कहूँ, तो मेरे बड़े पाठक-वर्ग ने मुझे अपने लेखन के प्रति पूर्ण रूप से सन्तुष्ट कर रखा है।

विजय : जब हिन्दी साहित्य में आपने इतनी अच्छी पहचान बना रखी है , फिर अब तक आपको ज्ञानपीठ या साहित्य अकादमी पुरस्कार क्यों नहीं मिल पाया ?
रतन : किसी भी लेखक के लिये उसे मिलने वाला सबसे बड़ा पुरस्कार पाठकों के द्वारा मिली हुई सकारात्मक स्वीकृति होती है।
बस, इसी पुरस्कार से मैं पूरी तरह संतुष्ट हूँ विजय जी।

विजय : ‘ हंस ‘ में प्रकाशित आपकी नेटुआ कहानी काफी चर्चित रही। इस कहानी के मंचन ने भी आपको अच्छी ख्याति दी। फिर आपने जो इसी विषय पर ‘ नेटुआ करम बड़ा दुखदायी ‘ शीर्षक से एक वृहत उपन्यास की रचना की, तो इसकी जरूरत आपको क्यों महसूस हुई ?
रतन : ‘ नेटुआ ‘ कहानी में मैंने कथा-नायक के जीवन के सिर्फ एक पक्ष को आधार बनाया है, जबकि नेटुआ विरासत की एक वृहत परम्परा रही है मिथिलांचल के उस समाज में, जिस पृष्ठभूमि पर नेटुआ कहानी लिखी गयी है। मुझे इस यथार्थ का ज्ञान था कि कथानायक झमना का नाना भी अपने जमाने में नेटुआ ही हुआ करता था। उन दिनों समाज में नेटुआ का खासा महत्व हुआ करता था। शादी-व्याह, छट्ठी- छिल्ला, सरस्वती पूजा- होली या स्थानीय चुनावों में प्रचार आदि अवसरों पर नेटुआ नाच की महत्ता बढ़ जाया करती थी। बचपन में ऐसे सारे अवसरों का मैंने खूब लुत्फ उठाया है। इसलिये, जब मैंने कहानी के तौर पर नेटुआ की रचना की, तबसे ही मुझे लगता रहा कि इस विषय पर मैंने नगण्य सा ही काम किया है और मन में निरन्तर छटपटाहट बनी रही कि उस विषय पर विस्तार से कुछ काम करूँ। उसी छटपटाहट का असर रहा, जिसने मुझसे ‘ नेटुआ करम बड़ा दुखदायी ‘ शीर्षक उपन्यास की रचना करवा ली।

विजय : चार दशकों से आप कथा-लेखन में सक्रिय हैं। कभी आपको ऐसा भी महसूस हुआ कि अगर आप लेखन के बजाय किसी अन्य कार्य में संलग्न होते, तो अच्छा होता ?
रतन : आपको ऐसा क्यों लग रहा है विजय जी ? सच तो यह है कि अगर पुनर्जन्म की अवधारणा सच है, तो मैं हर जन्म में लेखक ही बनना पसन्द करूंगा। लेकिन एक कथाकार के तौर पर ही।इसलिये कि कथाकार के तौर पर मैं अपनी बात पूरी स्पष्टता से रख सकता हूँ और वह बात पाठकों तक भी सहजता से सम्प्रेषित हो जाती है। यानी, पाठकों से सीधे-सीधे जुड़ पाने का अवसर मिलता है । साथ ही कथा लेखन हमें अपने देश और समाज के दुख सुख , प्रेम – उल्लास, हमारी संस्कृति और विभिन्न सामाजिक समस्याओं से उसी स्पष्टता के साथ सरोकार स्थापित करने का अवसर भी पर प्रदान करता है। वैसे, लेखन के अलावे भी हमें धनोपार्जन के लिये कुछ उद्यम करना चाहिये।जो मैं करता रहा हूँ।

विजय : आपकी अनेक कहानियों के नाट्य- मंचन भी हुए हैं। जब मंचित होने वाली आपकी कहानियों के पात्र सजीव होकर अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व और आचार – व्यवहार के साथ मंच पर उपस्थित होते हैं, तब उन्हें देखकर आपको कैसी अनुभूति होती है ?
रतन : कैसी अनुभूति होगी ? सुखद ही न ! लेकिन इससे भी बड़ा सुख मुझे तब मिलता है, जब दर्शकों से मेरी कृति को अच्छी प्रतिक्रिया मिलती है। इस संदर्भ में मैं आपको एक वाक़या सुनाता हूँ। मेरी कहानी ‘ सबसे कमजोर जात ‘ पर आधारित नाटक का का मंचन हो रहा था। उसे देखने के लिये मैं भी दर्शक दीर्घा में जाकर बैठ गया था। मेरे आगे वाली कुर्सी पर एक सम्भ्रांत युवती बैठी थी। नाटक में जब नायिका रधिया का पति रधिया को मारते-पीटते हुए जबरन उसके हाथ से पहुँची उतरवाने वाला दृश्य आता है, जिसमें प्रतिकार करती हुई रधिया रो भी रही होती है, तब उस दृश्य की जीवन्तता पर दर्शकों की तालियों के बीच मेरे आगे वाली कुर्सी पर बैठी युवती की सिसकी ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया था। मैंने इधर उधर नज़रे घुमा के पूरे ऑडिटीरिम का मुआयना किया था और पाया था कि कई सारी दुनिया स्त्रियाँ अपने दुपट्टे या आँचल से अपने आँसू पोंछ रही थीं।
इस प्रसंग के ज़िक्र का कारण यह है कि नाट्य-मंचन अगर प्रस्तुति की दृष्टि से सशक्त हो, तो यह दर्शकों के साथ सीधे सीधे सरोकार स्थापित कर उन्हें संवेदनात्मक स्तर पर अपने प्रभाव में लेने में सफल होता है।

विजय : एक ओर आपका परिवार है और दूसरी ओर आपका लेखन-कर्म।। इन दोनों के बीच आप तालमेल कैसे बिठा पाते हैं ?
रतन : परिवार तो सभी के होते हैं, विजय जी। आपके भी हैं। कोई खेती करता है, कोई व्यापार करता है, कोई नौकरी, कोई अभिनय , कोई मजदूरी , तो कोई लेखन। सभी अपने-अपने कार्यों में व्यस्त होने के बावज़ूद अपनी गृहस्थी भी सम्भालते हैं। आप भी सारा दिन व्यापार करते हैं। लेखन से भी जुड़े हुए हैं। तो क्या गृहस्थ जीवन से कटा हुआ महसूस करते हैं ? …. मुझे लगता है कि आपका इशारा धनोपार्जन से है। हाँ, यह सच है कि लेखन- कार्य से धन का उपार्जन नहीं हो सकता। लेकिन धनोपार्जन के कई अन्य स्रोत उपलब्ध हैं समाज में।

विजय : क्या आप अपने चार दशकों से जारी लेखकीय जीवन से संतुष्ट हैं ? क्या अभी भी कुछ नया रचने की चाह है ?
रतन : अपने लेखकीय जीवन से संतुष्ट न होता, तो कब का इससे तौबा कर चुका होता। रही बात, आगे भी कुछ नया रचने की चाह की , तो हम रचनाकार कुछ रचने के लिये नहीं रचा करते, बल्कि हमसे रचनाएँ रच जाया करती हैं। कैसे, कब, यह तो हमें भी पता नहीं होता। रही बात , आगे कुछ नया रचने की चाह की, तो यह तो परिस्थिति और मनःस्थिति पर निर्भर करता है। वैसे, लेखन की निरन्तरता तो बनी ही हुई रहती है।चाहे जो लिख जाय– कविता, कहानी,उपन्यास, संस्मरण, आलेख, जो भी।

विजय : आपने अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि आपकी कहानियों की प्रथम पाठक आपकी पत्नी होती हैं। क्या कभी उनकी किसी प्रतिक्रिया से आपको खीझ भी हुई है ?
रतन : हाहाहाहा… । यह सच है विजय जी ! मेरी जब भी कोई नयी कहानी लिखी जाकर समाप्त होती है या उपन्यास ही,तो उसकी प्रथम पाठिका मेरी पत्नी मंजू ही होती है। पहले जब वह नौकरी में थी, तब भी होती थी और अब, जबकि वह सेवा- निवृत्त हो चुकी है, तब भी। वह मेरी रचनाओं को एक निर्मम आलोचक की तरह, न सिर्फ पढ़ती है, बल्कि अगर ज़रूरी समझती है , तो कटु आलोचना से भी नहीं चूकती। कई बार उसकी आलोचना से असहमत होते हुए मैं उसे कन्विंस करने की कोशिश भी करता हूँ।और अधिकांशतः वह कन्विंस हो भी जाती है। मगर अनेक बार उसका तर्क इतना सटीक होता है कि मुझे उससे सहमत होकर रचना के किसी अंश में परिवर्तन भी करना पड़ता है। एक तरह से वह मुझे मेरी रचनाओं के परिमार्जन में सहयोग ही करती है। वैसे, सिर्फ रचना के परिमार्जन में नहीं, बल्कि अगर मुझे उसका सहयोग प्राप्त नहीं होता , तो शायद मैं लेखक होता ही नहीं। दिलचस्प बात तो यह है कि चूंकि मैं मिथिला का मूल निवासी हूँ, इसलिये कहीं कहीं मैं ‘ र ‘ को ‘ ड़ ‘ और ‘ ड़ ‘ को ‘ र ‘ लिख जाता हूँ। मिथिला की बोली में र और ड़ का घालमेल आम है। तो जब कहीं वह इस खामी को पकड़ लेती है, तो जैसे डाँटती हुयी बोल पड़ती है, ” लीजिये, फिर वही गलती। पता नहीं, कब सुधरेंगे आप ! …… “
उसकी इस आत्मीय डाँट का स्वागत मैं अपनी ठीसियायी मुस्कुराहट से करता हूँ। सच कहूँ तो उसका डाँटना मुझे अच्छा लगता है।

विजय : आज की राजनीति पर आपका लेखकीय दृष्टिकोण क्या है ?
रतन : सिर्फ आज की राजनीति पर नहीं, बल्कि आज़ादी के बाद से लेकर अब तक की भारतीय राजनीति का एक ही मंत्र रहा है। और वह है येन केन प्रकारेण सत्ता पर काबिज़ होना। इसके लिये चाहे जनता का खून बहाना हो, उसका शोषण करना हो, जनता के बीच आपसी फूट पैदा करना हो, अपने ऐश्वर्य और कुर्सी के लिये धन इकट्ठा करने के निमित्त घोटाले करने हों या वैचारिक समझौता करना हो, ये राजनीतिज्ञ किसी भी निम्न से निम्नतर स्तर तक जा सकते हैं। पहले की स्थिति को छोड़िये, जयप्रकाश आंदोलन को ही ले लीजिये। इसे सम्पूर्ण क्रांति का नाम दिया गया था। लेकिन आप ही बताइए— क्या यह आंदोलन व्यवस्था-परिवर्तन के लिये था ?नहीं ! सिर्फ सत्ता परिवर्तन के लिये था। वह भी सिर्फ एक शीर्षस्थ नेता इन्दिरा गांधी को पदच्युत करके एक नयी सत्ता की स्थापना के लिये। इसके लिये विचारधाराओं के घालमेल की भी परवाह नहीं की गयी। हश्र यह हुआ कि विभिन्न विचारधाराओं वाली पार्टियों ने एकजुट होकर एक पार्टी ‘ जनता पार्टी ‘ का गठन किया और सत्तासीन हो गयी। इसका नतीजा क्या निकला , यह सर्वविदित है। लेकिन यह तो समझ में आ ही गया कि सत्ता की कीमत पर जनता या विचारधारा का कोई महत्व नहीं होता।
उन्हीं दिनों कवि स्व.कामेश दीपक की एक कविता की दो पंक्तियों को उद्धृत करना यहाँ प्रासंगिक होगा—
‘ जितनी चाहो, आज भुना लो,
हर ताज़ा, कल बासी होगा,
दिल – बदलू मतदान करेंगे ,
दल – बदलू प्रत्याशी होगा ‘
अब वर्तमान राजनैतिक सन्दर्भ को ले लें — आज उस भारतीय जनता पार्टी की सरकार है, जिसे हिन्दुवादी विचारधारा की सरकार कहा जाता है। लेकिन जिस तरह से विभिन्न विचारधाराओं वाली पार्टी के लोग अपनी पार्टियों से टूट कर इससे या इसकी सहयोगी पार्टियों से हाथ मिलाकर अपनी सत्ता में बने रहने की नियत को स्पष्ट कर रहे हैं… और भाजपा भी दोनों बाँहें फैलाकर अपनी या सहयोगी पार्टियों में उनका स्वागत कर रही है, इससे क्या लगता है ? क्या अब भी कोई नेता यह कह सकता है कि सत्ता की भूख के सिवा उसकी अपनी कोई विचारधारा भी है ?
देखिये, हम भोली भाली जनता एक नेता को या किसी पार्टी को दूसरी पार्टी के विरोध में चुनते हैं और वह नेता या पार्टी अपने स्वार्थ में अपने उस विरोधी से ही हाथ मिला लेता है, तब हम वोटर को क्या मिलता है ? धोखा ही न !
विजय जी,आपके इस प्रश्न का जवाब सीमित शब्दों में सम्भव नहीं है।यह एक वृहत आलेख की मांग करता है। फिर भी संक्षेप में इस राजनीति के एक पक्ष को सामने रखा है मैंने। आगे कभी फिर से हम बातचीत करेंगे।

विजय : आपकी ‘ शेर ‘ कहानी का नायक, जो एक आईएएस अधिकारी है , वह अपने कार्यक्षेत्र में एक आदर्श अधिकारी की तरह अपनी पहचान स्थापित करना चाहता है, जिसमें भ्रष्टाचार की कोई ज़गह न हो और वह आम-जन की समस्याओं के निदान में पूरी ईमानदारी से अपने कर्तव्य का निर्वहन करे। लेकिन उसके साथ ऐसी-ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं, जो उसके न चाहते हुए भी उसके आदर्शों के विपरीत कार्य करने को विवश करती रहती हैं। धीरे-धीरे उसका आत्मबल कमज़ोर होता जाता है । फिर एकबारगी वह उन तमाम विपरीत परिस्थितियों के विरुद्ध शेर बनकर दहाड़ उठता है। ऐसा हो पाना स्वाभाविक है क्या ?
रतन : देखिये, विजय जी ! आपने यह शे’र सुनी होगी—
” आग जब भी कोई आकाश से बरसाता है,
मूक इंसान भी तब जोर से चिल्लाता है ! “
लेकिन वह मूक इंसान चिल्लाता कब है ? जब उस आग की जलन उसके लिये पूरी तरह असहनीय हो जाती है। ‘ शेर ‘ कहानी के नायक विनोद को भी कुछ ऐसे ही हालातों से गुजरना पड़ता है। बचपन से ही उसके शिक्षक पिता उसमें नैतिकता, बड़ों का आदर करना, दुनिया में कोई बड़ा या छोटा नहीं होता , ईमानदारी, सामाजिकता , मानवता आदि जैसे संस्कार भरते रहते हैं। और विनोद भी अपने पिता की दी हुई शिक्षा को अक्षरशः अपनी जीवन – शैली में शामिल कर , वैसे ही आचरण अख्तियार किये रहता है। लेकिन जैसे ही विनोद आईएएस अधिकारी बनता है, उसके शिक्षक पिता उसे यह सीख देने की कोशिश करते हैं कि अब वह खास हो गया है और समाज के बाकी के लोग आम।
इसपर विनोद पिता के समक्ष आपत्ति भी दर्ज़ करता है कि उन्होंने ऐसी शिक्षा तो उसे कभी नहीं दी थी। तब उसके पिता पूरी बेशर्मी से उससे कहते हैं कि जो शिक्षा उन्होंने उसे दी थी, वह महज़ किताबी शिक्षा थी, जबकि अब जो वे उसे समझा रहे हैं, वही प्रायोगिक है। इसके लिये वे उसके समक्ष सड़क किनारे लगे आम के वृक्ष और अपनी ज़मीन में लगे आम के वृक्ष का उदाहरण देते हैं कि कैसे सड़क किनारे वाले वृक्षों को लोगों के द्वारा पत्थर के आघात सहने पड़ते हैं और अपनी ज़मीन पर के वृक्ष सुरक्षित- संरक्षित होते हैं। यहाँ तक कि उसके पिता, विनोद के आईएएस बनने के साथ ही अपनी शिक्षक की नौकरी से भी ऐच्छिक सेवा निवृति ले लेते हैं। इस तर्क़ के साथ कि एक आईएएस का पिता अगर अदना से शिक्षक की नौकरी करेगा, तो समाज में उसकी क्या प्रतिष्ठा रह जायेगी ? इतना ही नहीं, शिक्षक की नौकरी छोड़ने के बाद वे विनोद के कार्यक्षेत्र के भ्रष्ट लोगों से पैसे लेकर उनके नाज़ायज़ काम करवाने के लिये अपने बेटे पर दवाब भी बनाते हैं और संस्कारों के मकड़जाल में जकड़ा विनोद पिता से कुछ नहीं कह पाता। लेकिन अंदर ही अंदर घुटता रहता है।
एक आईएएस अधिकारी अपने कार्यक्षेत्र का शेर तो होता ही है। विनोद भी शेर की ही भूमिका में होता है। लेकिन धीरे- धीरे वह कई रिंगमास्टरों से घिरा पिंजरे का शेर बनता जाता है। उन रिंगमास्टरों में उसके अपने पिता, मंत्री ससुर, मंत्री-पुत्री उसकी पत्नी होते हैं , जो उसपर अक्सर दवाब बनाये रहते हैं। विनोद का मन क्रमशः उन सभी के प्रति घृणा और गुस्से से भरता जाता है। और अंततः वही घृणा और गुस्सा जब बर्दाश्त के बाहर हो जाता है, तब रिंग मास्टरों द्वारा निर्मित पिंजड़े को तोड़ कर वह स्वच्छंद शेर की तरह दहाड़ उठने को विवश हो जाता है।
विजय जी, मुझे लगता है कि अब कहानी की विश्वसनीयता आपके समक्ष स्पष्ट हो गयी होगी।

विजय : आपका हालिया प्रकाशित उपन्यास ‘ रसरंग अंगना ‘ वामपंथी राजनीति में प्रवेश कर गये भ्रष्टतंत्र पर से पर्दा उठा पाने में कितना सफल हो पाया है ?क्या वामपंथी राजनीति अपने अंतिम दौर में है ?
रतन : वामपंथ एक विचारधारा है विजय जी। एक ऐसी विचारधारा , जिसमें समाज के दलित, पिछड़े, वंचित, और दबे- कुचले वर्ग के उत्थान के लिये उनके पक्ष में संघर्ष की मंशा निहित है। इसलिये इस विचारधारा का अवसान कभी नहीं हो सकता। लेकिन देश-समाज में इस विचारधारा की स्थापना के लिये निःस्वार्थ इच्छाशक्ति की ज़रूरत होनी चाहिये।यह नहीं कि येन केन प्रकारेण सत्ता या निजी स्वार्थ के आकर्षण में विचारधारा से समझौता तक की परवाह न की जाय। उदाहरण-स्वरूप उपन्यास के दो पात्रों की चर्चा करना चाहूंगा— पहला, उपन्यास का मूल नायक आकाश, जो सीपीएम पार्टी का एक समर्पित कार्यकर्ता है और दूसरा, सीपीएम का जिला अध्यक्ष। आकाश जिस गाँव का निवासी है, वह क्षत्रिय , भुइयाँ जाति और मुस्लिम बहुल गाँव है , जिसमें सर्वाधिक जनसंख्या भुइयाँ जाति की है और क्षत्रिय की संख्या अनुपात में सबसे कम है। लेकिन चूंकि क्षत्रिय जाति के लोग आर्थिक और राजनैतिक रूप से काफी सशक्त हैं, इसलिये गाँव के निर्धन और असमर्थ लोगों पर जुर्म करते रहना वे अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। आकाश भी क्षत्रिय जाति का एक संवेदनशील युवक है, जो बचपन से ही गाँव के असमर्थ लोगों पर होने वाले अत्याचार को देखता और उसे शिद्दत से महसूस करता आया है।कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ही वह मार्क्सवाद से प्रभावित होकर सीपीएम की सदस्यता ग्रहण कर, गाँव के दबे-कुचले वर्ग को अपने ही कुल के शोषक प्रवृति के लोगों के विरुद्ध संगठित करने में संलग्न हो जाता है । इसके लिये उसे अपने परिवार और स्वजातियों से वहिष्कार का दंश भी झेलना पड़ता है। लेकिन अपने सिद्धांत से रत्ती भर भी समझौता वह नहीं करता। यहाँ तक कि अपने वंश के लोगों के कुकृत्य के कारण खुलकर उनके विरुध्द वह खड़ा होता है और विजयी भी होता है।इस प्रकार एक कार्यकर्ता के तौर पर सीपीएम पार्टी में उसका क़द बढ़ता जाता है। वह, न सिर्फ अपने गाँव, बल्कि आस-पास के गाँवों के भी किसान-मज़दूर और शोषितों को अपने संगठन से जोड़ता है, जिससे सीपीएम का एक बड़ा वोटबैंक तैयार हो जाता है। तभी राज्य-स्तर पर जनता दल और सीपीएम-सीपीआई का चुनावी गठबंधन हो जाता है। आकाश के गाँव के बजरंगी सिंह के पुत्र जनता दल के कद्दावर नेता हैं और जिनके बलात्कारी पुत्र को आकाश सिंह के कारण ही जेल जाना पड़ता है। इसलिये वे आकाश सिंह से निजी दुश्मनी पाल लेते हैं। वे सीपीएम के जिला अध्यक्ष को फैक्ट्री के लिये अपनी ज़मीन उपलब्ध करवा देते हैं, जिसके एवज में जिला अध्यक्ष आकाश के विरुद्ध राज्य- कमिटी को गलत-सलत रिपोर्ट भिजवा देते हैं और आकाश को पार्टी की सदस्यता से त्यागपत्र देने को विवश कर देते हैं।
जब लेखक कार्तिकेय, जो आकाश के पट्टीदारी का चचेरा भाई है, आकाश से पूछता है कि पार्टी तो उसने छोड़ दी है, सो आगे क्या करने का इरादा है, तब आकाश बोलता है कि जो वह करता रहा है, वही करता रहेगा। पार्टी छोड़ी है, विचारधारा तो नहीं ….
ख़ैर विजय जी ! कहने का अर्थ यह कि सत्ता की राजनीति और वैचारिक प्रतिबद्धता, दोनों की धरातल अलग अलग हैं। आपने सिर्फ वामपंथ को लेकर प्रश्न किया है, इसलिये बस उसी का उत्तर दे रहा हूँ। वैसे इस 406 पृष्ठों के उपन्यास में अनेक ऐसे प्रसंग हैं, जिनपर बात किये जाने की आवश्यकता है।

विजय : आपकी अब तक डेढ़ सौ से अधिक कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। छ: उपन्यास भी प्रकाशित हैं। उन कहानियों और उपन्यासों में आप कौन सी कहानी और उपन्यास को सर्वाधिक अपने करीब पाते हैं ? यानी किसे सर्वाधिक पसन्द करते हैं ?
रतन : इस प्रश्न का जवाब तो आपको देना चाहिये। आपने मेरी लगभग सारी रचनाएँ पढ़ी हैं। मैं तो लेखक हूँ। जो भी लिखता हूँ पाठकों की अदालत के सुपुर्द कर ख़ुद मुज़रिम की तरह कठधरे में खड़ा होता हूँ। अब वे जानें कि कि मेरी कौन सी रचना अनुकूल ढंग से प्रभावित करती है और कौन सी नहीं। जहाँ तक मेरी पसन्दगी और नापसंदगी का प्रश्न है, तो मेरी सारी रचनाएँ ही मेरी सन्तान की तरह हैं। इनमें से किसे पसन्द या नापसन्द करूँ ?

विजय : आप अपने रचना-संसार पर क्या कहना चाहेंगे ?
रतन : इतना ही कि बिना किसी गुटबाजी या साहित्यिक राजनीति के मुझे पाठकों , पत्र-पत्रिकाओं और प्रकाशकों से जितना भी प्यार-सम्मान मिला, उससे मैं पूर्णतः संतुष्ट हूँ।

विजय : सोशल मीडिया का यह वर्तमान दौर रचनाकारों के लिये एक मंच के रूप में सामने आया है। आप लेखकों के लिये इसे कितना उपयोगी मानते हैं ?
रतन : सच तो यह है विजय जी कि सोशल मीडिया से मेरा कोई खास सरोकार नहीं है। इसलिये इसपर कुछ भी कह पाना मेरे लिये सम्भव नहीं।

विजय : देश भर के बुक स्टॉल्स से हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाएं धीरे-धीरे कम होती जा रही हैं। अब तो साहित्यिक पत्रिकाओं की दुकानें भी इक्की दुक्की ही दिख रही हैं। इस संकट पर आप क्या सोचते हैं ?
रतन : हाँ विजय जी ! यह चिंता का विषय तो है ही। जब मैंने लेखन की शुरुआत की थी, तब ‘ बुक यू लाइक ‘ स्टॉल पर अकेले हंस पत्रिका की डेढ़ सौ प्रतियाँ आती थीं और आने के साथ ही बिक जाया करती थीं। उस पत्रिका के अलावा सारिका, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान और कई सारी लघु पत्रिकाएं भी वहाँ उपलब्ध हुआ करती थीं। कुछ महत्वपूर्ण लेखकों के उपन्यास, कथा-संग्रह, कविता संग्रह भी वहाँ मिल जाया करते थे लेकिन कुछ साल पहले वह बुक-स्टॉल बंद हो गया। अब अगर तलाशनी हो, तो एकमात्र शंकर बुक स्टॉल बस स्टैंड पर है, जहाँ हंस की पाँच प्रतियाँ , वागर्थ तथा कुछेक अन्य पत्रिकाओं की भी लगभग इतनी ही प्रतियाँ मंगवायी जाती हैं। स्टॉल के मालिक का कहना है कि उन पाँच प्रतियों के भी क्रेता मुश्किल से ही मिल पाते हैं। ऐसे संकट की घड़ी में भी पत्रिकाओं का नियमित प्रकाशित होते रहना , हैरत में डालता है। आप सही कह रहे हैं कि वे आर्थिक नुकसान सहकर भी साहित्य की निःस्वार्थ सेवा में संलग्न हैं। फिर पुस्तकों का तो पूछिये ही मत। देश में हिन्दी साहित्य के प्रकाशकों की तो बाढ़ सी आ गयी है। बावज़ूद इसके, पुस्तकें पाठकों तक पहुँचती कहाँ हैं ? आप किसी लेखक की पुस्तक खरीदना भी चाहें, जो जाकर ढूंढ आइये, किसी बुक-स्टॉल में नहीं मिलेगी। मेरी ख़ुद की चौदह पुस्तकें प्रकाशित हैं, जाइये पूरे झारखण्ड के बुक स्टॉल्स पर तलाश आइये, कहीं एक भी पुस्तक मिल जाय, तो खुशकिस्मती समझिये। वह तो कहिये कि पुस्तकालयों में सरकारी ख़रीद के लिये फंड उपलब्ध नहीं करवाये जाते, तो प्रकाशकों के लिये फ़ाके की नौबत आ जाती। और पुस्तकालयों में भी साहित्य के पाठक अपवाद स्वरूप ही नज़र आते हैं। उनमें भी अधिकतर शोधार्थी ही होते हैं।
जब मैंने लेखन शुरू किया था,अधिकांश महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाएं सहजता से उपलब्ध हो जाया करती थीं। कुछ लघु-पत्रिकाएं, जो बुक स्टॉल्स पर उपलब्ध नहीं होती थीं, उन्हें शहर के कोई लेखक मंगवाकर उपलब्ध करवाया करते थे। सामान्य पाठक भी तगादा करके कि अमुक पत्रिका आयी है या नहीं, विक्रेता लेखक से लघु-पत्रिका ख़रीदा करते थे। मैं ख़ुद वर्तमान साहित्य, कथानक जैसी लघु पत्रिकाएं मंगवाकर पाठकों को उपलब्ध करवाया करता था। लेकिन आज अगर शहर में युवा पीढ़ी के लेखक हैं भी, तो उन्हें पत्र-पत्रिकाओं या साहित्य को पढ़ने में कोई रुचि नहीं है। किसी पत्रिका में अगर उनकी रचना प्रकाशित हुई है, तो उस पत्रिका में बारम्बार अपनी रचना पढ़कर आत्ममुग्ध होते रहेंगे, मित्रों में ख़ुद ही अपनी रचना की चर्चा करेंगे । लेकिन उसी पत्रिका में प्रकाशित दूसरे रचनाकार की रचना नहीं पढ़ेंगे। इनमें भी अपवाद स्वरूप इक्के-दुक्के ऐसे लेखक होंगे, जो हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रुचि रखते हैं।
खैर, और भी कुछ पूछना है ?

विजय : नये लेखकों को रचनाकर्म के सम्बंध में क्या सलाह देना चाहेंगे ?
रतन : आपने कुछ वर्ष पहले भी मेरा एक साक्षात्कार किया था। तब मैंने यही कहा था कि ‘ प्रत्येक लेखक अपनी प्रत्येक नयी रचना के साथ नवोदित होता है। ‘ कहने का तात्पर्य यह कि नये लेखक ही क्यों, सारे लेखकों की सोच अगर ऐसी हो, तभी वे बेहतर से बेहतरीन रचना दे सकते हैं।

विजय : आप अपने पाठकों से क्या कहना चाहेंगे ?
रतन : बस, उनका आभार प्रकट करना चाहूंगा कि वे मुझे लेखक बने रहने के लिये हमेशा प्रोत्साहित करते रहें। वे पाठक वर्ग ही हैं, जिन्होंने मुझे ही क्यों, मेरे अग्रज लेखक चन्द्रकिशोर जायसवाल, रामधारी सिंह दिवाकर, विद्याभूषण आदि जैसे आज के सशक्त और ज़रूरी लेखकों को सक्रिय बनाये रखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते रहे हैं।
विजय : अच्छा, रतन वर्मा जी ! आपसे बातचीत करके बहुत अच्छा लगा। आपने अपना कीमती वक़्त दिया, इसके लिये आभार।

Vijay Keshari
Vijay Kesharihttp://www.deshpatra.com
हज़ारीबाग़ के निवासी विजय केसरी की पहचान एक प्रतिष्ठित कथाकार / स्तंभकार के रूप में है। समाजसेवा के साथ साथ साहित्यिक योगदान और अपनी समीक्षात्मक पत्रकारिता के लिए भी जाने जाते हैं।
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