1857 को अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हुए पहले स्वतंत्रता संग्राम में तात्या टोपे ने बहुत ही दमदार भूमिका निभाई थी। उन्होंने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे।
तात्या टोपे का जन्म सन 1814 ई. में नासिक के निकट पटौदा ज़िले में येवला नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम पाण्डुरंग त्र्यम्बक भट्ट तथा माता रुक्मिणी बाई थीं। तात्या टोपे देशस्थ कुलकर्णी परिवार में जन्मे थे। इनके पिता पेशवा बाजीराव द्वितीय के गृह-विभाग का काम देखते थे। तात्या का वास्तविक नाम ‘रामचंद्र पांडुरंग येवलकर’ था। ‘तात्या’ मात्र उपनाम था।
बिठूर आगमन
तात्या टोपे जब मुश्किल से चार वर्ष के थे, तभी उनके पिता के स्वामी बाजीराव द्वितीय के भाग्य में अचानक परिवर्तन हुआ। बाजीराव द्वितीय 1818 ई. में बसई के युद्ध में अंग्रेज़ों से हार गए। उनका साम्राज्य उनसे छिन गया। उन्हें आठ लाख रुपये की सालाना पेंशन मंजूर की गई और उनकी राजधानी से उन्हें बहुत दूर हटाकर बिठूर, कानपुर में रखा गया।
बिठूर में तात्या टोपे का लालन-पालन हुआ. बचपन में उन्हें नाना साहब से अत्यंत स्नेह था. इसलिए उन्होंने जीवन-पर्यन्त नाना की सेवा की. उनका प्रारंभिक जीवन उदित होते हुए सूर्य की तरह था. क्रांती में योगदान की कहानी तांत्या के जीवन में कानपुर-विद्रोह के समय से प्रारंभ होती है. तांत्या काफी ओजस्वी और प्रभावशाली व्यक्ति थे. उनमे साहस, शौर्य, तत्परता, तत्क्षण निर्णय की क्षमता एवं स्फूर्ति आदी अनेक प्रमुख गुण थे।
1857 के विद्रोह के हीरो
सन् १८५७ के विद्रोह की लपटें जब कानपुर पहुँचीं और वहाँ के सैनिकों ने नाना साहब को पेशवा और अपना नेता घोषित किया। तो तात्या टोपे ने कानपुर में स्वाधीनता स्थापित करने में अगुवाई की। तात्या टोपे को नाना साहब ने अपना सैनिक सलाहकार नियुक्त किया। जब ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक की कमान में अंग्रेज सेना ने इलाहाबाद की ओर से कानपुर पर हमला किया तब तात्या ने कानपुर की सुरक्षा में अपना जी-जान लगा दिया, परंतु १६ जुलाई, १८५७ को उसकी पराजय हो गयी और उसे कानपुर छोड देना पडा। शीघ्र ही तात्या टोपे ने अपनी सेनाओं का पुनर्गठन किया और कानपुर से बारह मील उत्तर मे बिठूर पहुँच गये। यहाँ से कानपुर पर हमले का मौका खोजने लगे। इस बीच हैवलॉक ने अचानक ही बिठूर पर आक्रमण कर दिया। यद्यपि तात्या बिठूर की लडाई में पराजित हो गये परंतु उनकी कमान में भारतीय सैनिकों ने इतनी बहादुरी प्रदर्शित की कि अंग्रेज सेनापति को भी प्रशंसा करनी पडी।
यूरोप के समाचार पत्रों का ध्यान भी आकृष्ट किया
18 जून को रानी लक्ष्मीबाई ने वीरगति प्राप्त की तथा ग्वालियर अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया। तत्पश्चात तात्या ने गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाई । तात्या पर दवाब बनाने के लिए अंग्रेजों ने उनके पिता, पत्नी तथा बच्चों को कैद में डाल दिया । तात्या को पकड़ने के लिए छह अंग्रेज सेनानी तीनों ओर से उन्हें घेरने का
प्रयत्न कर रहे थे; परंतु तात्या उनके जाल में नहीं फंसे । इन तीन सेनानियों को छकाकर तथा पीछा कर रहे अंग्रेजी सेनिकोंके छक्के छुडाकर 26 अक्टूबर 1858 को नर्मदा नदी पार कर दक्षिण में जा धमके। इस घटना को इंग्लैंड सहित यूरोप के समाचारपत्रों ने प्रमुखता से स्थान दिया।
अंग्रेजों ने छल कर पकड़ा
निरंतर 10 माह तक अकेले अंग्रेजों को नाकों चने चबवानेवाले तात्या को पकडनेके लिए अंततः अंग्रेजों ने छल नीति का आश्रय लिया । ग्वालियर के राजा के विरुद्ध अयशस्वी प्रयास करनेवाले मानसिंह ने ७ अप्रैल १८५९ को तात्या को परोणके वन में सोते हुए बंदी बना लिया । १५ अप्रैलको तात्यापर अभियोग चलाकर सैनिक न्यायालयमें शिप्रीमें उसी दिन शीघ्र निर्णय ले लिया। इस वीर मराठा देशभक्त को 18 अप्रैल 1859 को फांसी पर चढ़ा दिया गया |