Thursday, May 16, 2024
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‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ और सावित्रीबाई फुले

भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में जो महिलाओं की सहभागिता हुई थी, इनमें सावित्रीबाई फुले के समाज सुधार व बालिका शिक्षा आंदोलन का बड़ा योगदान था।

2023 में ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ कानून बन गया । ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ और समाज सुधारक सावित्रीबाई फुले के बीच गहरा रिश्ता है। ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ जैसे कानून का शंखनाद पौने दो सौ वर्ष पूर्व सावित्रीबाई फुले ने किया था। नारी शक्ति जागरण की बात जब भी जेहन में आती है, सावित्रीबाई फुले की तस्वीर उभर कर सामने आ जाती है। आज से लगभग दो सौ वर्ष पूर्व भारतीय समाज किन कुरीतियों के बीच पल कर बढ़ रहा था, उसकी तस्वीर आंखों के सामने साफ झलकने लगती है । सावित्रीबाई फुले समाज में व्याप्त जाति प्रथा, छुआछूत, विधवाओं के साथ भेदभाव, शिक्षा से बालिकाओं को दूर रखने जैसी रूढ़ियों को समाप्त करना चाहती थी। ऐसी कुरीतियां के कारण समाज का विकास अवरुद्ध हो चुका था। सावित्रीबाई फुले ऐसी कुरीतियों को जड़ से समाप्त करना चाहती थी। जब वह बड़ी हुई तब उन्होंने अपने सपने को साकार करना शुरू कर दिया था । वह बचपन से ही छुआछूत, भेदभाव, जातिवाद और बालिका शिक्षा पर अघोषित रोक का विरोध करती रही थी। लेकिन उनकी बातों को अनसुनी कर दिया जाता था।
इस कालखंड में बालिकाओं की शिक्षा पर अघोषित प्रतिबंध था। बालिकाओं का जन्म सिर्फ घर के कामकाज एवं नौ-दस साल की उम्र होने पर उसका विवाह कर दिया जाता था । फिर वह ससुराल जाकर चूल्हा -चौकी से जुड़ जाती थी। वह इस नए दायित्व को संभालते हुए बच्चों को जन्म देकर उसका पालन पोषण से जुड़ जाती थीं। यह करते हुए उसकी जीवन लीला समाप्त हो जाती थी। एक बालिका के क्या अरमान है ? क्या शौक हैं ? वह जीवन में क्या करना चाहती हैं ? वह क्या बनना चाहती हैं? इन तमाम इन तमाम चाहतों व अरमानों से बालिकाओं को दूर रखा जाता था। एक तरह से इस अघोषित प्रतिबंध के कारण बालिकाएं खुले समाज में एक कैदी के रूप में जीवन जीने के लिए विवश थीं।
यह लिखते हुए बहुत दुख होता है कि उस कालखंड में बड़े-बड़े राजा – महाराजाओं एवं जमींदारों की बेटियां भी शिक्षा से दूर ही रहती थी। बालिकाओं को शिक्षा से दूर क्यों रखा जाता था ? यह बात आज भी समझ से परे लगती हैं।
इन तमाम कुरीतियों को जड़ से मिटाने के लिए सावित्रीबाई फुले ने जो काम कर दिखाया, उसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में जो महिलाओं की सहभागिता हुई थी, इनमें सावित्रीबाई फुले के समाज सुधार व बालिका शिक्षा आंदोलन का बड़ा योगदान था। सावित्रीबाई फुले ने बालिकाओं को आगे बढ़ाने के लिए जो शिक्षा का दरवाजा खोला था, यह अपने आप में एक मिसाल थी। कई सामाजिक प्रतिबंधों एवं समाज के विरोध के बावजूद सावित्रीबाई फुले ने अपने कदम को पीछे नहीं किया बल्कि समाज सुधार और बालिका शिक्षा को आगे बढ़ाने में अपना सब कुछ निछावर कर दिया था। उन्होंने महिलाओं के लिए पहले बालिका विद्यालय खोल कर इतिहास रच दिया था।
सावित्रीबाई फुले समाज सुधार आंदोलन को आगे बढ़ाते हुए भारत के पहले बालिका विद्यालय की पहली प्रिंसिपल और पहले किसान स्कूल की संस्थापक बनने का अवसर प्राप्त हुआ था । समाज सुधार एवं बालिका शिक्षा को जन-जन तक पहुंचाने की शिक्षा उन्हें गुरु महात्मा ज्योतिराव से प्राप्त हुई थी। सावित्रीबाई फुले का जीवन का उद्देश्य बन गया था कि विधवा विवाह करवाना, छुआछूत मिटाना, महिलाओं की मुक्ति और दलित महिलाओं को शिक्षित बनाना। सावित्रीबाई फुले एक प्रगतिशील कवियत्री भी थीं। उन्हें मराठी की आदिकवियत्री के रूप में भी जाना जाता है। उनकी मराठी में लिखी कविताएं भी समाज सुधार की दिशा में मील का पत्थर साबित हुईं। उनकी कविताएं आज भी बड़े चाव से पढ़ी जाती हैं। उनकी मराठी में लिखी कविताएं देश के विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हुईं।
यह सब करते हुए सावित्रीबाई फुले को कई सामाजिक परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था । वहीं दूसरी ओर गुरु का संरक्षण भी प्राप्त था। विरोध में जितनी आवाजें उठ रही थीं, समर्थन में भी कुछ दबी आवाजें भी जन्म ले रही थी। इस समाज सुधार के आंदोलन में सावित्रीबाई फुले एवं पति साथ साथ स्कूल जाते थे। इस दौरान उन दोनों पर विरोध स्वरूप कई लोग पत्थर फेंक कर मारा करते थे। कई बार उन दोनों पर पत्थर से गंभीर चोटें भी आई थी । यहां तक कि उन दोनों पर गंदगी भी फेंके जाते थे। वे दोनों चुपचाप समाज के इस तिरस्कार को सहते रहे और स्कूल में बालिकाओं को पढ़ाते भी रहे थे। उन पर गंदगी फेंक देते थे। आज से लगभग दो सौ साल पहले बालिकाओं के लिए स्कूल खोलना पाप का काम माना जाता था । विचारणीय है कि आज से दो वर्ष पूर्व बालिकाओं के लिए स्कूल खोला जाना एक बड़े अपराध जैसा था, आज उसी देश में ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ जैसा कानून बन चुका है।
सावित्रीबाई ने हर बिरादरी के लिए काम किया था। जब सावित्रीबाई कन्याओं को पढ़ाने के लिए जाती थीं, तो वह एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुँच कर गंदी कर दी गई साड़ी बदल लेती थीं। समाज के इस तिरस्कार से कभी घबराई नहीं बल्कि इसी तिरस्कार से ही प्रेरणा लेकर सदैव गतिशील बनी रही थी। वह जानती थी कि तिरस्कार करने वाले हमारे ही समाज के लोग हैं। अगर उसका जवाब तिरस्कार से दिया जाए तो दूरियां और बढ़ेंगी। इसलिए उन्होंने उस तिरस्कार को अपना सम्मान ही समझा था। उन्होंने 5 सितंबर 1848 में पुणे में अपने पति के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की सिर्फ नौ छात्राओं लेकर महिलाओं के लिए एक विद्यालय की स्थापना की। एक वर्ष के दरमियान ही सावित्रीबाई और महात्मा फुले पाँच नए विद्यालय खोलने में सफल हुए थे । तत्कालीन सरकार ने इस कार्य के लिए उन दोनों को सम्मानित भी किया। यह समझा जा सकता है कि एक महिला प्रिंसिपल के लिए सन् 1848 में बालिका विद्यालय चलाना कितना मुश्किल रहा होगा। इसकी कल्पना शायद आज भी नहीं की जा सकती। सावित्रीबाई फुले उस दौर में न सिर्फ खुद पढ़ीं, बल्कि दूसरी लड़कियों के पढ़ने का भी बंदोबस्त किया था । सावित्रीबाई फुले के इस अवदान को कभी भी विस्मृत नहीं किया जा सकता है । आज जो देश भर की लड़कियां हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं, उसके पीछे सावित्रीबाई फुले के बालिका शिक्षा आंदोलन का जबरदस्त हाथ रहा है। आज सावित्रीबाई फुले हमारे बीच नहीं है। इसके बावजूद उन्होंने जो राह दिखाई, उस पथ पर आज आधुनिक भारत की लड़कियां आगे बढ़ती दिखाई दे रही है। आज भारत की लड़कियां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी ख्याति अर्जित कर रही है।
सामाजिक सेवा करते हुए 10 मार्च 1897 को प्लेग के कारण सावित्रीबाई फुले का निधन हो गया था। सन 18 97 में देशभर में प्लेग महामारी फैल गई थी। इस महामारी से देश भर में लाखों लोग मरे थे। प्लेग महामारी में सावित्रीबाई प्लेग के मरीजों की सेवा बढ़ चढ़कर थीं। प्लेग के मरीजों की सेवा करते हुए उन्हें भी प्लेग हो गया था । मात्र 67 वर्ष की उम्र में जान तक गंवानी पड़ी थी। सावित्रीबाई फुले का संपूर्ण जीवन समाज सुधार और बालिका शिक्षा को जन-जन तक फैलाने में बीता था। आज की बदली परिस्थितियों में जब भारत एक आधुनिक भारत के रूप में तब्दील हो चुका है। भारत विश्व गुरु की ओर कदम बढ़ा चुका है। इसके पीछे सावित्रीबाई पुणे के सामाज सुधार आंदोलन और बालिका शिक्षा आंदोलन के अवदान को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता है। हम सब सावित्रीबाई फुले के बताएं मार्ग पर चलकर सामाजिक में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों को जड़ से खत्म करने में महती भूमिका प्रदान करें । ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ बन जाने के बाद भी देश की बालिकाएं और महिलाएं अभी भी बहुत पीछे हैं। नारी शक्ति समाज की मुख्य धारा से पूरी तरह जोड़ने के लिए सावित्रीबाई फुले ने जो राह दिखाई थी, उस राह पर और आगे चलने की जरूरत है।

Vijay Keshari
Vijay Kesharihttp://www.deshpatra.com
हज़ारीबाग़ के निवासी विजय केसरी की पहचान एक प्रतिष्ठित कथाकार / स्तंभकार के रूप में है। समाजसेवा के साथ साथ साहित्यिक योगदान और अपनी समीक्षात्मक पत्रकारिता के लिए भी जाने जाते हैं।
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