नई दिल्ली : आज सुप्रीम कोर्ट ने एक फ़ैसला दिया कि सरकारी नौकरी में प्रमोशन पर आरक्षण किसी का संवैधानिक अधिकार नहीं है। अगर सरकारें चाहें तो प्रमोशन दे भी सकती है और नहीं भी। कुल मिलाकर कोर्ट ने गेंद सरकार के पाले में डाल दी। उधर दिल्ली की एक तथाकथित पत्रकार ने ट्विट किया कि जब तक सामाजिक भेदभाव ख़त्म नहीं हो जाता, आरक्षण भी ख़त्म नहीं हो सकता।
ये एक सच्चाई है कि आरक्षण को लेकर समाज में अलग-अलग लोगों की अलग-अलग राय है और ये भी सच है कि इस आरक्षण ने अलग-अलग वर्गों के बीच नफ़रत की खाई को कम करने की बजाय शायद बढ़ाया ही ज़्यादा है। ये ठीक उसी तरह एक सच्चाई है, जैसे सदियों से देश में दलित-पीड़ितों के साथ ज़ुल्म और अत्याचार होते रहे हैं। मगर ये भी एक सच्चाई है कि अब शायद हालात वैसे नहीं हैं, जो पहले थे। भेदभाव कम ज़रूर हुआ है।
लेकिन फिर एक सवाल उठता है कि क्या किसी दूसरे के गुनाह की सज़ा किसी और दी जा सकती है? चलिए किसी ग़ैर की बात छोड़िए… किसी बाप के गुनाह की सज़ा उसके बेटे को दी जा सकती है? यकीनन नहीं। और जब जबाव ना में है, तो सवाल ये है कि आरक्षण की मार हर उस शख्स को क्यों झेलनी पड़ती है, जो ऊपरवाले की मर्ज़ी से किसी सवर्ण परिवार में जन्म लेता है। जिसने ख़ुद ज़ाती तौर पर कभी किसी का शोषण नहीं किया, किसी को दलित या पिछड़ा होने की वजह से नहीं सताया, स्कूल से लेकर नौकरी पाने तक और आगे भी सबसे मिलकर रहा, एक थाली में खाता रहा, लेकिन जब शिक्षा, नौकरी और प्रमोशन की बारी आई, तो उसे सिर्फ़ अपने जन्म का दंश झेलना पड़ा और दूसरा, जिसे शापित और सताया हुआ माना गया, वो सिर्फ़ अपने जन्म के फ़ायदे से तरक्की की सीढ़ियां चढ़ता गया।
एक पुराना लेकिन वाजिब सवाल है कि क्या ब्राह्मण ग़रीब नहीं हो सकता? बल्कि सच्चाई तो यही है कि ब्राह्मण के साथ ग़रीब का टैग कुछ वैसे जुड़ा है, जैसे किसी ठाकुर या राजपूत के साथ उसके वीर या साहसी होने का। फिर भी सितम देखिए कि एक ग़रीब ब्राह्मण लड़का सिर्फ़ इसलिए अपने हक़ से वंचित रह जाता है कि कभी किसी ब्राह्मण या सवर्ण ने किसी दलित या पिछड़े का शोषण किया था, उसका हक़ मारा था। मसला घूम-फिर कर वहीं पहुंचता है कि जब दोष किसी का, तो सज़ा किसी और को क्यों?
मेरे इस पोस्ट को कुछ लोग दलित या पिछड़ों के खिलाफ़ मेरी सोच का परिचायक मान सकते हैं, लेकिन ये सच नहीं है। मैं उनकी भी तरक्की का उतना ही हिमायती हूं, जितना सवर्णों या कथित अगड़ों का। मगर किसी का हक़ छीन कर नहीं। देश ने देखा कि कई बार आरक्षण ने कैसे-कैसों को ऐसे-ऐसे मुकाम तक पहुंचा दिया, जिसके शायद वो हक़दार नहीं थे। क्या इसका असर देश की तरक्की और आम इंसान की ज़िंदगी पर नहीं पड़ता? सवाल चुभनेवाले मगर मेरे हिसाब से न्यायसंगत हैं।
एक गंभीर मसले पर सुप्रीम कोर्ट का मुंह मोड़ लेना…
क्या किसी दूसरे के गुनाह की सज़ा किसी और को दी जा सकती है?
Sourceदेशपत्र डेस्क