Sunday, April 28, 2024
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पिछलग्गू की भूमिका में दो बड़े दल – बिहार विधानसभा चुनाव २०२०

इतना तय है कि बिहार की जनता नीतीश की कार्यशैली से ऊब चुकी है और तेजस्वी को गंभीरता से नहीं ले रही है । जनता बदलाव चाहती है। लेकिन आज़माए हुए चेहरे पर दाँव लगाने की मानसिकता में नहीं है । कांग्रस के पास बिहार में खोने के लिए कुछ नहीं है ।

आर के “राजू” (वरिष्ठ पत्रकार)

चुनाव आयोग के रुख से स्पष्ट है कि बिहार में हर हाल में निर्धारित समय पर चुनाव होगा। इसलिए तमाम राजनीतिक पार्टियां इसकी तैयारी में लग गई है। देश-दुनिया में सबसे बड़ा राजनीतिक दल होने का दंभ भरने वाली भाजपा बिहार में पिछलग्गु की भूमिका निभाने की तैयारी करने लगी है।वहीं दूसरी ओर कांग्रेस जिसने बिहार में वर्षों तक अखंड राज किया , उसे वर्तमान में एक प्रादेशिक दल के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ने के लिए मशक्कत करना पड़ रहा है। इसके पीछे – जनता को दोनों राष्ट्रीय दलों में नेतृत्वकर्ता का स्पष्ट अभाव दिख रहा है।

गौरतलब है कि विगत तकरीबन तीन दशक से बिहार की राजनीति नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के इर्द-गिर्द घूमती रही है। अन्य दल इनके साथ ही जुड़ते रहे हैं । पिछली बार विधानसभा चुनाव में भाजपानीत एनडीए ने पूरा दमखम लगाया था। पीएम मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने धुआंधार रोड शो और जनसभाएं की थी । साथ ही “हिंदूवाद” का कार्ड भी खेला था। लेकिन उसे तीसरे स्थान पर ही संतोष करना पड़ा । तब राजद, कांग्रेस और जदयू ने एकजुट होकर चुनाव लड़ा था।बाद में जदयू ने गठबंधन से बगावत कर भाजपा के साथ सरकार बना लिया था ,जिसके मुखिया नीतीश कुमार बने।

यह सच है कि बिहार में अब तक भाजपा के पास कोई चेहरा नहीं है और ना कांग्रेस के पास। भाजपा के पास तब शत्रुघ्न सिन्हा जैसे नेता थे । लेकिन वे आडवाणी के खेमे में थे ,इसलिए मोदी ब्रांड भाजपा के लिए अनुपयोगी थे। मोदी और शाह आडवाणी गुट के किसी नेता को आगे लाने को तैयार नहीं थे। जब पानी सर के ऊपर जाने लगा तो शत्रुघ्न सिन्हा ने भाजपा को अलविदा कह दिया और कांग्रेस में आ गए। लेकिन अब यह बिहार कांग्रेस में भी लोकप्रिय चेहरा नहीं बन पाए। लोकसभा चुनाव में तो उनकी हद ही लुट गई। लालू के दरबार करते-करते वे अपने राजनीतिक कद को भी छोटा कर लिया। बिहार कांग्रेस में तो उनका नाम लेने वाला भी कोई नहीं है।

इस बार होने जा रहे विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के नेता लालू के दूसरे पुत्र तेजस्वी यादव ही होंगे।महागठबंधन में शामिल अधिकांश दल के नेता तेजस्वी को दबे मन से नेता मानने को तैयार हो गए हैं। तेजस्वी ने भी महागठबंधन में शामिल सभी दलों की सभी मांगों को ठुकरा दिया है। जिसमें कोऑर्डिनेशन कमिटी बनाने की मांग शामिल है। हालांकि कांग्रेस और रालोसपा समेत गठबंधन में शामिल सभी दलों ने इस मांग को लेकर सोनिया गांधी तक भी गए । लेकिन वहां भी कोई सुनवाई नहीं हुई। अंत में सभी तेजस्वी को नेता मानने की बात को छोड़ ज्यादा सीट पर चुनाव लड़ने की मांग राजद से करने लगे हैं। कांग्रेस के बिहार प्रभारी तो तेजस्वी के घर तक पहुंच गए । अब यह साफ हो गया कि सीटों का बंटवारा राजद ही करेगा। अब कांग्रेस भी अधिक सीट लेने की जुगाड़ में तेजस्वी का दरबार करने लगी है । हालाँकि इस विधानसभा चुनाव में राजद ख़ुद 150 से ज़्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी में है। राजद , कांग्रेस को 50 से अधिक सीट देने के मूड में नहीं है । ऐसी स्थिति में भी बिहार कांग्रेस के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं है जिसके नेतृत्व में बिहार की जनता के सामने जाए।

इस चुनाव में जातीय समीकरण भी काम नहीं आने वाला है। मंडल आंदोलन के पहले बिहार में कांग्रेस काफी मजबूत स्थिति में थी। नब्बे (९०) के दशक में उसके वोट बैंक में बिखराव आया। इस बीच कांग्रेस के कई कद्दावर नेता भी गुजर गए।मंडल-कमंडल की जंग में कांग्रेस हाशिए पर चली गई थी। अभी बिहार में कांग्रेस की पुनर्वापसी के लिए उपयुक्त माहौल है। जनता नीतीश सरकार से ऊब चुकी है और राजद को आजमा चुकी है ।तेजस्वी तेज़ तर्रार नेता हैं लेकिन उनके अंदर लालू प्रसाद जैसा करिश्माई व्यक्तित्व नहीं है। लोग बदलाव चाह रहे हैं।

इस बीच तीसरे मोर्चे की संभावनाओं से भी इंकार नही किया जा सकता है।अभी पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा एक नए मोर्चा की घोषणा कर चुके हैं। यशवंत सिन्हा लोकनायक जयप्रकाश नारायण के करीबी लोगों में शामिल रहें हैं। उनका छवि साफ़ सुथरा रहा है। लेकिन वे भी बीते कई दिनों से बिहार में पुराने , घिसे-पिटे, थके-हारे, महत्वाकांक्षी नेताओं को साथ लेकर तीसरे मोर्चे की कवायद की थी , लेकिन उन्हें कुछ ख़ास सफलता नहीं मिली। जिसके कारण बीच में ही इस प्रयास को स्थगित कर दिया और तीसरे मोर्चे की कवायद को ठंडे बस्ते में डाल दिया ।कांग्रेस कि चुनावी रणनीति क्या होगी अभी पता नहीं है। लेकिन इतना तय है कि बिहार की जनता नीतीश की कार्यशैली से ऊब चुकी है और तेजस्वी को गंभीरता से नहीं ले रही है । जनता बदलाव चाहती है। लेकिन आज़माए हुए चेहरे पर दाँव लगाने की मानसिकता में नहीं है। कांग्रस के पास बिहार में खोने के लिए कुछ नहीं है।

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