दिल्ली नभाटा के दिनों में अपने को इस बात पे बहुत गर्व होता था कि अपन श्रमिक हैं और हमारी यूनियन का नाम था भारतीय श्रमजीवी पत्रकार संघ इसका ऑफिस कनॉट प्लेस में सुपर मार्केट के पास हुआ करता था। यूनियन के हेड थे कोई राघवन, अपने समय के नामी पत्रकार उस समय सरकार खबरों को ले कर कोई कानून बनाने के फेर में थी कि उसके खिलाफ सारे पत्रकार दिल्ली की सड़कों पर उतर आए। आखिरकार सरकार पीछे हटी और कांग्रेस के बड़े नेता अर्जुन सिंह ने पत्रकारों को शांत करने के लिए तीन दिवसीय सेमिनार कराया था।
लखनऊ आने के बाद श्रमजीवी पत्रकार यूनियन के. विक्रमराव ने हथिया ली। तभी पता चला कि पत्रकारों की एक यूनियन और है जो श्रमजीवी न हो कर राष्ट्रीय है और जो दिल्ली के झंडेवालान से संचालित होती है।
दोनों यूनियनों में श्रमजीवी और राष्ट्रीय होने के अलावा कुछ फर्क और थे, मसलन- श्रमजीवी पत्रकार रम में सोडा मिला कर पीते, तो राष्ट्रीय यूनियन वाले व्हिस्की में गंगाजल टपका कर श्रमजीवी बिरियानी खाते तो राष्ट्रीय बिना प्याज लहसुन का मुर्गा विक्रमराव अपनी यूनियन के अधिवेशन अक्सर समुद्र तटों वाले मलयाली शहरों में करते ताकि बिकनी पहने महिला पत्रकार के साथ समुद्र स्नान किया जा सके तो पत्रकारों की राष्ट्रीय यूनियन भगवे के नीचे संतरे छीलती। विक्रमराव को अध्यक्ष बनाये रखने में दक्खिन भारत के चिलगोजों का बड़ा हाथ था, तो राष्ट्रीय पत्रकार यूनियन सरवाहक टाइप नेताओं के झुंड के हाथों में थी । एक बात और कि मीडिया संस्थान के मालिकों का तो श्रमिक के नाम से ही हाजमा बिगड़ता था, तो उन सभी को पत्रकारों की राष्ट्रीय यूनियन से उंसियत हुआ करती थी।
के. विक्रमराव ने उत्तरप्रदेश के कुछ सौ पत्रकारों के अलावा हज़ारों उन इंसानों को भी अपनी यूनियन का सदस्य बनवाया हुआ था, जो सब कुछ थे लेकिन पत्रकार नहीं थे। इस बात का अहसास तब हुआ जब अपन ने पूर्वी जर्मनी भेजे जाने का ऑफर ठुकरा कर विक्रम राव की सत्ता को चुनौती देते हुए काउंसलर का चुनाव लड़ा और मात्र पचास वोट पाए।
तो प्रदेश की राजधानी लखनऊ में राष्ट्रीय पत्रकारिता का झंडा अच्युतानंद मिश्र बुलंद किये हुए थे, जो उस समय अमर उजाला को ब्यूरो चीफ हुआ करते थे और ब्राह्मण थे तो अमर उजाला के मालिकों के अलावा मुलायम सिंह यादव भी उनके पैर छूते थे। मिश्र जी का पत्रकारों की भलाई के लिए सबसे बड़ा काम था गोमतीनगर में पत्रकारों के लिए कॉलोनी बनवाना और पत्रकारों को बजाज चेतक दिलवाना। उनका उससे भी बड़ा काम था लालकृष्ण आडवाणी के सूचना मंत्री बनने के बाद बड़े पैमाने पर उगी संघी पत्रकारों की पौध की साज संवार करना।
बाकी तो विक्रमराव हर साल छंटे हुए पांच दस पत्रकारों को सोवियत संघ के टूटने से पहले तक पूर्वी यूरोप के देशों में साल छह महीने के लिए भिजवा देते तो अच्युतानंद बाबू के पत्रकारों के लिए चित्रकूट में नाना जी देशमुख का आश्रम था, जहां कुछ समय बिता कर पत्रकार अमेरिका निकल लेते और वहां से लौट कर एनजीओ खोल कर जनता की सेवा में लग जाते। राष्ट्रीय पत्रकार संघ का चंडीगढ़ में काफी दबदबा देखा। जहां ट्रिब्यून के राधेश्याम शर्मा, नंदकिशोर त्रिखा और किन्हीं खोसला जी ने कोई देशसेवा केंद चलाया हुआ था, जो अक्सर देवीलाल के सामने हाथ पसारे रहता था।
एनयूजे यानी राष्ट्रीय पत्रकार यूनियन का प्रभाव जनसत्ता खुलने के बाद काफी बढ़ गया था क्योंकि खुद प्रभाष जोशी और एक्सप्रेस के अरुण शौरी उसी लाइन के थे, तो मालिक रामनाथ गोयनका धुर इंदिरा-राजीव विरोधी। उसी दौरान राजेन्द्र नाथुर के निधन के बाद नवभारत टाइम्स दिल्ली में हिंदी-संस्कृत के प्रकांड और स्वपाकी ब्राह्मण विद्यानिवास मिश्र को मुख्य संपादक बना कर लाया गया। चूंकि उन्हें पत्रकारिता में वही काम करना था जो ब्रह्म ऋषि वशिष्ठ ने राजा दशरथ के यहां किया था, तो वे सहयोगी के रूप में अच्युता बाबू को ले आये। विद्यानिवास जी उन पत्रकारों को कोई भाव नहीं देते थे जो मेज के नीचे झुक कर उनके पांव न छुए।
खैर, विद्यानिवास जी के रहते जैनियों ने तीन जगह लखनऊ, पटना और जयपुर में नवभारत टाइम्स बंद कर सैंकड़ों पत्रकारों को बेरोजगार कर दिया..और अपना काम कर दोनों मिश्रा भी निकल लिए
बोलो राम नाम सत्त है..मुर्दा साला मस्त है।
भारतीय पत्रकारिता को फफूंदी बनाने वाली पत्रकार यूनियनें..
Sourceराजीव मित्तल