Thursday, May 2, 2024
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खोरठा भाषा के भीष्म पितामह श्रीनिवास पानुरी की अमर कहानी

(25 दिसंबर, 'खोरठा दिवस' सह खोरठा भाषा के महान रचनाकार श्रीनिवास पानुरी की 102वीं जयंती पर विशेष)

विजय केसरी:

खोरठा भाषा के अग्रदूत, भीष्म पितामह के अलंकार से विभूषित श्रीनिवास पानुरी की संघर्षमय लेखकीय कहानी सदा लोगों को रचनाशीलता के लिए प्रेरित करती रहेगी। उनका संपूर्ण जीवन खोरठा भाषा के संवर्धन और सृजन में बीता था। उनका जन्म भारत की आजादी से 27 वर्ष पूर्व 1920 में हुआ था। इस कालखंड में कई साहित्यकार व रचनाकार अपने -अपने रचना कर्म से देश को सुशोभित और प्रतिष्ठित कर रहे थे। खोरठा भाषा को निम्न भाषा के रूप में देखा जाता था। लेकिन श्रीनिवास पानुरी अपनी लेखनी के बल पर खोरठा को निम्न भाषा समझने वाले लोगों के समक्ष एक लंबी लकीर खींच दी थी । उन्होंने खोरठा भाषा में कविता, कहानी, निबंध, नाटक सहित कई महत्वपूर्ण साहित्यिक विधाओं पर कार्य किया था। आज इनकी कृतियां एक अमर कृति के रूप में विद्यमान है ।
खोरठा, झारखंड प्रांत की एक प्रमुख आंचलिक भाषा है। खोरठा भाषा में झारखंड की पहचान, रीति रिवाज और संस्कृतिकी सोंधी महक निहित है। इस सोंधी महक को एक नए रूप में श्रीनिवास पानुरी ने अपनी खोरठा रचनाओं में प्रस्तुत किया था ।‌ उन्होंने जो कुछ भी रचा सबअमर कृति बन गई । श्रीनिवास पानुरी का जन्म झारखंड के धनबाद जिला के बरवाअड्डा, कल्याणपुर के एक निर्धन परिवार में हुआ था । गरीबी के कारण उनकी पढ़ाई मैट्रिक तक ही हो पाई थी। श्रीनिवास पानुरी आगे की पढ़ाई करना चाहते थे। लेकिन गरीबी के कारण ऐसा संभव नहीं हो पाया था। ऊपर से घर की जवाबदेही भी उनके कंधों पर ही थी। उन्होंने जीविकोपार्जन के लिए पान की एक दुकान से व्यवसाय का शुभारंभ किया था। उन्हें घर चलाने जितनी आमदनी हो जाती थी । एक कलम के सिपाही को और क्या चाहिए था । उनका संपूर्ण जीवन खोरठा के अध्ययन, संवर्धन और सृजन में बीता था । खोरठा भाषा के प्रति उनका बचपन से ही लगाव था। यह लगाव जीवन पर्यंत बना रहा था । वे इस धरा पर 66 वर्षों तक रहे थे। अर्थात 7 अक्टूबर 1986 में उनका निधन हो गया था। उन्होंने छात्र जीवन से ही खोरठा में लिखना प्रारंभ किया था । वे लगभग 46 वर्षों तक लगातार लिखते रहे थे । उनकी रचनाएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी उनके कालखंड में थीं । उन्होंने बहुत ही श्रद्धा पूर्वक खोरठा में अपनी रचनाओं को प्रस्तुत किया । वे निरंतर लिखते रहे थे । उनकी कलम कभी रुकी नहीं थी। उनका रचना संसार बहुत ही विस्तृत है। घर परिवार की जवाबदेही के साथ लेखन कला के प्रति उनका लगाव देखते बनता था । उन्होंने पान की दुकान में ही बैठकर कई महत्वपूर्ण रचनाओं को अंतिम रूप प्रदान किया था। खोरठा भाषा के प्रति लगाव के कारण ही उनकी प्रसिद्धि धीरे धीरे कर बढ़ती चली गई थी ।
श्रीनिवास पानुरी की पहली रचना 1954 में “बाल किरण’ नामक कविता संग्रह में प्रकाशित हुई थी। उनकी कविताओं की खासियत यह थी कि वे जिस माटी से हुए जुड़े हुए थे, उसकी सोंधी खुशबू उनकी कविताओं में मिलती है । वे एक यथार्थवादी रचनाकार थे। झारखंड की रीति रिवाज, संस्कृति, भाषा, संघर्ष की झलक उनकी रचनाओं में मिलती है। उनकी रचनाओं में किस तरह झारखंड के मजदूर अपना पसीना बहा कर जीवन का निर्वाह करते हैं, यहां के किसान पत्थर तोड़ कर धान और सब्जी उगाते हैं, की झलक मिलती है। ऐसी तमाम बातों की झलक उनकी रचनाओं में मिलती है। श्रीनिवास पानुरी बहुत ही सहजता,सरलता के साथ अपनी बातों को रखते थे । श्रीनिवास पानुरी का जैसा सहज व्यवहार था, उसी रूप में उनकी रचनाएं भी बड़े ही सहजता के साथ बड़ी से बड़ी बातें कह का गुजरती हैं। खोरठा भाषा से लगाव के कारण उन्होंने 1957 में ‘माततृभाषा’ नामक पत्रिका का प्रकाशन किया था। इस पत्रिका का टैग लाइन होता था,.. ‘आपन भाषा सहज सुंदर, बुझे गीदर बुझे बांदर’। इस छोटे से वाक्य के माध्यम से श्रीनिवास पानुरी ने बहुत बड़ी बात कहने की कोशिश की है । उन्होंने कालिदास रचित ‘मेघदूत’ का खोरठा में अनुवाद किया था। ‘मेघदूत’ कालिदास की महानतम रचनाओं में एक है । ‘मेघदूत’ के अनुवाद के बाद श्रीनिवास पानुरी देश के वरिष्ठतम साहित्यकारों की नजरों में आ गए थे। “मेघदूत’ प्रकाशन के बाद झारखंड के प्रेमचंद के नाम से विख्यात साहित्यकार, कहानीकार राधाकृष्ण ने भी ‘आदिवासी’ नामक अपनी पत्रिका में श्रीनिवास पानुरी की लेखकीय प्रतिभा पर एक आलेख प्रकाशित किया था। धीरे धीरे कर श्रीनिवास पानुरी अपनी रचनाओं के बल पर राष्ट्रीय क्षितिज पर छाते चलें गए थे ।
उस कालखंड के महानतम हिंदी के साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन, वीर भारत तलवार, श्याम नारायण पांडेय, शिवपूजन सहाय, भवानी प्रसाद मिश्र, जानकी बल्लभ शास्त्री आदि ने भी श्रीनिवास पानुरी की रचनाओं पर मुहर लगाई थी। यह किसी भी आंचलिक रचनाकार के लिए बड़ी बात थी। खोरठा भाषा को राष्ट्रीय क्षितिज पर सर्वप्रथम श्रीनिवास पानुरी ने ही लाया था। खोरठा झारखंड की एक आंचलिक भाषा है। श्रीनिवास पानुरी के पूर्व खोरठा भाषा में रचित रचनाकारों की कोई बेहतर संकलन नहीं आ पाया था । दूसरे शब्द में यह भी कहा जा सकता है कि श्रीनिवास पानुरी के पूर्व किसी खोरठा रचनाकार को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान नहीं मिली थी। श्रीनिवास पानुरी की रचनाओं के प्रकाशन के बाद ही खोरठा भाषा की रचनाओं के प्रति शोधकर्ताओं एवं हिंदी के साहित्यकारों का ध्यान इस ओर आकृष्ट हुआ था। खोरठा भाषा को राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित करने में श्रीनिवास पानुरी के योगदान को कभी भी विस्मृत नहीं किया जा सकता है। ‘मेघदूत’ के अनुवाद पर देश के प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने मंतव्य दिया था कि ‘मेघदूत पढ़कर जरा सा भी ऐसा नहीं लगा कि यह किसी अन्य भाषा की कहानी है । यह श्रीनिवास पानुरी जी के गांव की कहानी लगती है’। यह सम्मान भरे बिरले रचनाकारों को मिल पाता हैं । श्रीनिवास पानुरी जी पढ़े-लिखे कम जरूर थे,लेकिन उन्हें खोरठा सहित विभिन्न भाषाओं का भी ज्ञान था। किस भाषा साहित्य में क्या रचा रहा है, इसकी भी जानकारी रखते थे। खोरठा सहित हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू भाषा की भी उन्हें जानकारी थी ।
उन्होंने कार्ल मार्क्स द्वारा रचित कम्युनिस्टों मेनिफेस्टो’ का खोरठा में काव्यानुवाद अनुवाद ‘युगेक गीता’ नामक शीर्षक से किया था। श्रीनिवास पानुरी की ‘युगेक गीता’ अनुपम काव्य कृति है । इस कृति का मूल्यांकन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुआ था । उनका यह अनुवाद कालजई बन चुका है। उन्होंने इस कविता के माध्यम से शोषण के विरुद्ध एक बड़ी बात कहने की कोशिश की थी । कार्ल मार्क्स की विचारधारा विचारधारा सच्चे अर्थों में आज के युग की गीता है। उन्होंने कार्ल मार्क्स के मेनिफेस्टो काव्यानुवाद कर विश्व धरातल पर स्थापित करने का एक सफल प्रयास किया था । उनकी रचनाओं के अध्ययन से प्रतीत होता है कि वे समाज के अंतिम व्यक्ति तक विकास को पहुंचाना चाहते थे। उनकी रचनाओं में गरीबी,भुखमरी से जूझते इंसानों की कहानी है। लाचार, बेबस लोगों को इंसाफ दिलाने के लिए उनकी रचनाएं लगातार दौड़ती नजर आती है। वहीं दूसरी ओर श्रृंगार रस की बातें भी दर्ज की। श्रीनिवास पानुरी की प्रकाशित रचनाओं में ‘उद्भासल करन,,( नाटक ) ‘आखिंक गीत’, (कविता संग्रह) ‘रामकथामृत’ (काव्य खंड) ‘मधुक देशे’ ( प्रणय गीत) ‘मालाक फूल'( कविता संग्रह) ‘दिव्य ज्योति’, ‘चाबी काठी’ (नाटक) ‘झींगा फूल’ ‘किसान’ ( कविता ) ‘कुसुम'( कहानी) प्रमुख है। श्रीनिवास पानुरी जी की रचनाओं में विविधता के रंग स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ते हैं। वे एक और व्यंग्य के माध्यम से अपनी बातों को रखते हैं, वहीं दूसरी ओर बड़े ही गंभीरता के साथ किसानों की समस्याओं और परेशानियों से भी परिचित करवाते हैं । एक ओर गरीबी और बेहाली के बीच रहकर भी कृषक गांव में किस तरह प्रणय के बंधन में बंधते हैं। वे सब अपनी झुग्गी झोपड़ियों में किस तरह आनंद के पल बिताते हैं । ‘झींगा फूल’ अपने खिलने के साथ अपनी पीड़ा को किस तरह छुपाए रहती है। ऐसी तमाम बातों की झलक श्रीनिवास पानुरी की रचनाओं मैं मिलती है।

हम सबों को खोरठा भाषा के उन्नयन और विकास पर मिलजुल कर विचार करना चाहिए। खोरठा भाषा को जो सम्मान मिलना चाहिए, अब तक प्राप्त नहीं हो पाया है । श्रीनिवास पानुरी की रचनाओं को अपने जन्म काल से लेकर आज तक जो जनसमर्थन मिलना चाहिए था, नहीं मिल पाया है ।‌ यह बेहद चिंता की बात है। आज भी खोरठा भाषा अपनी उचित पहचान और सम्मान के लिए लगातार संघर्ष करती चली आ रही है। श्रीनिवास पानुरी की रचनाएं कालजई बन चुकी हैं। प्रांत की सरकार का नैतिक दायित्व बनता है कि सरकारी खर्च पर श्रीनिवास पानुरी की समग्र रचनाओं को संकलित कर एक रचनावाली के रूप में प्रकाशित करें। हम सबों का भी नैतिक दायित्व बनता है कि उनकी रचनाओं को जन जन तक पहुंचाने में महती भूमिका अदा करें।
जैसा कि पूर्व की पंक्तियों में वर्णन किया गया है कि श्रीनिवास पानुरी जी गरीबी के बीच रहकर इन तमाम रचनाओं को जन्म दिया था। जिनमें कई रचनाओं ने पुस्तक स्वरूप प्रदान कर लिया । लेकिन उनकी कई महत्वपूर्ण रचनाएं अप्रकाशित हैं। जिनमें ‘छोटू जी'( व्यंग्य) ‘अजनास’ (नाटक) ‘अग्नि परीक्षा'( उपन्यास ) ‘मोतीचूर’ ‘हमर गांव’ ‘समाधान’ ‘मोहभंग’ ‘भ्रमरगीत’ ‘परिजात’ (काव्य संग्रह) ‘अपराजिता’ (काव्य संग्रह) आदि । झारखंड के कई विश्वविद्यालयों में खोरठा की पढ़ाई जरूर हो रही है। खोरठा भाषा में बहुत काम भी हो रहे हैं । झारखंड की प्रतियोगिता परीक्षाओं खोरठा भाषा को भी शामिल किया गया है। खोरठा भाषा में प्रतियोगिता परीक्षा देकर कई युवक विभिन्न सरकारी पदों पर कार्यरत है। इन तमाम उपलब्धियों के बाद भी खोरठा भाषा झारखंड की जन भाषा के रूप में प्रतिष्ठित नहीं हो पाई है। यही कारण है कि श्रीनिवास पानुरी की रचनाएं आज भी प्रकाशन की आश में खड़ी नजर आ रही है। मैं खोरठा दिवस पर झारखंड सरकार से मांग करता हूं कि खोरठा के जनक श्रीनिवास पानुरी की प्रकाशित अप्रकाशित रचनाओं को संकलित कर एक रचनावाली प्रकाशित करें। यह उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। श्रीनिवास पानुरी रचनावली खोरठा भाषा के उत्थान में मील का पत्थर साबित होगी।

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