Tuesday, May 7, 2024
HomeDESHPATRAतालिबान और अफगानिस्तान का मुस्तकविल

तालिबान और अफगानिस्तान का मुस्तकविल

अधिकांश तालिबान लड़ाके या तो अनपढ़ है या मदरसा में पढ़े हुए है। उन्हें जन्नत के नाम पर जेहाद के लिए तैयार किया गया है एवं किसी भी कीमत पर ये जन्नत का टिकट गँवाना नहीं चाहते ।

नीरज नीर के फ़ेसबुक वॉल से :

नीरज नीर

विगत कुछ दिनों से तालिबान विश्व भर की समाचारों की सुर्खियों में बना हुआ है। ये तालिबान कौन हैं और ये कहाँ से आए? आइए इसे जानते समझते हैं। तालिब मूल रूप से अरबी शब्द है, जो बना है तलब से। तलब यानि किसी चीज की इच्छा होना, to seek । तालिब यानि seeker , जानने की इच्छा रखने वाला सीधे -सीधे कहें तो छात्र। लेकिन तालिबान एक अरबी शब्द नहीं बल्कि पश्तो का शब्द है, जो तालिब के बहुवचन के रूप में प्रयोग किया जाता है। तालिब के बहुवचन के लिए उर्दू में तलबा/तुलबा एवं अरबी में अतुलाइबु का प्रयोग करते हैं।

लड़किया स्वतंत्र रूप से घूमती थी, मनचाहे ड्रेस पहनती थी:

1973 के पहले अफगानिस्तान स्वतंत्र विचारों वाला एक प्रगतिशील राजतन्त्र (मोनार्की) था , जिसके राजा थे ज़हीर शाह। अफगानिस्तान में काबुल, कंधार, हेरात जैसे बड़े आधुनिक नगर थे , जहां पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता था। देश में शांति एवं खुशहाली थी। लड़किया स्वतंत्र रूप से घूमती थी, मनचाहे ड्रेस पहनती थी। एक बार ज़हीर शाह अपनी पत्नी के साथ पाकिस्तान गए। वहाँ उनकी पत्नी किसी यूरोपियन की तरह स्कर्ट पहनी हुई थी। जिसपर पाकिस्तान के कट्टरपंथियों को बड़ी आपत्ति हुई कि अफगानिस्तान के बादशाह की पत्नी स्कर्ट पहनती है । राजशाही के दौर में ही अफगानिस्तान में कम्युनिस्टों का एक बड़ा वर्ग तैयार हो रहा था, जो राजशाही का अंत चाहता था। अफगानिस्तान और पाकिस्तान की कट्टरपंथी ताकतें भी राजशाही के प्रगतिशील विचारों से परेशान थी और वे उनक अंत चाहती थी।

सर्वप्रथम अफगानिस्तान के राजा ज़हीर शाह के भाई ने तख्तापलट किया :

1973 में कम्युनिस्ट झुकाव वाले सरदार दाऊद खान (जो ज़हीर शाह के चचेरे भाई एवं उनकी सरकार के प्रधान मंत्री भी थे) ने अफगानिस्तान में तख्ता पलट कर दिया। दाऊद खान का झुकाव कम्यूनिज़म की ओर था एवं वे सोवियत के करीबी थी। राजा काबुल छोड़ कर भाग गया एवं वहाँ कम्युनिस्ट सरकार की स्थापना हो गई । उस दौर में अफगानिस्तान में कम्युनिस्टों के दो धड़े थे “खल्क” और “परचम” और दोनों में शत्रुता थी। अफगानिस्तान की इस नई सरकार को सोवियत संघ का समर्थन हासिल था। दाऊद खान ने महिला अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए कई कदम उठाए। कम्युनिस्टों के शासन में आने से इस्लामिक कट्टर पंथी ताकतों में बड़ी खलबली मच गयी कि कहाँ तो वे राजा का अंत उसके प्रगतिशील विचारों के चलते चाहते थे और कहाँ ये कम्युनिस्ट आकर बैठ गए। इन्हीं हालातों में दाऊद खान की हत्या कर दी गई। इसके बाद हत्याओं का सिलसिला चल निकला, जिसके परिणाम स्वरूप अफगानिस्तान में अवयवस्था फैल गई। अमेरिकी राजदूत की हत्या कर दी गई। इसी अव्यवस्था के माहौल में कम्युनिस्टों के समर्थन में सोवियत सेना अफगानिस्तान आ गई और उन्होंने सोवियत समर्थित बबरक करमल को वहाँ का राष्ट्रपति बना दिया।

यही वह दौर भी था जब इस्लामी दुनिया में निजामे शरीयत का जज्बा परवान चढ़ रहा था:

इन तब्दीलियों के बीच कम्युनिज्म के खिलाफ इस्लामिक कुव्वतों के भीतर एक गहरा रद्दे अमल, एक प्रतिरोध शुरु हुआ। ये लोग या तो जमात-ए -इस्लामी के प्रभाव में थे या इखवान-अल- मुसलमिन के। यही वह दौर भी था जब इस्लामी दुनिया में निजामे शरीयत का जज्बा परवान चढ़ रहा था। कम्युनिस्ट शासन के विरुद्ध छोटे छोटे वार लॉर्ड्स जिनमें गुल बुद्दीन हिकमत यार, अहमद शाह मसूद आदि प्रमुख थे, अपने अपने इलाके में उभर आए थे एवं वे इलाकों पर नियंत्रण कर रहे थे। उनके साथ मुजाहिदीनों की अपनी फौज थी। जेहाद के नाम पर समूचे इस्लामी दुनिया से लड़ाके शहादत के लिए आने लगे थे । अनेक जेहादी संगठनों की मदद उन्हें मिल रही थी।

सोवियत संघ से बदला लेने के लिए अमेरिका मुजाहिदीनों को मदद करने लगा:

इन्हीं तब्दीलियों के बीच अमेरिका भी मैदान में उतर आया। सोवियत संघ से बदला लेने एवं उसे सबक सिखाने का यह एक अच्छा मौका था। अमेरिका मुजाहिदीनों को मदद करने लगा। उन्हें सोवियत फौज से लड़ने के लिए आधुनिक हथियार दिए गए। अफगानिस्तान के ज्यादातर इलाके पहाड़ी हैं, ऐसे में पहाड़ियों के ऊपर अपना डेरा जमाए जेहादियों से लड़ने के लिए सोवियत सेना टैंक का इस्तेमाल नहीं कर पाती थी , इसलिए वे हेलिकाप्टर गन से उनपर हमला करती थी। इन हेलिकाप्टर गनों से मुकाबला करने के लिए अमेरिका ने जेहादियों को अपने सबसे आधुनिक स्ट्रिंगर मिसाइल दे दिए। इन मिसाइलों की मदद से जेहादी सोवियत हेलिकाप्टर को आसानी से मार गिराने लगे। धीरे- धीरे सोवियत सेना के पाँव वहाँ से उखड़ने शुरू हो गए। दरअसल सोवियत सेनाओं को अफगानिस्तान से खदेड़ने में अफ़गान लड़ाकों से ज्यादा योगदान अमेरिकी हथियारों, धन, एवं खुफिया तंत्र का था। जेनेवा समझौते के तहत 1988 में सोवियत सेनाओं की वापसी हो गई। सोवियत सेनाओं की वापसी के बाद मुजाहिद काबुल में घुस आए, जहां उस समय तक कम्युनिस्ट शासक नजीबुल्ला की सरकार थी। गुलबुद्दीन हिकमतयार के मुजाहिदीनों ने काबुल में 50000 लोगों की हत्या कर दी। वहाँ से बड़ी संख्या में लोगों का पलायन शुरू हो गया। 1992 में नजीबुल्लाह की सरकार गिर गई और उसने संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्यालय में जाकर शरण ली।

1994 में मुल्ला उमर के नेतृत्व में कंधार में तालिबान की स्थापना हुई:

इन्हीं परिस्थितियों के बीच तालिबान/तालेबान का जन्म होता है। अफगानिस्तान में गृह युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। जब लड़ने के लिए सामने सोवियत सेना नहीं थी तो वार लॉर्ड्स आपस में ही लड़ने लगे थे। इन्हीं हालातों में 1994 में कंधार में तालिबान की स्थापना मुल्ला उमर के नेतृत्व में हुई, जिसमे विभिन्न मदरसों में पढ़ने वाले तलबा/तुलबा को शामिल किया गया। विडम्बना यह थी कि मुल्ला उमर स्वयं किसी मदरसे का तालिब नहीं था। विभिन्न वार लॉर्ड्स की लड़ाइयों से ऊबे लोगों ने तालिबान का समर्थन किया। तालिबान ने शांति स्थापित करने का वादा किया था । तालिबान का घोषित लक्ष्य निजामे शरीयत की स्थापना थी ,इसलिए इस्लामी दुनिया के विभिन्न हिस्सों के जेहादियों एवं जेहाद पसंद ताकतों का समर्थन उसे मिला । दो साल के अंदर वे काबुल में दाखिल हो गए, जहां उन्होंने नजीबुल्लाह को पकड़ा एवं एक लैम्प पोस्ट से लटका दिया।

न कोई सिस्टम और न ही कोर्ट कचहरी, तालिबान के लड़ाके अपनी मर्जी से सजायें मुकर्रर कर रहे थे:

शीघ्र ही अफगानिस्तान के लोगों ने तालिबान का जो वीभत्स रूप देखा वह परेशान करने वाला था। औरतों के बाहर निकलने पर पाबंदी लगा दी गई। वे बिना किसी मर्द का साथ लिए बाहर नहीं निकल सकती थी। मर्दों को दाढ़ी रखना अनिवार्य कर दिया गया। दाढ़ी काटने वाले नाई का सर तन से जुदा किया जाने लगा। छोटी छोटी बातों पर सार्वजनिक कठोरतम सजायें दी जाने लगी। वहाँ न कोई सिस्टम काम कर रहा था, न कोई कोर्ट कचहरी । तालिबान के लड़ाके अपनी मर्जी से सजायें मुकर्रर कर रहे थे और उसकी तामिल भी कर रहे थे। महिलाओं को भी सार्वजनिक रूप से मैदानों में तालिबान लड़कों के द्वारा कोड़े मारे जाने की घटनाएं आम हो गई थी।

तालिबान को मदद करनेवाला अमेरिका ही उसका सबसे बड़ा शत्रु बन गया :

किताबों में तो ये बातें बहुत अच्छी लगती है या जब तक दूसरों के साथ हो रही है, अच्छी लगती है पर जब स्वयं ऐसे हालत में रहना पड़े बहुत परेशानी होती है। नतीजन बड़ी संख्या में अफगानी शरणार्थी बनकर पाकिस्तान एवं ईरान के शिविरों में रहने के लिए मजबूर हुए। बहुत सारे लोग भारत आए और यूरोप एवं अमेरिका भी गए। तालिबान को अफगानिस्तान की सरकार के रूप में अमेरिका के कहने पर पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब ने न केवल मान्यता दी बल्कि उसकि मदद भी करते रहे। लेकिन इन सबके बीच अमेरिका से इनकी शत्रुता कैसे हो गई, यह भी देखने की बात है। हुआ यह कि जो जेहादी ताकतें अफगानिस्तान के बाहर से आई खासकर अरब मुल्कों से, जिसमें ओसामा का अल कायदा सर्वप्रमुख है, उनका घोषित शत्रु अमेरिका था। वे अमेरिका के विरुद्ध जिहाद पहले से ही लड़ रहे थे। इसी बीच अमेरिका में 26/11 की घटना होती है और उसके बाद नवंबर 2001 में केन्या और तंजानियाँ में यू एस एम्बसी पर हमला किया जाता है। जिसके बाद अमेरिका क्रूज मिसाइलों से अफगानिस्तान पर हमला करता है। इसके साथ ब्रिटेन भी इन हमलों में शामिल हो जाता है। इस बीच स्थानीय वार लॉर्ड्स तालिबान के विरुद्ध लड़ ही रहे थे। तालिबान के विरुद्ध इस लड़ाई में अमेरिका उत्तरी अलाइअन्स को मदद करता है एवं अंततः उत्तरी अलाइअन्स दिसंबर 2001 में तालिबान को काबुल से उखाड़ फेंकता है एवं धीरे-धीरे अफगानिस्तान के अन्य इलाकों से भी तालिबान के पाँव उखड़ जाते है।

अमेरिका ने सैन्यबल से तालिबान को उखाड़ फेंका :

तालिबान की सत्ता समाप्त होने के बाद हामिद करजई के नेतृत्व में एक अंतरिम सरकार का गठन किया जाता है। अमेरिकी सेना वहाँ स्थायी रूप से डेरा डाल देती है। अफगानिस्तान में इसके बाद कमोबेश शांति रहती है। अफगानिस्तान का पुनर्निर्माण शुरू होता है, जिसमें आगे चलकर भारत की भी बड़ी भागीदारी होती है। लेकिन इस पूरे दौर में भी तालिबान का अस्तित्व बना ही रहता है एवं अब वे पूरी तरह से अमेरिका के विरुद्ध हो जाते हैं एवं छुप-छुपाकर पाकिस्तान की मदद से अपनी लड़ाई जारी रखते हैं। 2013 में अफ़गान फोर्सेस नाटो से अफगानिस्तान का कमांड हासिल कर लेती है एवं हामिद करजई अमेरिकी फोर्सेस को अफगानिस्तान से चले जाने को कहते हैं। 2014 में ही ओबामा प्रशासन एक टाइम टेबल निर्धारित कर देता है, जिसके अनुसार अमेरिकी सेना की वापसी सुनिश्चित होनी है। वैसे भी अल कायदा के अफगानिस्तान से खात्मे के बाद अमेरिका का अफगानिस्तान में बने रहना फायदे का सौदा नहीं था। 2017 के अंत तक केवल 5500 यू एस सैनिक ही अफगानिस्तान में बचे रह जाते हैं। 2019 में यह संख्या 2500 रह जाती है। बिडेन के आने के बाद अमेरिकी फोर्सेस की वापसी में तेजी आती है और 5 जुलाई2021 को अमेरिकी सेना की पूरी तरह वापसी हो जाती है।

तालिबान अपना अस्तित्व बचाए रखता है और आख़िरकार अफगानिस्तान को अपने अधिकार में ले लेता है :

अमेरिकी सेना की वापसी के बाद जिस तेजी से तालिबान अफगानिस्तान को अपने कब्जे में लेना शुरू कर देता है उससे यह पता चलता है कि तालिबान एक बड़ी ताकत के रूप में वहाँ मौजूद था। अगस्त के दूसरे सप्ताह में ही तालिबान काबुल को अपने कब्जे में ले लेता है। अफगानिस्तान की सरकार का पतन हो जाता है एवं राष्ट्रपति गनी देश छोड़कर भाग जाते हैं। यहाँ यह उद्धृत करना भी महत्वपूर्ण है कि अफगानिस्तान में मुख्य रूप से पश्तून एवं ताजिक दो कबीले के लोग रहते हैं। ताजिक लोग नॉर्थन अफगानिस्तान में ताजिकस्तान बोर्डर के पास पंजशीर इलाके में रहते हैं एवं उत्तरी अलाइन्स के मुख्य समर्थक है। हालाँकि अनेक ताजिक भी जेहाद के नाम पर तालिबान के समर्थक हैं लेकिन अधिकांश ताजिक उत्तरी नॉरदर्न अलाइन्स के साथ हैं। तालिबान के आने के बाद अफगानिस्तान के आम नागरिकों में जिस तरह का भय है एवं बाहर निकलने के लिए जिस तरह की भगदड़ मची है यह शायद तालिबान के पूर्व के बर्बर कृत्यों की स्मृतियों का ही प्रतिफल है। अफगानिस्तान की महिलाओं में अपने मुस्तकविल को लेकर खास चिंता देखने को मिल रही है , क्योंकि शरणार्थी शिविरों में भी महिलायें ही सबसे ज्यादा नारकीय जीवन का शिकार होती हैं। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि तालिबान इतने बर्बर क्यों हैं ? इसका कारण शायद यह है कि अधिकांश तालिबान लड़ाके या तो अनपढ़ है या मदरसा में पढ़े हुए है। उन्हें जन्नत के नाम पर जेहाद के लिए तैयार किया गया है एवं किसी भी कीमत पर ये जन्नत का टिकट गँवाना नहीं चाहते । कहीं कोई चूक हो जाने से जन्नत छूट न जाए । इसलिए वे हर हाल में जैसा कहा गया वैसा अमल में ले आना चाहते हैं। इस क्रम में मानवीय संवेदनशीलता से दूर चले गए हैं। उम्मीद करें कि तालिब के नाम पर बने इस संगठन को थोड़ी इल्म की रोशनी मिले और इंसानी जिंदगी की कीमत इन्हें समझ आए एवं इनका बर्बर व्यवहार मानवीय हो सके।

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisment -

Most Popular

Recent Comments