आलोक पुराणिक
एक कंपनी ने घोषणा कर दी है कि उसके द्वारा निर्मित कोरोना -वैक्सीन की कीमत 250 रुपये से ऊपर नहीं रखी जायेगी।
250 रुपये से ज्यादा वैक्सीन की कीमत अगर ना होगी, तो फिर कई फाइव स्टार अस्पतालों का धंधा मंदा होगा जो कोरोना के इलाज के पांच लाख से दस लाख धऱवाते हैं। आपकी जान बेशकीमती है, इस बात का मतलब आम आदमी को तब समझ में आता है ,जब वह इन फाइव स्टार अस्पतालों के चक्कर में पड़ता है। जान की कीमत लाखों में वसूलते हैं, ऐसे अस्पताल चाहते हैं कि वैक्सीन की कीमत भी लाखों रखी जाये। जान की कीमत लाखों में है, यह बात आम आदमी को लाखों देकर समझनी चाहिए। अगर आम आदमी के पास लाखों नहीं देने को, तो उसकी जान की कीमत दो कौड़ी की है।
वैक्सीन का इंतजार सबको है, बस लुटेरे अस्पतालों को छोड़कर।
250 रुपये से कम कीमत की हो, या पोलियो वैक्सीन की तरह मुफ्त में देने का इंतजाम हो जाये, तो और भी बेहतर। पर मुफ्त के इंतजाम से भी कईयों को दिक्कत होती है। ऊपर से धऱती पर आत्मा बतौर जीव आती है, पर नीचे उसे गरीब ग्राहक और अमीर ग्राहक के तौर पर देखा जाता है। अमीर ग्राहक की कीमत लाखों की है, गरीब की क्या कीमत तो गरीब की जान की क्या कीमत। मैं डरता हूं कि कहीं धूप को लेकर भी कुछ मुनाफाखोर कारोबारी योजना ना पेश कर दें सरकार के सामने कि धूप मुफ्त क्यों है, इस पर टैक्स लगा दिया जाये। धूप पर टैक्स लगेगा तो इसका इस्तेमाल कायदे से किया जायेगा, यह तर्क भी दिया जा सकता है। टैक्स लगाने के तरह तरह के तर्क होते हैं। टैक्स लगाने का एक तर्क होता है कि इससे सरकार अस्पताल बनाती है, स्कूल बनाती है। गौर से देखिये, सरकार जैसे स्कूल बनाती है, उसमें सरकारी अधिकारियों ओर सरकारी मंत्रियों के बच्चे पढ़ने ना जाते। आप गौर से नोट कीजिये, इन दिनों जो तमाम मंत्री, अफसर कोरोना की चपेट में आ रहे हैं,उनमें से लगभग सब निजी अस्पतालों में भरती होने जा रहे हैं। कुल मिलाकर यह माना जाता है कि पब्लिक से टैक्स लेकर सरकार ऐसे अस्पताल और स्कूल बनाती है, जिसमें सरकार खुद नहीं जाती। पब्लिक के बचे-खुचे टैक्स का सदुपयोग यह है कि मंत्री जो खर्च निजी अस्पताल में भरती होकर करता है, उसका भुगतान पब्लिक द्वारा दिये गये टैक्स से ही किया जाता है। एक शिक्षा मंत्री रहे हैं, जिनकी पूरी जिंदगी निजी शिक्षा संस्थानों की श्रंखला खड़ी करने में निकल गयी, शिक्षा की निजी दुकानें खोलने को प्रतिबद्ध शिक्षा मंत्री अलबत्ता भाषणों, बयानों में सरकारी विद्यालयों की गुणवत्ता बढ़ाने की बात करते रहे, उधर उनकी निजी दुकानों की फीस और गुणवत्ता लगातार बढ़ती रही। मंत्री गुणवत्ता कहीं बढ़ाने की बात करता है और बढ़ कहीं और जाती है। सड़क की गुणवत्ता बढ़नी चाहिए, पर मंत्री के निजी बंगले की गुणवत्ता बढ़ जाती है। देश मेरा रंगरेज है बाबू, घाट घाट पर घटता जादू। सुबह उन मंत्री ने सरकारी कोरोना अस्पताल का उदघाटन किया और शाम को वह एक निजी अस्पताल में भरती हो गये हैं। पब्लिक को उनका संदेश समझना चाहिए कि सरकारी अस्पतालों के सिर्फ फोटू देखिये पर भरती होइये निजी अस्पताल में।