Monday, April 29, 2024
HomeDESHPATRAशोषण और जुल्म के विरुद्ध बिरसा मुंडा जीवन पर्यंत संघर्षरत रहे थे

शोषण और जुल्म के विरुद्ध बिरसा मुंडा जीवन पर्यंत संघर्षरत रहे थे

बिरसा मुंडा ने एक साथ तीन - तीन मोर्चे पर लड़कर राजशाही प्रथा को समाप्त कर लोकतंत्रात्मक और स्वतंत्र भारत निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया था- 15 नवंबर, भगवान बिरसा मुंडा की 147 वीं जयंती पर विशेष प्रस्तुति

विजय केसरी:

भगवान बिरसा मुंडा जीवन पर्यंत शोषण और जुल्म के विरुद्ध संघर्षरत रहे थे। मानो जुल्म और शोषण की कोख से उनका जन्म हुआ था । उनका संपूर्ण जीवन संघर्ष में बीता था। उन्होंने शोषण और जुल्म के खिलाफ आदिवासी समाज को संगठित कर ब्रिटिश हुकूमत खिलाफ एक बड़े जंग का ऐलान किया था। फलस्वरूप आदिवासी समाज को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी।‌ ब्रिटिश हुकूमत के बढ़ते मालगुजारी ने आदिवासी समाज को और भी आर्थिक रूप से कमजोर कर दिया था। आदिवासी समाज ने इस बढ़ोतरी का खुलकर विरोध किया था। पहले से गरीब आदिवासी समाज, ऊपर से भयंकर अकाल ने काफी तबाह कर दिया था। प्रांत भर में भीषण अकाल पड़ने के बावजूद अंग्रेजी हुकूमत ने मालगुजारी बढ़ा दिया था। यह अंग्रेजी हुकूमत की आदिवासियों के विरुद्ध जुल्म की पराकाष्ठा थी। बिरसा मुंडा ने अंग्रेजी हुकूमत के इस जुल्म के खिलाफ संपूर्ण आदिवासी समाज को एकजुट किया था। उन्होंने समाज के हर तबके की भलाई के लिए यह कदम उठाया था । उन्होंने जमीदारी प्रथा और सूदखोरी प्रथा का भी कड़ा विरोध किया था। वे एक साथ तीन-तीन मोर्चे पर संघर्ष कर रहे थे। एक ओर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ उनका जंग जारी था तो वहीं दूसरी ओर जमींदारों के खिलाफ भी संघर्षरत थे। तीसरे मोर्चे पर सूदखोरी के खिलाफ भी लड़ रहे थे ।
बिरसा मुंडा ने एक साथ तीन – तीन मोर्चे पर लड़कर राजशाही प्रथा को समाप्त कर लोकतंत्रात्मक और स्वतंत्र भारत निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया था। बिरसा मुंडा अदम्य साहस के प्रतिमूर्ति थे। उनकी डिक्शनरी में डर नाम की कोई चीज नहीं थी । बाल काल से ही उन्होंने जुल्म और शोषण के खिलाफ अपनी आवाज को बुलंद किया था। उनकी कथनी और करनी एक थी । वे सहज, सरल और मृदुभाषी प्रकृति के व्यक्ति थे। उनमें दया कूट-कूट कर भरी हुई थी। वे एक न्याय प्रिय व्यक्ति थे। उन्होंने सदा सत्य मार्ग का अनुसरण किया था। ईश्वर के प्रति उनमें गहरी आस्था थी। वे एक सुसंस्कृत, सुसंगठित और एक स्वस्थ समाज का निर्माण करना चाहते थे। वे सामाजिक भेदभाव, ऊंच-नीच को समाज के लिए अहित मानते थे । वे समाज का सर्वांगीण विकास चाहते थे। उनकी सत्यनिष्ठा, ईमानदारी, सब के प्रति समान भाव, जुल्म और शोषण के खिलाफ पूरी शक्ति से लड़ना, अदम्य साहस ने उन्हें भगवान बिरसा के रूप में तब्दील कर दिया था। बिरसा मुंडा इस धरा पर मात्र 25 वर्षों तक रहे थे । इतनी कम उम्र में उन्होंने जो कार्य किया सदा समाज को प्रेरित करता रहेगा। हम सबों को बिरसा मुंडा के जीवन से समाज सेवा करने की सीख लेनी चाहिए। आज लोग थोड़ा सा समाज सेवा कर, समाज सेवा का बखान करते थकते नहीं। वहीं दूसरी ओर बिरसा मुंडा ने अपने किसी भी उद्बोधन में समाज सेवा की कोई चर्चा तक नहीं की बल्कि उन्होंने तन, मन, धन से समर्पित होकर समाज सेवा किया था।
बिरसा मुंडा का उदय जुल्म और शोषण के खिलाफ हुआ था। उनका जीवन सदा सकल समाज के लिए अनुकरणीय रहेगा। इसलिए आज की पीढ़ी को बिरसा मुंडा के साहसपूर्ण और गौरवपूर्ण कार्यों से परिचित होना जरूरी है। बिरसा मुंडा का जन्म मुंडा जनजाति के गरीब परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम सुगना मुंडा और माता नाम करमी मुंडाईन था। ये दोनों गरीब कृषक थे। बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को झारखण्ड के खुंटी जिले के उलीहातु गाँव में हुआ था। ये निषाद परिवार से थे । उन्होंने साल्गा गांव में प्रारम्भिक पढाई के बाद चाईबासा, गोस्नर एवंजिलकल लुथार विधालय में पढ़ाई किया था। । वे अन्य छात्रों से अलग थे । वे हमेशा शांत रहा करते थे। वे विचार मंथन करते रहते थे । वे एक आज्ञाकारी छात्र थे। वे जरूरत पड़ने पर ही बोला करते थे । इनका मन हमेशा अपने समाज को ऊपर उठाने में लगा रहता था । ब्रिटिश शासक के शोषण से समाज को कैसे मुक्त किया जाए ? इतनी छोटी उम्र में यह विचार करते रहते थे । उन्होंने आदिवासी समाज को अंग्रेजों से मुक्ति पाने के लिए अपना नेतृत्व प्रदान किया था । 1894 में मानसून ना होने के कारण संपूर्ण छोटानागपूर में भयंकर अकाल पड़ गया था। वहीं दूसरी ओर भयंकर महामारी भी फैल गई थी। इस प्रतिकूल स्थिति में बिरसा मुंडा ने पूरे मनोयोग से अपने लोगों की सेवा की थी।
बिरसा मुंडा ने मुंडाओं को एकत्र कर अंग्रेजो से लगान माफी के लिए आन्दोलन किया था। इस कारण 1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गई थी। । लेकिन बिरसा मुंडा और उनके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी । बिरसा मुंडा के हजारीबाग जेल में रहने के बावजूद उनके शिष्यों ने उनके निर्देश पर अकाल पीड़ितों को मुफ्त अनाज और महामारी से जूझ रहें लोगों की हर संभव मदद की थी। इन्हीं गुणों और कार्यों के कारण उन्होंने अपने जीवन काल में ही एक महापुरुष का दर्जा पा लिया था । लोग उन्हें एक अवतारी पुरुष के रूप में देख रहे थे । लोग उनसे प्रेम करने लगे थे। यह प्रेम ईश्वर के प्रेम करने जैसा था। लोग आज भी बिरसा मुंडा को भगवान का अवतार मानते हैं। उनके प्रति सच्ची श्रद्धा भी रखते हैं। उन्हें इस इलाके के लोग “धरती आबा”के नाम से पुकारते और पूजते हैं । उनके प्रभाव की वृद्धि से पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी थी।
1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच कई युद्ध हुए थे। बिरसा मुंडा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। अगस्त 1897 में बिरसा मुंडा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानो से लैस होकर खूंटी थाने पर धावा बोला दिया था । 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई थी, जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गई थी, लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियां हुईं थीं।
1900 में डोम्बरी पहाड़ पर एक और संघर्ष हुआ था । जिसमें बहुत सी औरतें व बच्चे मारे गए थे। उस स्थान पर बिरसा मुंडा ने लोगों को सम्बोधित किया था। बिरसा मुंडा ने उस जनसभा में लोगों से कहा था कि जुल्म और शोषण के खिलाफ उनका यह संघर्ष जीवन पर्यंत जारी रहेगा। वे अंग्रेजों को भगा कर ही दम लेंगे। उन्होंने एक एक जन से आखरी सांस तक लड़ने के लिए अपील की थी। बिरसा मुंडा के इस उद्बोधन का ऐसा असर हुआ था कि लोग कई मिनटों तक तालियां बजाते रहे थे । बिरसा मुंडा की जय के नारों से से पूरा रणभूमि गूंज उठा था। बिरसा मुंडा के इस उद्बोधन से अंग्रेजी हुकूमत की ईट से ईट हिल गई थी । इस उद्बोधन के कुछ दिनों बाद बिरसा मुंडा के प्रमुख शिष्यों की गिरफ़्तारियां हुईं थीं। इसके बाद भी अंग्रेजो के खिलाफ आदिवासी समाज का संघर्ष रुका नहीं था। अन्त में अंग्रेजी हुकूमत के सिपाहियों ने बिरसा मुंडा को 3 जनवरी 1900 को चक्रधरपुर के जमकोपाई जंगल से गिरफ़्तार कर लिया था । बिरसा मुंडा की गिरफ्तारी के बावजूद अंग्रेजो के खिलाफ उनका संघर्ष रूका नहीं बल्कि और भी प्रबल होता चला गया था । बिरसा मुंडा के तेज संगठन प्रक्रिया और युद्ध रणनीति से अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिल गई थी। बिरसा मुंडा अंग्रेजों के आंखों के किरकिरी बन गए थे। अंग्रेजी हुकूमत, बिरसा मुंडा को जीवित देखना नहीं चाहते थे । अंततः अंग्रेज अपनी इस साल में सफल हो गए थे। अंग्रेजों ने बिरसा मुंडा को खाने में जहर मिला कर दे दिया था। बिरसा मुंडा ने 9 जून 1900  रांची के कारागार अंतिम सांस में लीं थीं। अंग्रेजों द्वारा बिरसा मुंडा की छल से हत्या के बावजूद उनके अनुयायियों ने संघर्ष को रोका नहीं, बल्कि उनके विचारों से प्रेरणा पाकर संघर्षरत रहे थे ।
आज भी बिहार,उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों के लोग में बिरसा मुंडा को भगवान की तरह पूजा करते हैं। 15 नवंबर को बिरसा मुंडा के इस झारखंड की पवित्र भूमि पर आगमन होने के कारण ही इसी दिन झारखंड अलग प्रांत का नींव रखा गया था। अब झारखंड अलग प्रांत का 22 वर्ष पूरा हो गया । झारखंड अलग प्रांत अपने 23वें वर्ष में प्रवेश कर गया है। झारखंड अलग प्रांत के संघर्ष की कहानी भी बहुत प्रेरणादाई है। झारखंड अलग प्रांत बनने के बाद उम्मीद थी कि झारखंड एक शोषण मुक्त राज्य बनेगा। यह प्रांत बिरसा मुंडा के सपनों के अनुकूल पुष्पित और पल्लवित होगा। लेकिन झारखंड की राजनीतिक अस्थिरता ने इसके विकास पर 14 वर्षों का ग्रहण लगा दिया था। झारखंड की जनता द्वारा चुनी गई सरकार प्रांत का संचालन कर रही है। लेकिन बिरसा मुंडा के बताए मार्ग पर कितना चल पा रही है ? यह देखना जरूरी है।

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisment -

Most Popular

Recent Comments