Tuesday, April 30, 2024
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सांप्रदायिक सौहार्द की सीख देती हजारीबाग की रामनवमी

( 17 अप्रैल, हजारीबाग रामनवमी महापर्व के 106 वें वर्ष में प्रवेश पर एक शोध परख आलेख)

हजारीबाग की रामनवमी 106 वें वर्ष में प्रवेश कर गई है। हजारीबाग रामनवमी की लोकप्रियता जिस रूप में उभर कर सामने आई है, इसका इतिहास उतना ही गौरवशाली है। हजारीबाग की रामनवमी ‘वर्ल्ड फेमस रामनवमी’ और ‘इंटरनेशनल रामनवमी’ के नाम से जानी जा रही है । हजारीबाग की रामनवमी ने समाज के सभी वर्ग के लोगों को एक साथ जोड़ दिया है। इस महापर्व पर सभी लोग एक साथ मिलकर नाचते गाते देखे जाते हैं। इस पर्व ने छोटे-बड़े और अमीर – गरीब के भेद को एक सूत्र में बांध दिया है। हजारीबाग की रामनवमी अपने स्थापना काल से ही सांप्रदायिक सौहार्द की सीख देती चली आ रही है । इस महपर्व में हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई सहित विभिन्न धर्मावलंबी के लोग मिलजुल जुलूस में भाग लेते हैं, तथा परस्पर सहयोग से जुलूस को आगे बढ़ते देखे जाते हैं। इस महापर्व पर सरकारी और सामाजिक संगठनों द्वारा जुलूस में भाग लेने वाले लोगों का हर तरह से खिदमत किया जाता हैं।

यह महपर्व हम सबों को परस्पर सहयोग और आपसी भाईचारे की भी सीख देता है। हजारीबाग की रामनवमी अब इंटरनेशनल रामनवमी के रूप में जानी जा रही है। हजारीबाग की रामनवमी देखने के लिए आसपास के जिलों सहित विभिन्न प्रांतो के लोग भी हर वर्ष आते हैं।
हजारीबाग की रामनवमी की शुरुआत सन् 1918 में चैत्र शुक्ल नवमी के दिन मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान रामचंद्र की जंयती पर हजारीबाग नगर के जेपीएम मार्ग निवासी स्वर्गीय गुरु सहाय ठाकुर ने अपने पांच मित्रों के साथ मिलकर महावीरी झंडा निकालकर की थी। तब शायद किसी ने यह कल्पना भी न की थी कि पांच व्यक्तियों द्वारा निकाला गया यह जुलूस एक दिन इंटरनेशनल रामनवमी के रूप में तब्दील हो जाएगी ।
1918 में महावीर झंडा निकालने से पूर्व स्वर्गीय गुरु सहाय ठाकुर ने अपने मित्रों से और परिवार के सदस्यों से कहा था कि एक रात उनके स्वप्न में भगवान राम आए और चैत्र शुक्ल नवमी के दिन महावीरी झंडा निकालने के लिए कहा । स्वर्गीय गुरु सहाय ठाकुर बचपन से ही धार्मिक प्रकृति के व्यक्ति थे। वे राम और भक्त हनुमान के अनन्य भक्त थे। जहां भी राम कथा होती, गुरु साहब ठाकुर सब काम छोड़ कथा में सम्मिलित हुआ करते थे । उन्होंने अपने पांच मित्रों क्रमश: हीरालाल महाजन, यदुनाथ बाबू,कन्हाई गोप, टीभर गोप, जटाधार बाबू और घरवालों से राय – मशवरा कर उसी साल चैत्र शुक्ल नवमी के दिन पहला महावीरी झंडा लेकर हजारीबाग नगर के कुम्हार टोली महावीर मंदिर, महावीर स्थान मंदिर, बड़ा अखाड़ा, पंच मंदिर आदि मंदिरों में पूजा अर्चना कर भ्रमण किया था। स्वर्गीय गुरु सहाय ठाकुर द्वारा निकाला गया महावीरी झंडा जुलूस धीरे धीरे कर हर वर्ष पांच से दस । दस से बीस और सौ से हजार होते देर ना लगा था । आज रामनवमी के जुलूस में लाखों की संख्या में श्रद्धालु जुटते हैं। 160 से अधिक झांकियां जुलूस में सम्मिलित होती हैं।
जिस गुरु सहाय ठाकुर ने हजारीबाग में रामनवमी महापर्व जैसे गौरवशाली विरासत को दिया, उनके व्यक्तित्व पर दो शब्द लिखना जरूरी हो जाता है। वे सहज, सरल और मृदुभाषी स्वभाव के थे। वे एक पक्के समाजसेवी थे। वे सभी के दुःख सुख में साथ देने वाले व्यक्ति थे। इस कारण उनके आवास पर शहर के गणमान्य लोगों का आना-जाना बना रहता था। वे स्त्री शिक्षा के प्रबल पक्षधर थे। उन्होंने हजारीबाग कुम्हार टोली में पहला बालिका विद्यालय खोला था। उस कालखंड में स्त्रियों को स्कूल भेजे जाने पर कई सामाजिक पाबंदियां लगी हुई थीं। यह बात उन्हें कदापि पसंद न थी। उन्होंने अपनी बड़ी बेटी को इसी स्कूल में दाखिला भी दिया था। वे समाज में व्याप्त कुरीतियों को जड़ से मिटा देना चाहते थे। उनका मत था कि समाज में जो कुरीतियां व्याप्तह, जिसका उन्मूलन बहुत जरूरी है। यह सब सामाजिक कुरीतियों अशिक्षा के कारण उत्पन्न हुई थी। गुरु सहाय ठाकुर महावीरी झंडा के माध्यम से समाज में नवजागरण लाना चाहते थे । समाज में व्याप्त कुरीति को दूर करना चाहते थे । मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के संदेशों को जन-जन तक पहुंचाना चाहते थे । वे चाहते थे कि समाज मर्यादित हो, समाज में अनुशासन हो, अमीरी – गरीबी का भेद मिटे, जात – पात का भेद मिटे, समाज से अस्पृश्यता पूरी तरह खत्म हो। वे चाहते थे कि हर हिंदू के मन में हनुमान की तरह राम के प्रति भक्ति हो ।
गुरु सहाय ठाकुर महावीरी झंडा सिर्फ भगवान राम के जन्मदिन पर जरूर निकालते थे, लेकिन वे इस जुलूस के विस्तार मे सालों भर लगे रहते थे । वे निरंतर लोगों से मिलते और महावीरी झंडा के महत्व को बताते थे । वे लोगों को कहते थे कि भगवान राम के प्रति मन में सच्ची भक्ति से सारे बिगड़े काम बन जाते हैं। उनकी बातों का लोगों पर गहरा असर होता था। यही कारण है कि एक महावीरी, कुछ ही सालों में सैकड़ों महावीर झंडे में तब्दील हो गया था ।
1947 के आसपास तक हजारीबाग नगर में चैत्र नवमी के ही दिन रामनवमी का जूलूस निकलता था। इस एक दिवसीय रामनवमी जुलूस में हजारों की संख्या में नगर और ग्रामीण लोग शामिल हुए थे । तब जुलूस में कोई झांकी शामिल नहीं होती थी । उस समय लोगों के हाथों में बड़े और छोटे महावीरी झंडे होते थे । लोग हर चौक – चौराहे पर शस्त्र का परिचालन व प्रदर्शन किया करते थे । जुलूस में शामिल शहनाई, नगाड़ा, ढोलक आदि के धुन पे लोग नाचते – गाते आगे बढ़ाते थे । लोग शस्त्र परिचालन देखने के लिए दूर-दूर से यहां आते थे । शस्त्र परिचालन करने वाले बीते कई महीने के अभ्यास के बाद ही सार्वजनिक रूप से शस्त्र परिचालन दिखा पाते थे । जुलूस पूरी तरह मर्यादित और अनुशासन में होता था।
1949- 50 तक पहुंचते पहुंचते रामनवमी जुलूस के स्वरूप में काफी बदलाव आ गया था । ग्रामीण क्षेत्रों के काफी संख्या में जुलूस रामनवमी के जुलूस में शामिल होने लगे थे । पहले जुलूस संध्या होते – होते विसर्जन हो जाया करता था । जैसे-जैसे जुलूस के स्वरूप का विस्तार होता गया, समय सीमा बढ़ती चली गई । तब जुलूस में पेट्रोमैक्स और लालटेन शामिल होने लगे थे । इस दौरान जुलूस में रौशनी हेतु बड़े-बड़े मशाल भी शामिल होने लगे थे।
इसी कालखंड में रामनवमी जुलूस के दूसरे दिन चैती दुर्गा की प्रतिमाएं शामिल होने लगी थी । इसी दरमियान चैती दुर्गा की कई प्रतिमाएं देवी मंडपों में स्थापित हुई थी । इन देवी मंडपों में स्थापित दुर्गा जी की प्रतिमाओं का विसर्जन रामनवमी के दूसरे दिन होता था। इसलिए नवमी के दिन निकलने वाला रामनवमी जुलूस, नवमी और दसवीं अर्थात दो दिनों में तब्दील हो गया था । अब रामनवमी का जुलूस एक दिन की जगह दो दिन अर्थात नवमी और दशमी को निकलने लगा था । उस समय रामनवमी का जुलूस दोपहर दो बजे के आसपास निकल जाता और रात के लगभग नौ से दस बजे के बीच समाप्त हो जाया करता था। दशमी के दिन भी यह जुलूस दो बजे के आसपास निकलता और रात्रि के नौ से दस के बीच समाप्त हो जाया करता था । आगे के दशक में धीरे धीरे कर जुलूस में शामिल होने वालों की संख्या बढ़ती चली गई थी । रामनवमी का जुलूस और भव्य ढंग से निकले, इसलिए चैत्र मास के आगमन साथ ही हर मोहल्ले में रामनवमी की बैठकें प्रारंभ हो जाया करती थी। चैत्र मास के प्रथम मंगलवारीय जुलूस रामनवमी के रिहर्सल जुलूस के रूप में निकलने लगा । मंगलवारीय जुलूस शुरुआत सन 1949-50के आसपास हुई थी। मंगलवारीय जुलूस की परम्परा आज भी कायम है।
1950 के आसपास चैत्र रामनवमी महासमिति का गठन हुआ था । चैत्र रामनवमी महासमिति गठन की भी बड़ी दिलचस्प कहानी है । चैत्र रामनवमी महासमिति का गठन रामनवमी समिति के विभिन्न अखाड़ों एवं समितियों ने किया था । आज भी महासमिति के अध्यक्ष का चुनाव रामनवमी समिति के पदाधिकारियों द्वारा किया जाता है । महासमिति का दायित्व है कि रामनवमी के जुलूस को शांतिपूर्ण ढंग से निकालकर नगर के विभिन्न चौक -चौराहों का भ्रमण कराकर विसर्जन कर देना है । हजारीबाग की रामनवमी के जुलूस का इतना विस्तार हो चुका था कि बिना महासमिति के गठन के जुलूस का संचालन कठिन हो गया था । चैत्र रामनवमी महासमिति की रामनवमी जुलूस को शांतिपूर्ण ढंग से निकालने और गुजारने में बहुत ही अहम भूमिका होती है। आज भी महासमिति अपने दायित्व का निर्वहन पूरी निष्ठा से करती चली आ रही है ।
1960 के आसपास हनुमान जी की प्रतिमाएं महावीरी झंडा जुलूस में शामिल होना प्रारंभ हो गया। साथ में बड़ी-बड़ी दुर्गा जी की प्रतिमाएं भी शामिल होने लगी थीं। रामनवमी के जुलूस में भगवान राम, भक्त हनुमान और दुर्गा जी की प्रतिभाएं शामिल होने से रामनवमी जुलूस का स्वरूप ही बदल गया था । जुलूस में शामिल प्रतिमाओं को देखने के लिए शहर और गांवों से देखने के लिए जन सैलाब उमड़ पड़ता था। 1970 के दशक में जनरेटर युग की शुरुआत हुई थी । रंगीन बल्बों से प्रतिमाओं की झांकियां सजनी शुरू हो गई थीं । इन प्रतिमा झांकियों के माध्यम से कई सामाजिक संदेशों को देने की प्रथा की शुरुआत हो गई थी । आज भी रामनवमी जुलूस में शामिल झांकियां, समाज के बदलते परिदृश्य, राजनीति और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर अपनी बातें खुलकर कहती नजर आती हैं । इसी कालखंड में पहली बार जीटीसी के तत्कालीन अध्यक्ष स्वर्गीय गणेश प्रसाद सोनी ने कोलकाता से ताशा और बैंजो को रामनवमी के जुलूस में शामिल किया था । कोलकाता के ताशा एवं बैंजो ने रामनवमी के जुलूस में ऐसा धुन बिखेरा कि अगले साल तक लगभग सभी समितियों ने अपने अपने जुलूस में ताशा और बैन्जो को शामिल कर लिया था।
हजारीबाग रामनवमी जुलूस की प्रसिद्धि सिर्फ झारखंड तक ही सीमित नहीं रही बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी लोकप्रिय हो गई । हजारीबाग निवासियों के रिश्तेदार जो अन्य प्रदेशों में रहते हैं ,रामनवमी को देखने के लिए इस महापर्व पर हजारीबाग जरूर आ जाया करते । रामनवमी पर आज भी हजारों की संख्या में विभिन्न प्रदेशों में रह रहे रिश्तेदार रामनवमी देखने हजारीबाग जरूर आते हैं।
हजारीबाग की रामनवमी समाज के सभी वर्गों को जोड़ने का काम करती चली आ रही है। हजारीबाग रामनवमी के नायक स्वर्गीय गुरु सहाय ठाकुर समाज में व्याप्त छुआछूत, जात पात, अस्पृश्यता को दूर कर लोगों में नवजागरण लाना चाहते थे । आज हजारीबाग की रामनवमी छोटे बड़े के भेद ,शहर – गांव के भेद को मिटा कर और एक होकर रामनवमी जुलूस में शामिल होते हैं। प्रारंभ से ही महावीरी झंडे का निर्माण हमारे समाज के मुस्लिम दर्जी ही किया करते रहे थे, यह परंपरा आज तक बनी हुई है। जुलूस में शामिल होने वाली झांकियों का निर्माण भी विभिन्न धर्मावलंबियों के कारीगरों द्वारा किया जाता रहा है । ताशा पार्टी एवं बैंजो में शामिल होने वाले कई कलाकार मुस्लिम बिरादरी के होते हैं। इस अवसर पर वे जमकर ताशा बजाते और नाचते हैं । हजारीबाग की रामनवमी संप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक पर्व बन गया है। हजारीबाग की रामनवमी के जुलूस में सभी संप्रदाय के लोग आपसी भेद को मिटा कर शामिल होते हैं । सरकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर जुलूस मार्ग पर सैकड़ों की संख्या में सेवा शिविर लगाए जाते हैं, जहां दर्शनार्थियों के लिए भोजन, पानी चिकित्सा की सुविधा चौबीसों घंटे रहती हैं । वहीं हजारीबाग की रामनवमी को बदनाम करने की भी साजिश रची जाती है। हजारीबाग के संभ्रांत नागरिक गण संप्रदायिक सौहार्द की एकता के बल पर अशांति फैलाने वालों को कभी कामयाब नहीं होने देते। हिंदू मुस्लिम एकता संघ, सर्व धर्म समभाव, कौमी एकता के बैनर तले रामनवमी जुलूस में शामिल होने वाले लोगों का इत्र फूल मालाओं से स्वागत किया जाता है। रामनवमी का पर्व हम सबों को सांप्रदायिक सौहाद्र की सीख देता है।

Vijay Keshari
Vijay Kesharihttp://www.deshpatra.com
हज़ारीबाग़ के निवासी विजय केसरी की पहचान एक प्रतिष्ठित कथाकार / स्तंभकार के रूप में है। समाजसेवा के साथ साथ साहित्यिक योगदान और अपनी समीक्षात्मक पत्रकारिता के लिए भी जाने जाते हैं।
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