विजय केसरी:
स्वाधीनता आंदोलन के शिखर पुरुष, संविधान सभा के सदस्य , झारखंड अलग प्रांत के प्रथम पक्षकार, वरिष्ठ समाजसेवी एवं गरीबों के मसीहा बाबू राम नारायण सिंह का संपूर्ण जीवन भारत की आजादी एवं समाजोत्थान को समर्पित रहा था । वे आजादी के पक्के दीवाने थे । आजादी उनके जीवन का मकसद बन चुका था । उन्होंने देश की आजादी के लिए अपना सब कुछ समर्पित कर दिया था । उनकी राजनीति सिर्फ देश हित के लिए ही कदम बढ़ा दी थी । सत्य और अहिंसा का प्रथम पाठ उन्होंने गांधीजी से ही सीखा था । इस धर्म का पालन उन्होंने अपने जीवन के अंतिम क्षण तक किया था। आज की बदली परिस्थिति में जहां राजनीति जाति आधारित बन चुकी है। वोट के लिए राजनीति का ध्रुवीकरण हो रहा है। नेताओं के कथनी और करनी में आसमान और जमीन का फर्क दिख रहा है। राजनीति से धीरे धीरे कर नैतिकता का लोक होता चला जा रहा है। इस विषम परिस्थिति में हम सबों को बाबू राम नारायण सिंह की राजनीति से त्याग और बलिदान की सीख लेनी चाहिए। उनकी राजनीति समाज के अंतिम व्यक्ति के विकास से जुड़ी हुई थी। आजादी का मतलब सिर्फ देश की संप्रभुता ही नहीं थी, बल्कि देश में निवास करने वाले हर एक व्यक्ति की संपूर्ण आजादी थी। उनकी राजनीति गांव और पंचायत से शुरू होकर जिला, प्रांत और केंद्र तक पहुंचती थी ।।वे देश की आजादी के बाद स्वाधीनता की रक्षा एवं समाज सेवा से आजीव जुड़े रहे थे । उनकी राजनीति का अर्थ सिर्फ सत्ता प्राप्ति न थी, बल्कि समाज के अंतिम व्यक्ति तक उसका लाभ पहुंच सके। देश की आजादी के बाद वे जीवन पर्यंत समाज के शोषित, दबे कुचले वर्ग के लिए लड़ते रहे थे ।
वे देश के तमाम बड़े नेताओं महात्मा गांधी, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, आचार्य कृपलानी, डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी, सुभाष चंद्र बोस, विनोबा भावे, सरदार वल्लभभाई पटेल आदि नेताओं के साथ कदम से कदम मिलाकर स्वाधीनता आंदोलन की लड़ाई लड़े थे। देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद के प्रिय साथी थे । बाबू राम नारायण सिंह के पोता डॉ प्रमोद सिंह ने डॉ राजेंद्र प्रसाद एवं दादा जी के बीच हुए पत्राचार की प्रति जब दिखाया, उन चिट्ठियों को पढ़कर मन क्रिप्स हो गया । किस तरह देश के दो बड़े नेता कितने सहज, सरल शब्दों में अपनी भावनाओं एवं देश की चिंता से एक दूसरे को अवगत कराया करते थे ।
बाबू राम नारायण सिंह मंच पर पहुंचते ही, उन्हें देखने और सुनने वालों की भीड़ लग जाती थी। अंग्रेजो के खिलाफ बेबाक खुलकर बोला करते थे। ब्रिटिश हुकूमत को तुरंत भारत की धरती खाली करने का हुक्म सुनाया करते थे । उनका स्पष्ट मत था कि ब्रिटिश हुकूमत ने छलावा, कूटनीति- राजनीति के बल पर भारत को गुलाम बनाया था। भोले – भाले भारतीयों को अपने व्यवसाय के भंवर जाल में फंसाकर धीरे-धीरे ब्रिटिश हुकूमत ने सत्ता की बागडोर अपने हाथों में ले लिया। अब भारतीय उनके भंवर में फंसने वाले नहीं है, बल्कि करोड़ों हिंदुस्तानी मिलजुलकर अंग्रेजी हुकूमत को भारत से खदेड़ कर ही दम लेंगे।
बाबू राम नारायण सिंह की उक्त बातों का संपूर्ण देश में ऐसा असर हुआ कि देखते ही देखते देश के लोकप्रिय नेताओं में गिने जाने लगे । देश भर से उन्हें वक्तव्य देने के लिए बुलावा आने लगा। वे किसी भी बात को पर्दे में नहीं बोला करते थे । ब्रिटिश हुकूमत की स्वाधीनता आंदोलन की हिट लिस्ट में बाबू राम नारायण सिंह का नाम दर्ज हो गया था । कई बार ब्रिटिश हुकूमत ने बाबू रामनारायण सिंह को जेल में डाला, किंतु उनके हौसले कभी कम नहीं हुए। वे लगातार अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आग उगलते ही रहे थे।
बाबू राम नारायण सिंह महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित होकर भारतीय स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े थे। महात्मा गांधी के विचारों के प्रबल समर्थक थे। महात्मा गांधी की तरह ही उनका आचरण था । कम से कम सुविधा लिया करते थे । आमजन की तरह रहना और भोजन करना उन्हें पसंद था । समय के बड़े पाबन्द थे। हर काम को समय पर किया करते थे । लोगों को भी समय से काम करने की सीख दिया करते थे । वे उद्योगों से ज्यादा खेती गिरस्ती को प्राथमिकता दिया करते थे। वे देशभर के किसानों के बिल्कुल निकट थे। स्वाधीनता आंदोलन में देशभर के किसानों को एक मंच पर लाने में हुए सफल हुए थे। बाबू राम नारायण सिंह एक कृषक के पुत्र थे। बचपन से ही उन्हें खेती गिरस्ती से गहरा लगाव था। किंतु उनके पिता उन्हें पढ़ा लिखा कर एक काबिल व्यक्ति बनाना चाहते थ इसी के अनुरूप उनकी पढ़ाई हुई। महाविद्यालय और विश्वविद्यालय से उन्होंने ऊंची डिग्री जरूर ले लिया था, किंतु अपने पिता के इच्छा के विपरीत स्वाधीनता आंदोलन का मार्ग का चयन किया । वे मृत्यु से पूर्व तक भारतीय राजनीति में सक्रिय रहे।
बाबू राम नारायण सिंह की राजनीति जनसेवा से ओतप्रोत रही थी। स्वाधीनता आंदोलन के क्रम में देश के विभिन्न राज्यों में बाढ़ और सूखा पड़ने पर उनसे मुकाबला करने के लिए पीड़ितों के साथ रहे थे। उनके पास जो कुछ भी रहता था, वह सब कुछ पीड़ितों को अर्पित कर दिया करते थे। देशवासियों से मदद लेकर बाढ़ सूखा पीड़ितों की मदद करने में कोई कोताही नहीं बरतते थे। देश में महामारी फैलने पर उन्होंने जिस तरह पीड़ितों की सेवा की थी , उसकी चर्चा आज भी होती है।
जनसेवा के संदर्भ में देश के नेताओं को सीख दिया करते थे कि ” नेतागण की राजनीति सिर्फ सत्ता प्राप्ति का ध्येय न बने और न ही सुख चैन से जीवन बिताने का साधन बने , बल्कि राजनीति के माध्यम से करोड़ों भारतवासियों का जीवन स्तर सुधारा जा सके । उन्होंने जो कहा आजीवन उसी मार्ग का अनुसरण किया। उन्होंने जिन मूल्यों व सिद्धांतों को प्रतिपादित व स्थापित किया, उस पर कड़ाई के साथ अमल भी किया।
देश की आजादी के बाद बाबू राम नारायण सिंह 1951 से 1957 तक हजारीबाग के सांसद रहे । संविधान सभा के सदस्य रहे। देश भर के अग्रणी नेताओं की पंक्ति में खड़े थे, किंतु उन्होंने इसका किसी भी तरह का लाभ अपने परिवार के किसी भी सदस्य तक नहीं पहुंचने दिया। वे चाहते तो अपने छोटे पुत्र ग्रेजुएट महादेव सिंह को किसी भी सरकारी नौकरी में ऊंचे पद पर भेज सकते थे , किंतु उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया । बल्कि अपने पुत्र को उन्होंने खेती गृहस्थी का मार्ग सुझाया। पिता के आदेश पर वे कृषक बने ।अब वे हमारे बीच नहीं है। बतौर कृषक अपने पिता के मार्ग पर आजीवन चलते रहे।
बाबू राम नारायण सिंह के सुपौत्र डॉ प्रमोद सिंह विनोबा भावे विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र के प्राध्यापक हैं। वे हमारे अच्छे मित्रों में एक है । बाबू राम नारायण सिंह का व्यक्तित्व और कृतित्व पर उन्होंने एक पुस्तक प्रकाशित किया है। अपने लोकप्रिय दादा की स्मृतियों को बहुत ही सहेज कर रखे हैं ।अपने यहां आने वाले अतिथियों को दादा बाबू राम नारायण सिंह की स्मृतियों को बड़े ही गर्व से दिखाते हैं । महात्मा गांधी, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी आदि की दर्जन भर से अधिक लिखीं चिठियां जो स्वाधीनता आंदोलन के क्रम में बाबू राम नारायण सिंह को लिखी गई थी । पढ़ने से प्रतीत होता है कि इतने बड़े-बड़े नेताओं को समाज की छोटी से छोटी बातों व चीजों पर भी इतना ध्यान रहता था । खेती किसानी, राजनीति, गाय बैल का हाल, कद्दू कोढ़ा का क्या हाल है, फसल लहलहा ने का समाचार, संसद भवन के रिक्त भूखंड में खेती आदि बातें उक्त पत्रों में दर्ज है। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के अग्रणी पंक्तियों में शुमार हमारे नेताओं ने साधारण कार्यों के बल पर अपनी पहचान बनाया । वे सब नाम से परे अपने कार्यों से देशवासियों को जोड़े थे।
बाबू राम नारायण सिंह का गांधी जी की ही तरह विचार था कि स्वाधीनता संग्राम की कांग्रेस पार्टी को समाप्त कर दिया जाए और एक नई राजनीतिक पार्टी का गठन हो, जो सत्ता का संचालन करें, किंतु ऐसा संभव नहीं हो पाया। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की नीति से बाबू राम नारायण सिंह काफी नाराज हुए थे । स्वाधीनता के बाद सत्ता का लाभ अंतिम व्यक्ति तक पहुंच नहीं पा रहा था। नेताओं के कथनी और करनी में साफ-साफ दिखने लगा था। देशभर में अफसरशाही बढ़ने लगी थी । बनी राजनीतिक परिस्थितियों के विरुद्ध एक बार और संघर्ष करने का उन्होंने जोरदार ऐलान किया था । इस बार उन्होंने “स्वराज लुट गया” नामक पुस्तक लिखकर दर्ज किया। उन्होंने इस संघर्ष को धारदार बनाने के लिए देश भर के नेताओं से मुलाकात किया । लंबी यात्राएं की । इसी बीच आज से 57 वर्ष पूर्व एक सड़क दुर्घटना में 79 वर्ष की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई। उन्होंने आजादी की रक्षा और समाज के अंतिम व्यक्ति तक सत्ता का लाभ पहुंचाने के लिए जो संकल्प लिया था । उनके विचारों को जन जन तक पहुंचाने के लिए हम लोगों को संकल्प लेने की जरूरत है। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी ।