मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सदन में विश्वास मत हासिल कर लेने के साथ ही बिहार में चल रहे पॉलिटिकल ड्रामे का अंत हो गया। इस जीत के साथ ही नीतीश कुमार ने एक बार फिर बिहार में अपना परचम लहरा दिया है। इस जीत के साथ उनकी राजनीति सफल होती नजर आ रही है। इस मामले में नीतीश कुमार वे एक भाग्यशाली मुख्यमंत्री रहे हैं। उन्होंने जितनी बार भी पार्टी बदली जीत हासिल की है । जबकि बिहार में वे जिस दल के विधायक हैं, उनकी संख्या मात्र 45 है। वहीं दूसरी ओर भाजपा विधायकों की संख्या 78 है। सदन में संख्या बल के मामले में नीतीश कुमार कम होने के बावजूद मुख्यमंत्री की कुर्सी उनके पास ही रहती रह रही है। चाहे नीतीश कुमार राजद के साथ सरकार बना लें अथवा भाजपा के साथ सरकार बना लें, मुख्यमंत्री वही रहेंगे ।इस बात को उन्होंने सदन में विश्वास मत जीत के बाद साबित कर दिया है।
नीतीश कुमार के इस्तीफा के बाद खेला होने की अटकलें
राष्ट्रीय जनता दल के बड़े नेता तेजस्वी यादव ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के इस्तीफा के बाद कहा था कि बिहार की राजनीति में कोई बड़ा खेला होने वाला है । उनके इस बयान के बाद बिहार की राजनीति में थोड़ी गर्माहट आ गई थी। तेजस्वी यादव कौन सा खेला खेलने जा रहे हैं ? इस पर तरह-तरह की अटकलें लगने लगी थी । चर्चा यहां तक सामने आई थी कि जदयू के कई विधायक टूट कर राजद में मिलने वाले हैं । वहीं दूसरी तरफ राजनीतिक गलियारे में यह भी चर्चा सुनने को मिली कि भारतीय जनता पार्टी के भी कई विधायक नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने से नाराज चल रहे थे ।भाजपा के भी विधायकों के टूटने की चर्चा चल रही थी। लेकिन सदन में ऐसा कुछ भी नहीं देखने को मिला। नीतीश कुमार को विश्वास में 129 मत पड़े । विश्वास मत पर वोटिंग से पहले ही विपक्ष सदन को बायकाट कर चलते बने। विपक्ष को विश्वास मत में शून्य वोट हासिल हुआ। वहीं नीतीश कुमार के पक्ष में 129 वोट पड़े और सदन में विश्वास मत हासिल कर लिया।
जदयू को भी टूट का डर था
बिहार के पॉलिटिकल ड्रामें की सबसे बड़ी बात यह उभर कर सामने आई है कि जदयू के नेताओं को यह विश्वास नहीं हो पा रहा था कि जदयू के 45 विधायक उनके साथ ही रहेंगे। उन्हें भी टूट का डर सता रहा था। वहीं भाजपा के नेताओं को भी विश्वास नहीं हो रहा था कि भाजपा के 78 विधायक उनके साथ ही रहेंगे । भाजपा के नेताओं को भी भाजपा के विधायकों के टूट का डर सता रहा था। इसी डर के कारण भाजपा और जदयू दोनों ने अपने-अपने विधायकों को अपने ही खेमे में रखने के लिए एक तरह से नजर बंद ही कर दिया था।
नेताओं की नज़रबंदी शुभ संकेत नहीं
भारतीय राजनीति में पूर्व में भी इस तरह के नजरबंदी के खेल होते रहे हैं । यह एक अच्छी परंपरा की शुरुआत नहीं कही जा सकती है। नेताओं को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि जिस पार्टी व दल के नाम पर वे जीत कर सदन में पहुंचे हैं । उस दल और पार्टी के प्रति पूरी तरह ईमानदार रहने की जरूरत है। अगर राजनीति में ऐसा नहीं होता है, तो यह राजनीति के लिए शुभ संकेत नहीं है ।
दोनों खेमों के नेताओं ने अपने अपने विधायकों को अपनी पार्टी में बनाए रखने के लिए एड़ी से चोटी एक कर दिया था। नेताओं ने अपने अपने खेमों के विधायकों को एक खास जगह पर रखकर यह कोशिश किया कि विधायकों में किसी तरह के फुट ना पड़े।
सबसे बड़ी पार्टी “राजद” को भी टूट का डर था
राजद, बिहार विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी है । उनके विधायकों की संख्या 79 है । उन्हें भी विश्वास नहीं हो रहा था कि उनके विधायक पूरी तरह उनके साथ रह पाएंगे। राजद के नेताओं को भी विधायक में फूट सता रहा था । इसलिए पूर्व मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव भी अपने उप मुख्यमंत्री आवास पर सभी विधायकों को पिछले चार-पांच दिनों से अपने रखे हुए थे । एक तरह से देखा जाए तो ये सभी विधायक नजर बंद ही थे । विधायकों के खाने-पीने और स्वागत में कोई कमी न रह जाए ऐसी कोशिश की जा रही थी ।
राजनीति में खरीद फरोख्त का डर पूरे देश में है
बिहार की राजनीति में जो खरीद फरोख्त की राजनीति का डर उभर कर सामने आया है, यह पक्ष और विपक्ष दोनों के लिए अच्छी बात नहीं है। आखिर कब तक अपने-अपने विधायकों को नजरबंद रखेंगे ? यह सिर्फ बिहार की राजनीति मे ही हो रही है । ऐसी बात नहीं है। विधायकों को नजरबंद किए जाने की घटनाएं देश के लगभग सभी राज्यों में कमोबेश घटित हो रही है। यह देश की राजनीति के लिए शुभ संकेत नहीं है।
आख़िर नीतीश कुमार बार-बार पाला क्यों बदल रहे हैं?
2019 में नीतीश कुमार एनडीए के साथ मिलकर बिहार विधान चुनाव लड़े थे। बिहार की जनता ने उन्हें सरकार बनाने के लिए पर्याप्त अंक प्रदान किया था । नीतीश कुमार की पार्टी कम संख्या में होने के बावजूद मुख्यमंत्री बने थे। भारतीय जनता पार्टी, बड़ी पार्टी होकर भी एक सहयोगी के रूप में सरकार में शामिल रही थीं। बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार ठीक ही चल रहा था कि अचानक नीतीश कुमार ने अपना पाला बदल लिया और राजद के साथ हाथ मिला लिया था। अब सवाल यह उठता है कि भाजपा के साथ थे, तब भी वही मुख्यमंत्री थे। राजद के साथ चले गए, तब भी वही मुख्यमंत्री थे । आखिर उन्होंने पाला क्यों बदला ? बिहार की जनता यह सवाल उनसे पूछ रही है ।
कांग्रेस के ख़िलाफ़ आंदोलन से राजनीति में प्रवेश
नीतीश कुमार राजनीति के मामले में कितने भाग्यशाली रहें कि जब उन्होंने राजद के साथ मिलकर सरकार बनाई थी । तब बिहार विधानसभा में राजद संख्या बल में सबसे बड़ी पार्टी थी। संख्या बल में कम होने के बावजूद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही बने थे। ऐसा कर नीतीश कुमार आखिर राजनीति में कौन सा उदाहरण प्रस्तुत करना चाहते हैं ? नीतीश कुमार का भारतीय राजनीति में प्रवेश लोकनायक जयप्रकाश नारायण के छात्र आंदोलन से हुआ था। उनके साथ लालू प्रसाद यादव, सुशील मोदी रामविलास पासवान आदि नेता भी उभर कर सामने आए थे। लोकनायक जयप्रकाश नारायण का आंदोलन कांग्रेस पार्टी की तानाशाही नीति के खिलाफ उनका यह छात्र आंदोलन था। आज देश की राजनीति ही बदल गई है, जिस कांग्रेस पार्टी के खिलाफ नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव आदि नेता उभर कर सामने आए थे। वही नेता गण सिर्फ कुर्सी और व्यक्तिगत राजनीतिक व स्वार्थ के लिए कांग्रेस पार्टी के साथ ही समय-समय पर हाथ मिलाते रहे हैं।
राजनीतिक दल अपने बयानों पर क्यों नहीं टिकते
भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेता देश के गृह मंत्री अमित शाह ने बिहार की एक जनसभा में साफ कहा था कि नीतीश कुमार के लिए भाजपा का सारा दरवाजा बंद हो चुका है। फिर नीतीश कुमार के लिए भाजपा का दरवाजा कैसे खुल गया ? नीतीश कुमार ने जब भाजपा से हाथ मिलाया था, तब उन्होंने कहा था की मिट्टी में मिल जाएंगे लेकिन दोबारा भाजपा में नहीं जाएंगे । आज वे फिर भाजपा में कैसे चले गाए ? देश की जनता यह जानना चाह रही है कि भाजपा, जदयू, राजद, कांग्रेस सहित सभी दल अपने अपने बयान पर टिकते क्यों नहीं है ?
नई सरकार का राजनीतिक लाभ मिलेगा नीतीश कुमार को
अब चूंकि नीतीश कुमार ने सदन में अपना बहुमत सिद्ध कर दिया है। अब बिहार में उनके ही नेतृत्व में एनडीए का चुनाव लड़ा जाएगा। मुख्यमंत्री के रूप में उनका ही चेहरा सामने होगा। 2024 का लोकसभा चुनाव भी उनके ही नेतृत्व में लड़ा जाएगा। तेजस्वी यादव, लालू यादव, राबड़ी देवी और निशा यादव जिस प्रकार ईडी के घेरे में फंसते चले जा रहे हैं, उनकी भी पकड़ राजद में कमजोर होती जाएगी । इसका सीधा राजनीतिक लाभ नीतीश कुमार को ही मिलेगा। लोकसभा चुनाव से पूर्व राजद में एक बड़ी टूट की संभावना बनी हुई है। इसे बात को दरकिनार नहीं किया जा सकता है। खैर ! जो भी हो, नीतीश कुमार ने जब भी पाला बदला, मुख्यमंत्री की कुर्सी उसके ही हाथ लगी। अब देखना यह है कि 2024 लोकसभा चुनाव और बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव में कितने संख्या बल के साथ लोकसभा और विधानसभा में अपने अपने नेताओं को भेज पाते हैं ?