धारा ने कविता के स्वरूप को ही बिगाड़ कर रख दिया है
धारा के अनुसार कविताओं के सृजन से कविता की स्वतंत्रता तार-तार होती चली जा रही है।

विजय केसरी:
आज के बदले परिदृश्य में धारा ने कविता के स्वरूप को ही बिगाड़ कर रख दिया है । धारा के आधार पर कविताएँ लिखी जा रही है । यह कविता के लिए अच्छी बात नहीं है। जबकि कवि के स्वतंत्र कविताओं से एक नई धारा बहनी चाहिए । धारा के अनुसार कविताओं के सृजन से कविता की स्वतंत्रता तार-तार होती चली जा रही है। भक्ति काल के संत कवियों ने समाज को सुधारने के लिए कविताओं की रचना की थी । उनकी कविताओं से एक नई धारा निकली थी, जो समाज की दिशा और दशा बदलने के लिए कारगर सिद्ध हुई थी। विश्व कविता दिवस पर विश्व के कवियों को इस विषय पर गंभीरता से विचार करना चाहिए । वे किसी धारा का गुलाम ना बने बल्कि अपनी स्वतंत्र धारा से समाज में अमन और चैन लाने का प्रयास करें। आज चहुँओर अशांति ही अशांति है। विश्व भर में कई देशों के बीच तनाव देखे जा रहे है । कई देश आपस में लड़ रहे हैं। कविताएँ इन तमाम विपरीत परिस्थितियों को अनुकूल बना सकती है । वनस्पति कवि स्वतंत्र रूप से लेखन करें।
उपरोक्त बातें ‘विश्व कविता दिवस’ पर हजारीबाग की साहित्यिक संस्था परिवेश के तत्वधान में आयोजित एक काव्य गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए कथाकार एवं कवि डॉ सुबोध सिंह शिवगीत ने कही।आयोजित इस काव्यगोष्ठी में सम्मिलित कवियों ने हर रंग रस की कविताएँ प्रस्तुत की। काव्य गोष्ठी में सम्मिलित कवि किसी धारा से जुड़े नहीं हैं बल्कि सभी ने अपनी स्वतंत्र रचनाओं से श्रोताओं का मन मोह लिया। स्वतंत्र अथवा धारा मुक्त कविताओं ने समाज को एक नई दिशा देने का भी सार्थक प्रयास किया है। धारा अथवा प्रचलित वाद ने विश्व के कवियों के सामने कई नई समस्याएं उत्पन्न कर दी है । आज विश्व भर की पत्रिकाएं चाहे जिस भाषा में भी छप रही हैं। अधिकांश पत्रिकाएं किसी न किसी धारा अथवा वाद से जुड़ी हुई हैं। ऐसे में एक स्वतंत्र कवि को अपनी स्वतंत्र सोच को बचाए रखना बड़ा मुश्किल हो गया है । इन तमाम परेशानियों को झेलते हुए कई ऐसे कवि उभर कर सामने आए हैं, जिन्होंने वाद से और धारा से मुक्त होकर अपनी रचनाओं को विश्व पटल पर रखा है। ऐसे रचनाकारों की कृतियां बहुत ही चाव के साथ पढ़ी जा रही हैं। इसलिए जरूरी है कि रचनाकारों को किसी वाद अथवा धारा से नहीं जुड़ना चाहिए बल्कि उन्हें स्वतंत्र होकर लेखन करना चाहिए । तभी रचनाओं में समाज की सच्चाई उभरकर सामने आ सकती है। हजारीबाग की साहित्यिक संस्था परिवेश ने विश्व कविता दिवस पर इसकी शुरुआत की है । धारा अथवा वाद से मुक्त कविओं की रचनाएं निम्न है।
काव्य गोष्ठी का शुभारंभ अनंत ज्ञान की कविता से हुआ। उन्होंने इस अवसर पर ‘तंबाकू मलती हथेलियों को मैं बहुत पवित्र मानता हूँ’ शीर्षक कविता का पाठ किया।
‘तंबाकू मलती हथेलियों को मैं बहुत पवित्र मानता हूँ’
‘इन हथेलियों को नहीं पता क्या होता है जाति-धर्म
क्या होता है रंग और वर्ण
मैंने देखा है….
अंसारी जी को तिवारी जी के लिए तंबाकू मलते
मैंने देखा है…
कलुआ भुइँया को यादव जी के लिए तंबाकू मलते.
मैंने देखा है…
दो अनजान चेहरों को तंबाकू मांगते बीच राह में चलते चलते’।
कवयित्री मोना बग्गा ने इस अवसर पर ‘मैं क्या थी और क्या हो गई’ शीर्षक कविता का पाठ किया।
मैं क्या थी और क्या हो गई…….
कई बार पूछती है मेरे अंदर की स्त्री मुझसे
मैं उलझ जाती हूं सवालों के घेरे में
जैसे भंवर हो चारों ओर
बढ़ गई हूं बहुत आगे जीवन की दौड़ में
सब कुछ पा लिया है मैंने……अपना घर, बैंक में जमा किए ढेर सारे रूपए
कहीं भी कभी भी बिना खौफ निकल जाने की आजादी , देर रात की दोस्तों की महफिल
हां खुद को छोटे शहर की या गांव की ना कहला जाऊं इस लिए
ध्रुमपान और मदिरा सेवन भी कर लेती हूं
आधुनिक हूं …अपने कपड़ों के चुनाव खुद करती हूं
छोटे पहनूं या कटे छटे पहनूं…. इस पर सवाल उठाने नही देती
माता पिता के लिए समाज में जरूरी है विवाह करना
इस लिए उनके लिए …रिश्ते भी निभा ही लेती हूं
लेकिन सुनना या किसी का समझाना मुझे पंसद नही बिल्कुल नहीं
कानून मेरे लिए सख्त बनाए गए हैं
जहां सीधाई से काम ना चले अँगूली टेढ़ी करना आ गया है मुझे
मैं एक कमाऊ आजाद नारी हूं ….जाग चुकी हूं…समझ चुकी हूं….बढ़ चुकी हूं…..
एक पुरूष मुझे समझाए ये मैं पंसद नहीं करती
आधी-आधी जिम्मेदारी बांटी है आधी ही पूरी करूंगी
दब कर क्यूं रहूं…. अकेले ही क्यूं सहू …..
लेकिन जब..एक अपरिचित सी स्त्री.. मेरे समक्ष कई सवाल करती है तो..
मेरे पास जवाब नहीं होते…
बहस करती हूं…तर्क वितर्क करती हूं….लेकिन वो सब निरर्थक होते है…
मेरी सारी डिग्री कॉलेज के अवार्ड…उस स्त्री के आगे….
बेकार से लगने लगते है और… मैं अपनी सूनी आँखों से
उसे बस घूरती रह जाती हूं…वो बेतहाशा हँसती है मुझ पर…
मेरे बर्दाश्त से बाहर होती है उसकी हंसी…..
फिर मैं पूछती हूं खुद से एक सवाल….
मुझमें तुम बाकी हो ना….
मेरी संवेदना..मेरी ममता..मेरी करूणा..मेरी सहनशीलता..मेरी शक्ति…
जो मुझमें एक स्त्री को…स्त्री बने रहने का…गौरव प्रदान करती है’।
प्रख्यात कथाकार एवं कवि रतन वर्मा ने इस अवसर पर गज़ल प्रस्तुत किया।
‘हमने इक लफ्ज़ कहा और मुस्कुरा वे उठे, लगा कि इश्क़ का पहला सा है पैगाम दिया !
बस ख़यालों में उनके चेहरे को पढ़ने से लगा, ‘ हां ‘ है लब पे उनके, पर डरा रही है हया !
खुशबू-ए इश्क़ का तासीर ही कुछ ऐसा है, किसी को जान मिली, कोई ज़िन्दगी से गया !
अब तो मझधार की मर्ज़ी कि किधर ले जाये, याख़ुदा अब दे हमें बददुआ कि या दे दुआ !
कितनी दुश्वारियों को मोल ले लिया हमने, अब तो जो भी हुआ, जितना जो हुआ, ख़ूब हुआ’ !
कथाकार एवं कवि विजय केसरी ने ‘उम्मीदों के दीप जलाती ‘कविताएं’ शीर्षक कविता का पाठ किया।
‘मन में उम्मीदों के दीप जलाती हैं,कविताएं’।
मन के भाव तत्व का आईना होती हैं, कविताएं।
मन से निकलती हैं और मन तक पहुंचाती हैं, कविताएं।
यही इनकी पंक्तियों की खूबसूरती है तभी कहलाती हैं, कविताएं।
बड़ी सी बड़ी बातों को भी, कम शब्दों में बयां कर जाती हैं, कविताएं।
शोर से शांति की ओर ले जाती हैं, अंतर्मन को रौशन कर जाती हैं, कविताएं।
उम्मीदों की डोर थामी रहती हैं,आशा के दीप जलाती रहती हैं,कविताएं।
ना उम्मीदों को दूर भगाती, नई राह दिखाती हैं, कविताएं।
प्रेमी-प्रेमिकाओं के मन में, प्रेम का दीप जलाती हैं, कविताएं।
दोस्त और दुश्मनी के फर्क को मिटती, दोस्ती का पाठ पढ़ाती हैं, कविताएं।
भूख और भुखमरी की, हाल बताती हैं कविताएं’।
साहित्यकार एवं आलोचक डॉ बलदेव पांडेय ने ‘चीखती लकीरें’ शीर्षक कविता का पाठ किया।
‘लो इन चिथड़े हुए हाथों पर, बासी रोटी और अचार रख दो
घर के जूठे बरतन, गंदे कपड़ों का पहाड़ रख दो
लौटा ले ये फटे कपड़े, जो दिये हैं तुमने हम पे एहसान कर के
बस ! हमारी हथेली पर, हमारे बचपन का प्यार रख दो’।
कथाकार एवं कवि सुबोध सिंह शिवगीत ने ‘कछुआ और खरगोश’ शीर्षक से कविता का पाठ किया।
‘संजोग से/ एक दफा जीता/ फिर खरगोश से
मैं / हारा हुआ /कछुआ /अपने विजेता /दोस्त से
बार बार / हजार बार / करता हूं/ निवेदन
कि इस जनम /बदल सकता/ नहीं अपना तन /अपना मन /अपना जीवन
सो ए मेरे दोस्त/ खरगोश!/ हमें भी साथ साथ ले चलो / लेते चलो/ अपनी पीठ पर
जहां तक/ जमीन सपाट/ है, सरपट है’।
कवि हरेंद्र कुमार ने गजल प्रस्तुत किया।
‘कुछ लोग थे जो ताज से माथे पर चढ़ गए, कुछ लोग थे जो आंख में कांटे से गड़ गए ।
कुछ लोग थे जो धार में मुर्दे से बह गए, कुछ लोग थे जो वक्त से आगे निकल गए।
कुछ लोग थे जो भीड़ में चलते रहे, पीछे कुछ लोग थे जिनके कदम इतिहास बन गए।
कुछ लोग थे जो लीक पर चलते चले गए, कुछ लोग थे जो रास्ते को ही बदल गए।
कुछ लोग थे जो हो गए चुप चाप ही विदा, कुछ लोग थे जो दिल में कितना शोर कर गए’।