प्रत्येक पापी आत्म-शुद्धि से अपने पापों का प्रायश्चित करे न कि आडंबर और अनुष्ठानों से- राजा राम मोहन राय

राजा राममोहन राय ने एकेश्वर वाद के सिद्धांत का अनुमोदन किया, जिसके अनुसार एक ईश्वर ही सृष्टि का निर्माता हैं। इस मत को वेदों और उपनिषदों द्वारा समझाते हुए उन्होंने इनकी संस्कृत भाषा को बंगाली, हिंदी और अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। इनमें राजा राममोहन राय ने समझाया कि एक महाशक्ति हैं जो मानवीय बाह्यज्ञान से बाहर हैं और इस ब्रह्मांड को वो ही चलाते हैं।

प्रत्येक पापी आत्म-शुद्धि से अपने पापों का प्रायश्चित करे न कि आडंबर और अनुष्ठानों से- राजा राम मोहन राय

पुण्यतिथि पर विशेष :

आज भारतीय समाज में फैली कुरीतियों के परिष्कारक और ब्रह्म समाज के संस्थापक के रूप में निर्विवाद रूप से प्रतिष्ठित महापुरुष राजा राममोहन राय की पुण्यतिथि है। हम जिस युग में जी रहे हैं उसकी कल्पना इन महापुरुषों के बिना अधूरी है। राममोहन राय अपनी विलक्षण प्रतिभा से सिर्फ सती प्रथा का अंत कराने वाले महान समाज सुधारक ही नहीं, बल्कि एक महान दार्शनिक और विद्वान भी थे।

राजा राममोहन राय का जन्म 22 मई, 1772 को एक बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम रमाकांत राय तथा माता तारिणी देवी थी। बचपन से ही राममोहन ईश्वर में विश्वास रखने वाले लेकिन समाज में फैले कुरीतियों की वजह से मूर्ति पूजा के विरोधी थे। राममोहन राय ने प्रारम्भिक शिक्षा संस्कृत और बंगाली भाषा में गाँव के स्कूल से ही की थी । कम उम्र में ही वह सन्यास लेना चाहते थे, लेकिन परंपराओं में विश्वास करने वाले उनके पिता रमाकांत चाहते थे कि उनका पुत्र उच्च शिक्षा हासिल करे। इसलिए कम उम्र में ही राममोहन राय को पटना के मदरसे में भेज दिया गया, जहाँ उन्होंने अरबी और फ़ारसी भाषा सीखी।

राजा राममोहन राय की विद्वता का अनुमान इस बात से ही लगाया जा सकता है कि 15 वर्ष की उम्र तक उन्होंने बंगला, फ़ारसी, अरबी और संस्कृत जैसी भाषाएँ सीख ली थी। 22 की उम्र में अंग्रेज़ी भाषा सीखी थी, जबकि संस्कृत के लिए वो काशी तक गए थे, जहाँ उन्होंने वेदों, उपनिषदों और हिन्दू दर्शन शास्त्र का अध्ययन किया। उन्होंने अपने जीवन में बाइबिल के साथ ही कुरान और अन्य इस्लामिक ग्रन्थों का अध्ययन भी किया।

राजा राममोहन राय हिन्दू पूजा और परम्पराओं के खिलाफ थे। उन्होंने समाज में फैले कुरीतियों और अंध्-विश्वासों का पूरजोर विरोध किया था। लेकिन उनके पिता एक पारम्परिक और कट्टर वैष्णव ब्राह्मण धर्म का पालन करने वाले थे। राजा राममोहन राय के परम्परा विरोधी पथ पर चलने और धार्मिक मान्यताओं के विरोध करने के कारण उनके और उनके पिता के बीच में मतभेद रहने लगे। और एक दिन वे अपना घर छोड़कर हिमालय और तिब्बत की तरफ चले गए। बहुत भ्रमण किया और देश दुनिया के साथ सत्य को भी जाना-समझा। इससे उनकी धर्म के प्रति जिज्ञासा और बढ़ने लगी लेकिन जब उनके पिता का देहांत हुआ तो 1803 में वो घर लौट आए।

1803 में राजा राममोहन राय ने हिन्दू धर्म और इसमें शामिल विभिन्न मतों में अंध-विश्वासों पर अपनी राय रखी। उन्होंने एकेश्वर वाद के सिद्धांत का अनुमोदन किया, जिसके अनुसार एक ईश्वर ही सृष्टि का निर्माता हैं। इस मत को वेदों और उपनिषदों द्वारा समझाते हुए उन्होंने इनकी संस्कृत भाषा को बंगाली, हिंदी और अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। इनमें राजा राममोहन राय ने समझाया कि एक महाशक्ति हैं जो मानवीय बाह्यज्ञान से बाहर हैं और इस ब्रह्मांड को वो ही चलाते हैं।

मूर्ति पूजा के विरोधी

1814 में राजा राम मोहन राय ने समाज में सामाजिक और धार्मिक मुद्दों पर पुन: विचार कर परिवर्तन करने के उद्देश्य से आत्मीय सभा की स्थापना की। राजा राममोहन राय ने मूर्ति पूजा का भी  खुलकर विरोध किया,और एकेश्वरवाद के पक्ष में अपने तर्क रखे। उन्होंने “ट्रिनीटेरिएस्म” का भी विरोध किया जो कि क्रिश्चयन मान्यता हैं। इसके अनुसार भगवान तीन व्यक्तियों में ही मिलता हैं गॉड, सन(पुत्र) जीसस और होली स्पिरिट। उन्होंने विभिन्न धर्मों के पूजा के तरीकों और बहुदेव वाद का भी विरोध किया। वो एक ही भगवान हैं इस बात के पक्षधर थे। उन्होंने लोगों को अपनी तर्क शक्ति और विवेक को विकसित करने का सुझाव दिया। इस सन्दर्भ में उन्होंने इन शब्दों से अपना पक्ष रखा-“मैंने पूरे देश के दूरस्थ इलाकों का भ्रमण किया है और मैंने देखा कि सभी लोग ये विश्वास करते हैं कि एक ही भगवान हैं जिससे दुनिया चलती है”। इसके बाद उन्होंने आत्मीय सभा बनाई जिसमें उन्होंने धर्म और दर्शन-शास्त्र पर विद्वानों से चर्चा की।

1815 में राजा राममोहन राय शिक्षा के क्षेत्र में काम करने के लिए कलकत्ता आए थे। उनका मानना था कि भारतीय यदि गणित, जियोग्राफी और लैटिन नही पढेंगे तो पीछे रह जायेंगे। सरकार ने राम मोहन का विचार स्वीकार कर लिया लेकिन उनकी मृत्यु तक इसे लागू नहीं किया।

1822 में उन्होंने इंग्लिश मीडियम स्कूल की स्थापना की। उनका मानना था की इंग्लिश भाषा भारतीय भाषाओं से ज्यादा समृद्ध और उन्नत हैं और उन्होंने सरकारी स्कूलों को संस्कृत के लिए मिलने वाले सरकारी फण्ड का भी विरोध किया। राजा राममोहन राय ने इंग्लिश स्कूलों की स्थापना के साथ ही कलकता में हिन्दू कॉलेज की स्थापना भी की, जो कालान्तर में देश का सर्वोत्तम शैक्षिक संस्थान बन गया। राजा राममोहन राय ने विज्ञान के विषय जैसे फिजिक्स, केमिस्ट्री और वनस्पति शास्त्र को प्रोत्साहान दिया। वो चाहते थे कि देश का युवा और बच्चे नयी से नयी तकनीक की जानकारी हासिल करे , इसके लिए यदि स्कूल में अंग्रेज़ी भी पढ़ना पड़े तो ये बेहतर हैं। उन्होंने जहाँ फिजिक्स, मैथ्स, बॉटनी, फिलोसफी जैसे विषयों को पढ़ने को कहा वहीं वेदों और उपनिषदों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता बताई। उन्होंने लार्ड मेक्ले का भी सपोर्ट किया जो कि भारत की शिक्षा व्यवस्था बदलकर इसमें अंग्रेज़ी को डालने वाले व्यक्ति थे। उनका उद्देश्य भारत को प्रगति की राह पर ले जाना था। हालांकि वो 1835 तक भारत में प्रचलन में आई इंग्लिश के एजुकेशन सिस्टम को देखने के लिए जीवित नहीं रहे, लेकिन इस बात को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता कि इस दिशा में कोई सकारात्मक कदम उठाने वाले पहले विचारकों में से वो भी एक थे।

1828 में राजा राम मोहन राय ने ब्रह्म समाज की स्थापना की। इसका मुख्य उद्देश्य समाज में फैली धर्मांधता और समाज में क्रिश्चेनिटी के बढ़ते प्रभाव को रोकना था।

1829 में राजा राम मोहन राय के सती प्रथा के विरोध में चलाये जाने वाले अभियान को देखते हुए सती प्रथा पर रोक लगा दी गई। भारत में उस समय सती प्रथा का प्रचलन था। ऐसे में राजा राम मोहन के अथक प्रयासों से गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बेंटिक ने इस प्रथा को रोकने में राम मोहन की सहायता की। उन्होंने ही बंगाल सती रेगुलेशन या रेगुलेशन 17 ईस्वी 1829 के बंगाल कोड को पास किया, जिसके अनुसार बंगाल में सती प्रथा को क़ानूनी अपराध घोषित किया गया।

क्या थी सती प्रथा

इस प्रथा के अंतर्गत किसी महिला के पति की मृत्यु हो जाने के बाद महिला भी उसकी चिता में बैठकर जल जाती थी। पति की चिता में बैठकर मरने वाली महिला को सती कहा जाता था। इस प्रथा का उद्भव देश के अलग-अलग-हिस्सों में विभिन्न कारणों से हुआ था , लेकिन 18 वीं शताब्दी में इस प्रथा ने जोर पकड़ लिया था। इस प्रथा को ब्राह्मण और अन्य सवर्णों ने प्रोत्साहन दिया था। राजा राममोहन राय इसके विरोध में इंग्लैंड तक गए और उन्होंने इस परम्परा के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में गवाही भी दी थी।सती प्रथा के विरोध के साथ ही उन्होंने विधवा विवाह के पक्ष में भी अपनी आवाज़ उठाई। उन्होंने ये भी कहा कि बालिकाओं को भी बालकों के समान ही अधिकार मिलने चाहिए। उन्होंने इसके लिए ब्रिटिश सरकार को भी मौजूदा कानून में परिवर्तन करने को कहा। वो महिला शिक्षा के भी पक्षधर थे, इसलिए उन्होंने महिलाओं को स्वतंत्र रूप से विचार करने और अपने अधिकारों की रक्षा करने हेतु प्रेरित किया।

जातिवाद के विरोधी

भारतीय समाज का जातिगत वर्गीकरण उस समय तक पूरी तरह से बिगड़ चूका था। ये कर्म-आधारित ना होकर वर्ण-आधारित हो चला था। लेकिन राजा राममोहन राय का नाम उन समाज-प्रवर्तकों में शामिल हैं जिन्होंने जातिवाद के कारण उपजी असमानता का विरोध करने की शुरुआत की। उन्होंने कहा कि हर कोई परम पिता परमेश्वर का पुत्र या पुत्री है। ऐसे में समाज में घृणा और शत्रुता का कोई स्थान नहीं है सबको समान हक मिलना चाहिए।

भारतीय पत्रकारिता में योगदान

भारत की पत्रकारिता में उन्होंने बहुत योगदान दिया और वो अपने सम्पादकीय में मुख्यतः देश की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और अन्य समस्याओं पर ही लिखा करते थे। जिससे जनता में जागरूकता आने लगी। उनका लेखन लोगों पर गहरा प्रभाव डालता था। वो अपने विचार बंगाली और हिंदी के समान ही इंग्लिश में भी तीक्ष्णता से रखते थे। जिससे उनकी बात सिर्फ आम जनता तक ही नहीं बल्कि तब के प्रबुद्ध और अंग्रेजी हुकुमत तक भी पहुँच जाती थी। 

उनके लेखन की प्रशंसा करते हुए रॉबर्ट रिचर्ड्स ने लिखा “राममोहन का लेखन ऐसा है जो उन्हें अमर कर देगा, और भविष्य की जेनेरेशन को ये हमेशा अचम्भित करेगा कि एक ब्राह्मण जो ब्रिटेन मूल का ना होते हुए भी इतनी अच्छी इंग्लिश में कैसे लिख सकते हैं”

अंतरराष्ट्रीयवाद के पक्षधर

रविन्द्र नाथ टैगो ने भी ये कमेंट किया था कि ”राममोहन ही वो व्यक्ति हैं जो कि आधुनिक युग को समझ सकते हैं। वो जानते थे कि आदर्श समाज की स्थापना स्वतन्त्रता को खत्म कर किसी का शोषण करने से नहीं की जा सकती बल्कि भाईचारे के साथ रहकर एक दुसरे के स्वतन्त्रता की रक्षा करने से ही एक समृद्ध और आदर्श समाज का निर्माण होगा”। वास्तव में राममोहन युनिवर्सल धर्म, मानव सभ्यता के विकास और आधुनिक युग में समानता के पक्षधर थे।

राजा राममोहन राय द्वारा रचित किताबें

1816 में इशोपनिषद,

1817 में कठोपनिषद,

1819 में मूंडुक उपनिषद के अनुवाद तथा “गाइड टू पीस एंड हैप्पीनेस”

1828 में ब्राह्मापोसना

1829 में ब्रहामसंगीत

1829 में दी युनिवर्सल रिलिजन

राजा राममोहन राय को दिल्ली के मुगल साम्राज्य द्वारा “राजा” की उपाधि दी गयी थी। 1829 में दिल्ली के राजा अकबर द्वितीय ने उन्हें ये उपाधि दी थी।

27 सितम्बर 1833 को ब्रिस्टल के पास ब्रह्म समाज तथा आत्मीय सभा के संस्थापक तथा आजीवन रूढि़वादी रिवाजों को दूर करने के लिए प्रयासरत इस महान समाज सुधारक एवं दार्शनिक महापुरुष का स्टाप्लेटोन में मेनिंजाईटिस नामक बीमारी के कारण देहांत हो गया। महिला जागृति एवं सशक्तीकरण के उनके प्रयास आज भी सराहे जाते हैं।