श्रवण कुमार गोस्वामी की कृतियां सदा प्रेरित करती रहेंगी

(12 अप्रैल, हिन्दी के जाने-माने साहित्यकार श्रवण कुमार गोस्वामी की पांचवीं पुण्यतिथि पर विशेष)

श्रवण कुमार गोस्वामी की कृतियां सदा प्रेरित करती रहेंगी

झारखंड के लब्ध प्रतिष्ठित हिंदी के साहित्यकार, उपन्यासकार, कथाकार, आलोचक श्रवण कुमार गोस्वामी का संपूर्ण जीवन हिंदी साहित्य को समर्पित रहा । वे सहज, सरल, प्रकृति के व्यक्ति थे। वे किसी भी बात को पूरी गंभीरता के साथ कहा करते थे । वे ऊंची आवाज में  कभी भी किसी से बात नहीं करते थे। वे  धीरे -धीरे ही बोला करते थे। वे विषम परिस्थितियों में भी सहज रहा करते थे। उनका यह स्वभाव जीवन पर्यंत बना रहा था। उनकी वाणी में मिठास और अपनत्व की झलक बराबर दिखती थी। उनका जन्म 22 नवंबर सन् 1936 को रांची में हुआ था। 11 अप्रैल 2020 को उन्होंने सदा सदा के लिए अपनी आंखें मूंद ली थी। इस धरा पर वे लगभग 84 वर्षों तक रहे थे। साहित्य सृजन के प्रति उनमें बचपन से ही रुचि थी। उन्होंने हिंदी में एम.ए और पीएचडी किया था। वे रांची विश्वविद्यालय, हिंदी विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए थे। सेवानिवृत्ति के बाद उनके साहित्य सृजन में कोई कमी नहीं आई बल्कि वे और गतिशील होते गए थे ।उनसे मैं कई बार मिला चुका था । उनकी हर मुलाकातों से कुछ न कुछ नयी जानकारी और कुछ सीखने को जरूर मिलता था। वे एक जिंदादिल व्यक्ति थे। जिन मूल्यों को उन्होंने अपनी रचनाओं में स्थापित किया था। वे सदा उन मूल्यों पर भी चलते रहे थे ।उन्होंने बारह उपन्यासों सहित हिंदी साहित्य के विभिन्न विधाओं पर जमकर काम किया था।
गोस्वामी जी सदा हिंदी के प्रचार प्रसार में जुटे रहे थे। इसीलिए भारत सरकार के इस्पात और गृह मंत्रालय ने उन्हें हिंदी सलाहकार समिति के सदस्य के रूप मे मनोनीत कर सम्मान प्रदान किया  था । इस पद पर रहकर उन्होंने हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए कई महत्वपूर्ण कामों को मंजिल तक पहुंचाया था। साहित्य के काम से ही गोस्वामी जी की सुबह की शुरुआत होती और देर रात्रि तक चलती थी। सुबह से ही लोगों का उनके घर में आना -जाना होता था । उनमें कई विद्यार्थी होते थे। कई नए लेखक होते थे। कुछ ऐसे लेखक और शोद्यार्थी भी होते थे जो गोस्वामी जी की रचनाओं पर शोध कर रहे होते थे । वे सबों को बड़े ही आदर के साथ बैठाते थे  वे सभी को चाय, बिस्कुट, मिक्चर ,मीठा नाश्ता  जरूर कराते थे । वे खुद तो रसगुल्ला  नहीं खाते थे । लेकिन घर आए अतिथियों को रसगुल्ला खिलाना ना भूलते थे। उन्हें लोगों को रसगुल्ला खिलाने में एक विशेष प्रकार का आनंद महसूस होता था। यह आनंद उनके चेहरे पर साफ झलकता था।
 एक बार मैं, साहित्यकार स्वर्गीय भारत यायावर और कथाकार रतन वर्मा के साथ गोस्वामी जी के घर गया था। उन्होंने हम तीनों जनों का स्वागत  बड़े-बड़े रसगुल्लों से किया था। वे खुद तो रसगुल्ला खाए नहीं लेकिन हम लोगों को बहुत ही मन से खिलाए। उनके साथ बिताया वह पल हमेशा हम तीनों के मानस पटल पर अमिट रहेगा ।वे अपनी स्मृतियों के पट को खोल कर कई ऐसी बातें बताई थी, जो सदा सदा के लिए मानस पटल पर अंकित हो गया था। इस दरमियान उनके पास कई फोन आए थे। उन्होंने सब कॉल को अटेंड किया था। उन्होंने फोन पर साफ शब्दों में कहा था कि मेरे यहां कुछ साहित्यकार आए हुए हैं। उनसे बातचीत समाप्त कर आपको फोन करता हूं। गोस्वामी जी की यह स्टाइल हम तीनों लोगों को बहुत पसंद आया था।

गोस्वामी जी की हिंदी साहित्य के प्रचार प्रसार के लिए यात्राएं भी खूब किया करते थे। वे  देश भर में जाते थे।  वे कहीं  बुलावा आने पर जाते थे । इसी क्रम में मैंने भी 2004 में गोस्वामी जी को साहित्यिक संस्था परिवेश के तत्वाधान में होने वाले लोकार्पण समारोह में आमंत्रण दिया था। स्वर्गीय डॉ. हीरालाल साह का उपन्यास 'प्रखंड जीवन और डॉक्टर' का लोकार्पण होना था । इस लोकार्पण समारोह में श्रवण कुमार गोस्वामी जी मुख्य अतिथि के रुप में सम्मिलित हुए थे । अध्यक्षता स्वर्गीय भारत यायावर और विशिष्ट अतिथि के रूप में रतन वर्मा सम्मिलित हुए थे। इसके अलावा हजारीबाग जिला सहित आसपास के क्षेत्र के भी साहित्यकार काफी संख्या में जुटे थे । आज से पूर्व इतनी संख्या में साहित्यकारों का इस तरह जुटना नहीं हुआ था। यह अपने आप में एक बड़ी बात थी। श्रवण कुमार गोस्वामी के नाम पर ही इतनी संख्या में साहित्यकार जुटे थे। उस सभा को याद कर आज भी साहित्यकारगण रोमांचित हो उठते हैं। उस महती सभा में नये लेखकों के लिए श्रवण कुमार गोस्वामी ने कहा था कि 'रचनाकार रचने से पूर्व विषय वस्तु को भलीभांति समझ लें। उनकी गहराई में जाएं। अध्ययन करें। तभी उसकी रचना में गहराई और रस उत्पन्न हो सकती है। सिर्फ कई पन्ने लिख देने और पत्र-पत्रिकाओं में छप जाने से ही कोई रचनाकार नहीं बन जाता है। आपकी रचना कितने लोगों के मर्म को छू पाई है। कितने लोगों की संवेदना जगा पाई है। कितने लोगों को फिर से उठ खड़े होने की प्रेरणा देती है"। उपरोक्त बातें आज भी याद कर रचनाकार प्रेरणा प्राप्त करते रहते हैं।

श्रवण कुमार गोस्वामी जी की कृतियां सदा समय से संवाद करती रह ही हैं। उनके जीवन का हर लम्हा हिंदी साहित्य को समर्पित रहा था। वे हमेशा लिखते पढ़ते ही रहे रहते थे। बीच में एक बार उनकी तबीयत ज्यादा खराब हो गई थी।  उन्हें स्मृति लोप हो गया था। चिकित्सकों की दवा से वे ठीक भी हो गए थे। डॉक्टर ने उन्हें ज्यादा लिखने और पढ़ने से मना कर दिया था। जैसे-जैसे वे स्मृति लोप से उभरे, फिर से साहित्य सृजन में जुटे गए थे। मृत्यु से पूर्व तक वे गतिशील बने रहे थे । वे बीमार तो रहते ही थे। यह बीमारी तो उम्र की ही बीमारी थी। अब वे हमारे बीच नहीं है। उनकी कृतियां सदा हम लोगों को प्रेरित करती रहेंगीं। उन्होंने हिंदी साहित्य के क्षेत्र में जो सृजन किया । उन सबों का विपुल भंडार है। उनकी कृतियां, (उपन्यास) 'जंगल तंत्रम', 'सेतु', 'भारत बनाम इंडिया', 'दर्पण', 'मेरे मरने के बाद', 'चक्रव्यू', 'एक टुकड़ा सच', 'आदमखोर' 'केंद्र की परिधि',  'कहानी एक नेताजी की', (शोध और आलोचना) 'नागपुरी और उसके वृहत वय', 'नागपुरी शिष्ट साहित्य', 'नागपुरी भाषा', 'राधाकृष्ण', (नाटक), 'कल दिल्ली की बारी है' 'समय', सहित दर्जनों किताबें हैं, जो हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं पर लिखी गई है। 1981 में 'जंगल तंत्रम' उपन्यास के लिए उन्हें 'राधा कृष्ण पुरस्कार', 1984 में 'राहु केतु', उपन्यास के लिए 'प्रेमचंद अनुशंसा पुरस्कार', 1995 में रामचरित्मानस (मुंडारी अनुवाद) के लिए 'मानस संगम साहित्य पुरस्कार', 1996 में कथा लेखन के लिए 'साहित्य सेवा सम्मान' से अलंकृत किया गया था। इन पुरस्कारों के अलावा भी कई पुरस्कार गोस्वामी जी के नाम दर्ज हैं।