चौथा खंभा बस नाम का, कुछ तो करो सरकार

राज्य के डेढ़ दर्जन से अधिक पत्रकार असमय कोविड के गाल में समा चुके हैं और अनेक पत्रकार या तो होम आइसोलेशन में या अस्पतालों में कोविड का इलाज करा रहे हैं।

चौथा खंभा बस नाम का, कुछ तो करो सरकार

श्याम किशोर चौबे की कलम से

सुनने में बहुत अच्छा लगता है चौथा खंभा। यानी प्रजातांत्रिक प्रणाली में देश का भार उठानेवाले चार खंभों में से एक यानी पत्रकारिता। चकाचौंध ऐसी कि इससे जुड़ने के लिए युवा वर्ग दीवाना हुआ जाए। दिल्ली जैसी कुछ जगहों पर कुछ लोगों का भाव वास्तव में चढ़ा हुआ है । लेकिन ग्रामीण इलाकों अथवा कस्बाई क्षेत्रों की कौन कहे? रांची जैसे स्थानों पर भी इससे जुड़े लोगों की हालत खस्ता है । मीडिया संस्थानों सहित समाज के लोग पीठ ठोंकने में पीछे नहीं हैं , लेकिन पत्रकारों की माली हालत निम्न मध्यमवर्गीय भी नहीं। इसके बावजूद गलियों की खाक छानने में पत्रकार पीछे नहीं रहते। घर-परिवार तक की चिंता नहीं। चिंता करके भी क्या कर लेंगे? टेंट तो हमेशा खाली ही रहती है!

फ्रंटलाइन कोरोना वारियर्स के नाम पत्रकारों का वैक्सीनेशन ही काफी नहीं, बलिदानियों का भी करें ख्याल :
इन्हीं परिस्थितियों से जूझते हुए कोविड ग्रस्त होकर झारखंड जैसे छोटे से राज्य के 18 से अधिक पत्रकारों ने अपनी जान गवां दी। सरकार की ओर से बेशक उनको श्रद्धांजलि दी गई। यह श्रद्धांजलि आम लोगों को नसीब नहीं होती। सवाल यह है कि मृत पत्रकारों के परिवार , क्या सरकार की महज श्रद्धांजलि से अपना वर्तमान और भविष्य जी लेंगे? नहीं और कतई नहीं। जैसा कि सरकारी सेवकों या लोक उपक्रमों या कुछ हद तक मल्टीनेशनल कंपनियों में होता है, मीडिया जगत में बलिदानी पत्रकारों के परिवार के लिए कोई व्यवस्था नहीं होती। जो मीडिया घराने मोटी कमाई के बावजूद सरकार द्वारा गठित, अनुशंसित
और अदालत द्वारा मंजूर वेज बोर्ड का फैसला तक नहीं मानते, उनसे मृत पत्रकारों के लिए बेहतर सहायता या मुआवजे की उम्मीद करना ही बेमानी है! संविधान ने भले ही मान्यता न दी हो लेकिन जुबानी जमाखर्च ही सही, जिस चौथे खंभे के विशेषण से मीडिया जगत को नवाजा गया है, उसका प्रताप यह कि मीडिया घराने चाहे जो मनमानी कर लें, शासन-प्रशासन उसकी खैर-खबर लेनेवाला नहीं।

गतालखाते में पड़ी पूर्ववर्ती रघुवर सरकार की ‘पत्रकार सम्मान योजना’ में आवश्यक संशोधन भी जरूरी:
फर्ज करिये कि कोई पत्रकार अपने बेशकीमती 30 या उससे अधिक अथवा कुछ कम
वर्ष इस ‘समाज सेवा’ में बीता देता है और संबंधित मीडिया हाउस मेहरबानी कर उसको अपना नियमित कर्मी बना देता है , तो भी 58 वर्ष की उम्र में सेवानिवृत्ति के पश्चात उसको दो-ढाई हजार रुपये मासिक पेंशन से अधिक नहीं मिलनेवाली। संभवतः इन्हीं परिस्थितियों को देखकर देश की कतिपय राज्य सरकारों ने ‘पत्रकार सम्मान राशि’ के नाम पर पांच से दस-पन्द्रह हजार रुपये मासिक पेंशन की स्वीकृति दे रखी है। काफी मशक्कत और पैरवी-सिफारिश के बाद पिछली रघुवर सरकार ने इस योजना को मंजूरी दी थी । लेकिन बाबुओं ने उस नीति का ऐसा जलेबी बनाया कि पिछले लगभग दो साल में उससे एक भी पत्रकार लाभान्वित न हो सका। कैबिनेट के माध्यम से पारित यह नीति लगभग दो वर्षों में भी लागू न हो पाई । लेकिन सरकार ने इसकी कतई परवाह नहीं की! है न आश्चर्य की बात! रघुवर सरकार ने पत्रकारों के लिए राजधानी रांची में बेशक शानदार प्रेस क्लब बनवा दिया ।लेकिन पेंशन नीति को अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में जलेबी रूप में मंजूरी दी। जिसके प्रावधानों ने सारी उम्मीदों का गला घोंट दिया। वर्तमान हेमंत सरकार को इस संदर्भ में पत्रकारों ने रिप्रेजेंटेशन देकर नीति में आवश्यक संशोधन की मांग की। जिस पर आज की तारीख तक कलम नहीं चल सकी है।

अब, जबकि राज्य के डेढ़ दर्जन से अधिक पत्रकार असमय कोविड के गाल में समा
चुके हैं और अनेक पत्रकार या तो होम आइसोलेशन में या अस्पतालों में कोविड
का इलाज करा रहे हैं, पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास और राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके वर्तमान में भाजपा के घोषित नेता ,(विधायक दल) बाबूलाल मरांडी ने मृत पत्रकारों के परिवार को 5-10 लाख रुपये की आर्थिक सहायता देते हुए पेंशन की भी व्यवस्था करने की मांग की है। सत्ता की पार्टनर कांग्रेस ने भी कुछ ऐसी ही वकालत की है। सरकार क्या कोई सकारात्मक कदम उठाएगी? उम्मीद तो की ही जानी चाहिए। यूं, सरकार ने सहृदयतापूर्वक विचार करते हुए पत्रकारों को ‘अर्द्ध फ्रंटलाइन वारियर’ मानकर कोविड वैक्सीन प्राथमिकता के आधार पर लगाने का आदेश हाल ही में जारी किया है। लेकिन पत्रकारों के समक्ष विद्यमान विकट समस्या का समाधान केवल वैक्सीनेशन ही नहीं है।

सेवारत पत्रकारों के असमय देहांत की स्थिति में पिछली सरकार ने अपने नीतिगत फैसले के तहत कई पीड़ित परिवारों को पांच लाख रुपये की एकमुश्त सहायता दी थी। वह नीति अभी भी कायम है, जबकि यह कोविड काल अत्यंत विषम और उतनी ही विकट परिस्थिति है। सरकार को अपनी सद्भावना का दायरा बढ़ाने का यह काल है।

पत्रकारों के एक वर्ग द्वारा एक विचारणीय सुझाव आया है, जिसके तहत सरकार
से ‘पत्रकार प्रोत्साहन मद’ के गठन की बात कही गई है। सुझाव में यह भी कहा गया है कि प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और वेब मीडिया को सरकार द्वारा दिए जा रहे विज्ञापन के एवज में भुगतान का एक अंश काटकर इस मद में जमा करते हुए इसे समृद्ध बनाया जा सकता है। सरकार चाहे तो खुद भी इसमें अंशदान कर इसे और मजबूत और उपयोगी  बना सकती है। इसका सदुपयोग जरूरतमंद पत्रकारों की सहायता के लिए किया जा सकता है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने अपने लगभग डेढ़ साल के वर्तमान कार्यकाल में गंभीर बीमार अनेक पत्रकारों को आर्थिक सहायता पहुँचाई है। प्रायः सात साल पहले डेढ़ वर्ष के अपने प्रथम मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल में इन्हीं हेमंत सोरेन ने सेवारत पत्रकारों के लिए पारिवारिक बीमा की व्यवस्था कर अच्छी पहल की थी। जो बाद के वर्षों में गतालखाते में चली गई। ऐसी स्थिति में उम्मीद की जानी चाहिए कि कोविड का असमय ग्रास बने पत्रकारों के पीड़ित परिवारों की सहायता के लिए तो वे वर्तमान में समुचित और सुविचारित कदम उठाएंगे ही।सेवानिवृत पत्रकारों की पेंशन के लिए पूर्ववर्ती सरकार द्वारा बनाई गई ‘पत्रकार सम्मान योजना’ नीति में आवश्यक संशोधन कर उसे सर्वमान्य ऐसा स्वरूप देंगे, जिससे घर बैठे अधिक से अधिक बुजुर्ग पत्रकारों का जीवन अपेक्षाकृत आसान हो सके। मुंहजबानी चौथा खंभा कह देने मात्र से पत्रकारों की विकट आर्थिक समस्याओं का समाधान संभव नहीं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)