भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के बलिदान सदैव देशवासियों को प्रेरित करता रहेगा 

(23 मार्च, भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के शहीदी दिवस पर विशेष)

भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के बलिदान सदैव देशवासियों को प्रेरित करता रहेगा 

भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के अप्रतिम योद्धा सरदार भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव थापर की शहादत सदा देशवासियों को प्रेरित करती रहेगी।  जिस बालपन उम्र में इन तीनों योद्धाओं ने अपनी शहादत दी थी, सदैव युवाओं को देशभक्ति के प्रति जागरूक करती रहेगी। इन तीनों के साहस भरे कारनामे से ब्रिटिश हुकूमत की नींव हिल गई थी । ब्रिटेन में ब्रिटिश हुकूमत के आका यह समझ चुके थे कि अब भारत पर और ज्यादा दिनों तक शासन करना मुश्किल है। इन तीनों ने जो स्वाधीनता आंदोलन के दौरान काम और अदम्य साहस का परिचय दिया, इसकी चर्चा आज भी देशवासियों के बीच होती रहती है । 
    सरदार भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की शहादत के बाद स्वाधीनता आंदोलन की और हो गई थी। ये तीनों भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के ऐसे नायक रहे, जो गरम दल से ताल्लुक रखते थे। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन तब दो भागों में बंट चुका था। गरम दल और नरम दल दोनों अपने-अपने स्तर से भारत की आजादी के लिए संघर्ष कर रहे थे।  महात्मा गांधी के नेतृत्व में देशभर में जो अहिंसात्मक चलाया जा रहा था, उस आंदोलन को नरम दल के रूप में जाना गया। वहीं भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु जैसे कई  युवा नेताओं द्वारा आंदोलन चलाए जा रहे थे, इस  आंदोलन को गरम दल आंदोलन के नाम से जाना गया। इन दोनों नरम दल और गरम दल  में सम्मिलित वीर योद्धाओं का एक ही उद्देश्य था कि भारत माता को ब्रिटिश हुकूमत के शासन से मुक्ति दिलाना ।
   महात्मा गांधी अहिंसक आंदोलन को भारत की आजादी के लिए सर्वोत्तम माना था । वहीं भगत सिंह,राजगुरु और सुखदेव थापर आदि गरम दल के योद्धाओं ने महात्मा गांधी के अहिंसात्मक आंदोलन को खारिज कर दिया था। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु जैसे योद्धाओं ने महात्मा गांधी के अहिंसात्मक आंदोलन का कभी विरोध नहीं किया बल्कि सराहना की थी । लेकिन सरदार भगत सिंह, सुखदेव थापर और राजगुरु जैसे गरम दल के वीर युवा योद्धाओं को अहिंसात्मक आंदोलन के अगुआ महात्मा गांधी का नैतिक समर्थन नहीं मिला। यह बात आज भी देशवासियों को विचलित कर देता है कि जिसने अपना सब कुछ त्याग कर देश की आजादी के लिए समर्पित कर दिया था, वैसे वीर योद्धाओं को महात्मा गांधी का समर्थन नहीं  मिला। यह भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का सबसे काला अध्याय यह है कि अगर भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के विरुद्ध ब्रिटिश हुकूमत ने जो राजद्रोह का मुकदमा दर्ज कर  मुकदमा चलाया था। इसी मुकदमा के आधार पर तीनों को फांसी की सजा सुनाई गई थी।  अगर महात्मा गांधी के नेतृत्व में उन तीनों के मुकदमा पर न्यायालय में पैरवी की जाती तो शायद इन तीनों की फांसी पर रोक लग जाती। लेकिन नरम दल के नेताओं ने सरदार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के मुकदमा की पैरवी क्यों नहीं की ? आज भी सवाल अनुत्तरित है। बाद के  कालखंड में देश को आजादी जरूर मिल गई थी। लेकिन  दो खंडों में बंटे भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के गररम दल के सच्चे सपूतों के बलिदान को कभी भी विस्मृत नहीं किया जा सकता। 
  भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव भारत के सच्चे सपूत थे । सच्चे नायक थे।  उनके इतिहास को एक साजिश के तहत कमतर करने की जरूर कोशिश की गई, लेकिन उनके बलिदान आज भी हर देशवासियों की जुबान पर है।  भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने अपनी देशभक्ति और देशप्रेम को अपने प्राणों से भी अधिक महत्व दिया था ।  इसलिए तीनों ने  हंसते हुए मातृभूमि की  रक्षा के लिए प्राण न्यौछावर कर दिया था। । 23 मार्च यानि, देश के लिए लड़ते हुए अपने प्राणों को हंसते-हंसते न्यौछावर करने वाले तीन वीर सपूतों का शहीद दिवस। यह दिवस न केवल देश के प्रति सम्मान और हिंदुस्तानी होने वा गौरव का अनुभव कराता है, बल्कि वीर सपूतों के बलिदान को भीगे मन से श्रृद्धांजलि देता है।
  आज जब भी अमर क्रांतिकारियों के बारे में चर्चा की जाएगी, इस चर्चा में सरदार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का नाम सबसे ऊपर शामिल होगा। उन सबों की  शहादत, अदम्य साहस और उज्ज्वल चरित्र को सदा याद किया जाएगा ।  ऐसे मानव भी इस दुनिया में हुए हैं, जिन सबों की शहादत किंवदंती नहीं बल्कि जीवन का यथार्थ साबित हुआ। सरदार भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने अपने अति संक्षिप्त जीवन में जो वैचारिक क्रांति की जो मशाल जलाई थी, आज भी  इंकलाब का यह  मशाल  आज भी असंख्य लोगों के हाथों में दिखाई दे रहे हैं। बम फेंकने के बाद भगतसिंह द्वारा फेंके गए पर्चों में यह लिखा था। 'आदमी को मारा जा सकता है उसके विचार को नहीं। बड़े साम्राज्यों का पतन हो जाता है लेकिन विचार हमेशा जीवित रहते हैं और बहरे हो चुके लोगों को सुनाने के लिए ऊंची आवाज जरूरी है।' इन पंक्तियों के माध्यम से सरदार भगत सिंह ने एक बहुत बड़ी बात कहने की कोशिश की थी।  लंबे समय से भारत गुलाम रहा था।  मुट्ठी भर अंग्रेज अफसरों द्वारा भारत पर शासन किया जाना, इस बात का परिचायक था कि अंग्रेज भारतीयों की चुप्पी को कमजोरी मान लिए थे। वे इस  ही अपनी ताकत समझते थे। इसलिए जरूरी है कि समस्त हिंदुस्तानी गर्व के साथ  खड़े हो कर कहे  कि हम सब भारतीय एक हैं। किसी भी मायने में अंग्रेजी हुकूमत से कमतर नहीं है। बल्कि उसे श्रेष्ठ हैं।  हम सब अंग्रेज़ो की गुलामी मानने के लिए तैयार नहीं है । तुम्हारी दास्तां मानने के लिए तैयार नहीं है।  हम तुमसे लड़ने के लिए तैयार हैं। मेरी आवाज का गर्जना  तुम सबों ज्यादा  हैं।
  भगतसिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून-खराबा न हो तथा अंग्रेजों तक उनकी आवाज पहुंचे। निर्धारित योजना के अनुसार भगतसिंह तथा बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को केंद्रीय असेम्बली में एक खाली स्थान पर बम फेंका था। इसके बाद उन्होंने स्वयं गिरफ्तारी देकर अपना संदेश दुनिया के सामने रखा। उनकी गिरफ्तारी के बाद उन पर एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जेपी साण्डर्स की हत्या में भी शामिल होने के कारण देशद्रोह और हत्या का मुकदमा चला। यह मुकदमा भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में लाहौर षड्यंत्र के नाम से जाना जाता है। करीब 2 साल जेल प्रवास के दौरान भी भगतसिंह क्रांतिकारी गतिविधियों से भी जुड़े रहे और लेखन व अध्ययन भी जारी रखा। फांसी पर जाने से पहले तक भी वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। 
 देशवासियों क्या जानना चाहिए कि भगतसिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को हुआ था और 23 मार्च 1931 को शाम 7.23 पर भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी दे दी गई। मात्र 24 वर्ष की उम्र में सरदार भगत सिंह को फांसी के फंदे से झूम जाना पड़ा था। फांसी पर चढ़ने से पूर्व उनके चेहरे पर कोई सिकन  तक न थी। सुखदेव का जन्म 15 मई, 1907 को पंजाब को लायलपुर पाकिस्तान में हुआ। भगतसिंह और सुखदेव के परिवार लायलपुर में पास-पास ही रहने से इन दोनों वीरों में गहरी दोस्ती थी, साथ ही दोनों लाहौर नेशनल कॉलेज के छात्र थे। सांडर्स हत्याकांड में इन्होंने भगतसिंह तथा राजगुरु का साथ दिया था।  24 अगस्त, 1908 को पुणे जिले के खेड़ा में राजगुरु का जन्म हुआ। शिवाजी की छापामार शैली के प्रशंसक राजगुरु लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से भी प्रभावित थे। पुलिस की बर्बर पिटाई से लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए राजगुरु ने 19 दिसंबर, 1928 को भगत सिंह के साथ मिलकर लाहौर में अंग्रेज सहायक पुलिस अधीक्षक जेपी सांडर्स को गोली मार दी थी और खुद ही गिरफ्तार हो गए थे। अर्थात तीनों फांसी पर चढ़ने वाले लगभग एक ही उम्र के थे।  फांसी पर चढ़कर इन तीनों ने  यह साबित कर दिया कि भारत मां के लिए उन सबों का बलिदान ही जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य है।