पत्रकार जुगनू शारदेय पत्रकारिता के लौह पुरुष माने जाते थे
16 दिसंबर, वरिष्ठ पत्रकार जुगनू शारदेय की तृतीय पुण्यतिथि पर विशेष
झारखंड के जाने-माने घुमक्कड़ पत्रकार जुगनू शारदेय पत्रकारिता जगत के लौह पुरुष माने जाते थे । उनका संपूर्ण जीवन पत्रकारिता को समर्पित रहा था। पत्रकारिता के अलावा उन्होंने कभी भी इधर-उधर नहीं ताका तक नहीं। पत्रकारिता उनका मिशन था। उनका जीवन था। आज पत्रकारिता का स्वरूप बदलता चला जा रहा है। पत्रकारिता पैसे वाले लोगों के लिए एक खिलौना स बन गया है। यह लिखते हुए दुःख होता है कि तीन वर्ष पूर्व दिल्ली के एक वृद्धा आश्रम में पत्रकार जुगनू शारदेय की गुमनामी में मौत हो गई थी । जब उनकी गुमनामी मौत हो गई थी, तब किसी पत्रकार ने उन्हें पहचाना, इसके बाद ही यह खबर मीडिया तक पहुंच पाई थी। यह बात पत्रकारिता जगत के चिंता की बात है।
उनका जन्म भारत की आजादी के दूसरे वर्ष सन 1949 में बिहार प्रांत में हुआ था। उन्होंने बिहार में ही अपनी पढ़ाई पूरी की थी। बचपन से ही उनमें पत्रकार बनने का जुनून सवार था। महाविद्यालय की शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने सीधे पत्र - पत्रिकाओं के माध्यम से अपनी मन की बातें लिखना शुरू कर दिया था । आगे धीरे-धीरे कर उनकी रचनाएं 'जन' 'धर्मयुग' 'सप्ताहिक हिंदुस्तान' 'दिनमान'जैसे प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पत्रिकाओं में छपने लगी थीं। वे लगातार लिखते और छपते रहे थे। उन्होंने 'जन' 'दिनमान' 'धर्मयुग' 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' से शुरू कर कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन और प्रकाशन भी किया था। वे एक सफल पत्रकार के साथ कवि और लेखक भी थे। उन्होंने मर्म को छूने वाली कई कविताएं लिखी । उन्होंने छोटी-छोटी कहानियां भी लिखीं। उनकी लगभग कविताएं और कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थी । लेकिन वे एक कवि और कथाकार के रूप में जम नहीं पाए थे । वे बतौर एक पत्रकार के रूप में ही पहचाने जाते रहे थे।
उनके घुमक्कड़ स्वभाव ने उन्हें जंगलों में भी भटकने के लिए प्रेरित किया । जंगलों में उन्हें घूमने में बड़ा मजा आता था। जंगल के वन्य जीवो को देखना और वन्य जीवों के संरक्षण के लिए आवाज बुलंद कर अद्वितीय कार्य किया था । इस तरह के कार्य विरले पत्रकार ही कर पाते हैं । वे अन्य पत्रकारों से बिल्कुल अलग थे । भीड़ में रहकर भी भीड़ से अलग थे । वन्य जीवों से लगाव के कारण ही सफेद बाघ पर उनकी एक महत्वपूर्ण पुस्तक 'मोहन प्यारे का सफ़ेद दस्तावेज़' सन 2004 मेंं प्रकाशित हुई थी। हिंदी में वन्य जीव पर लिखी उनकी यह पुस्तक बिल्कुल अनूठी साबित हुई । इस पुस्तक को भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय ने 2007 में प्रतिष्ठित 'मेदिनी पुरस्कार' से जुगनू शारदेय को नवाजा था। उन्होंने पत्रकारिता अपनी शर्तों पर की । उनकी निर्भीकता देखते बनती थी । उनकी कलम की ताकत की चर्चा आज भी की जाती है। वे एक निष्पक्ष, निर्भीक पत्रकार होने के साथ समाजवादी चिंतन के व्यक्ति थे । सामाजिक उत्पीड़न के खिलाफ उनकी कलम खुलकर लिखा करती थी। वे कभी भी एक पत्र - पत्रिका के साथ बंध कर नहीं रहे । उन्होंने देशभर के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से अपना नाता बनाए रखा था । घुमक्कड़ व यायावरी स्वभाव के कारण उन्होंने अपनी गृहस्थी भी बसा नहीं पाई थी। उनका जन्म बिहार में जरूर हुआ था,लेकिन उनकी कर्मभूमि झारखंड की राजधानी रांची और पटना दोनों जगहों पर बनी रही थी। वे दोनों स्थानों पर अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करते रहे थे ।
उनका झुकाव सिनेमा पत्रकारिता की भी ओर हुआ । सिनेमा पत्रकारिता के क्षेत्र में भी उन्होंने कई यादगार और महत्वपूर्ण लेख सिने प्रेमियों के लिए लिखा था। वे देश के जाने-माने कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु के साथ मुंबई की भी यात्रा की थी । वे मुंबई में फणीश्वर नाथ रेणु के साथ लंबे समय तक रहे थे । वे मुंबई में भी ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाए थे। वे अपने घुमक्कड़ स्वभाव के कारण पुनः बिहार की पावन धरती पर लौट आए थे।
जब उनकी कलम देश की राजनीति पर चलने लगी थी । वे जल्द ही बिहार के शीर्ष नेताओं एवं राष्ट्रीय नेताओं की नजरों में छा गए थे। उनकी कलम कब क्या लिख दे ? नेता गण भी हक्का-बक्का रह जाते थे । जुगनू शारदेय समाज के अंतिम व्यक्ति तक सत्ता की जनकल्याणकारी योजनाओं का लाभ पहुंचाना चाहते थे । इस कार्य में हो रही गड़बड़ी के खिलाफ वे सदा लिखते रहे थे ।
लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने बिहार की पावन धरती से जब संपूर्ण क्रांति का आह्वान किया था । तब जुगनू शारदेय लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में कूद पड़े थे। वे, कर्पूरी ठाकुर, लालू प्रसाद यादव,रामविलास पासवान ,नीतीश कुमार, गौतम सागर राणा जैसे बड़े नेताओं के साथ कदम से कदम मिलाकर चले थे। जयप्रकाश नारायण आंदोलन की रिपोर्टिंग उन्होंने देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में की थी । जिसकी चर्चा देशभर में होनी शुरू हो गई थी। अब देश के एक बड़े पत्रकार के रूप में उनकी पहचान बन गई थी।जयप्रकाश नारायण आंदोलन में उन्होंने अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज की थी । जब देश में इमरजेंसी लागू की गई थी । तब जुगनू शारदेय अपने लेखों के माध्यम से विरोध के स्वर बुलंद कर रहे थे । वे पुलिस से छुपकर एक जगह से दूसरी जगह आया जाया करते थे। वे अपने घुमक्कड़ स्वभाव के कारण पुलिस के हाथ कभी लगे नहीं । इमरजेंसी के दौरान जब उनके लेख छपते थे, पाठक गण शारदेय के लेखों को बहुत ही सिद्दत के साथ पढ़ा करते थे।
उन्होंने पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ पत्रकारिता की। उन्होंने किसी भी विषय पर अपनी राय खुलकर रखी । वे एक निर्भीक पत्रकार होने के साथ बहुत ही सहज ,सरल और निर्मल मन के थे। उन्होंने कभी किसी से राग - द्वेष नहीं रखा । और ना ही सत्ता की चाटुकारिता की । सत्ता के बदलते स्वरूप के खिलाफ उनकी कलम सदा आग उगलती रही थी। उन्होंने एक खालिस पत्रकार की भूमिका में अपना पूरा जीवन बिता दिया । एक पत्रकार ने जुगनू शारदेय के निधन पर लिखा कि 'आपने जिनके लिए लिखा था, कोई भी उनके दाह संस्कार में पहुंच नहीं पाए थे।' उन्होंने बिल्कुल ठीक लिखा कि इस तरह भीड़ से अलग चलने वाले पत्रकारों को स्थिति से गुजरना ही पड़ता है।
यह सिर्फ इनके साथ ही नहीं हुआ बल्कि पूर्व में भी ऐसी घटनाएं घटती चली आ रही है जो अनवरत चलती रहेगी। वे पत्रकारिता जगत के एक मजबूत स्तंभ रहे थे। क्या देश के पत्र-पत्रिकाओं और सत्ता के शीर्ष में बैठे नेतागण कभी उनकी सुध ली थी ?
जुगनू शारदेय अपनी मृत्यु से लगभग 20 वर्षों से पत्रकारिता से अलग-थलग पड़ गए थे । उनका स्वास्थ्य धीरे धीरे कर गिरता चला जा रहा था। आर्थिक विपन्नता भी उन्हें कम परेशान नहीं कर रही थी । उनके पास न रहने का ठिकाना था। ना खाने की जुगाड़ू। बस दिल्ली, पटना, रांची आदि शहरों में लगातार घूमते रहे थे। बस ! वे कुछ लेखों के माध्यम से अपने जीवित होने का सबूत देते रहे थे। उनके इस गिरते स्वास्थ्य पर बिहार के कई नेताओं ने बिहार सरकार एवं भारत सरकार से इनके स्वास्थ्य की बेहतर देखभाल, मुफ्त आवास और भोजन की व्यवस्था मांग की थी । लेकिन न प्रांत की सरकार और न ही भारत सरकार इस दिशा में कुछ कर पाई। फलत: घोर अभाव के बीच जुगनू शारदेय का अंतिम दिन बीता था। अगर उनके पास कुछ पूंजी थी तो बीते कुछ वर्षों के लेख और उनकी ईमानदारी। अंतिम समय में यह भी पूंजी काम नही आई थी।
जुगनू शारदेय का पत्रकारिता के प्रति जुनून, निष्ठा और ईमानदारी सदा लोगों को प्रेरणा देती रहेगी। उन्होंने पत्रकारिता के लिए अपनी गृहस्थी तक नहीं बसाई। वे सदा लिखते रहें, लिखते रहें। बस ! लिखना ही उनके जीवन का उद्देश था। उन्होंने जी भर कर लिखा । छपे और घोर तंगहाली में सदा सदा चले गए। उन्हें नाम की क्या फिकर थी ? उनकी अंत्येष्टि में कोई पहुंचे अथवा ना पहुंचे ! उससे उन्हें क्या फर्क पड़ता ? वे एक खालिस पत्रकार थे।