आज ‘पत्रकारिता’ अपने ‘संक्रमण काल’ से गुजर रहा है
आज पत्रकारिता अपने संक्रमण काल से गुजर रहा है।पत्रकारिता, जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए देश में इसका आगमन हुआ था। अपने पथ से पूरी तरह पथ विहीन हो चुका है। स्वाधीनता आंदोलन पत्रकारिता के लिए स्वर्णिम काल था। देश की आजादी का संघर्ष इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। किस तरह हमारे स्वाधीनता सेनानियों ने पत्रकारिता के बल पर ब्रिटिश हुकूमत की ईंट से ईंट बजा दी थी।
पत्रकारिता एक व्यवसाय के रूप में तब्दील हो चुका है
पत्रकारिता की आत्मा पत्रकारों मैं निवास करती है। बाहरी तौर पर पत्रकारिता ग्लैमरस लगती है, लेकिन पत्रकारिता की आत्मा जो पत्रकारों में निवास करती है, उसकी हालत बहुत ही खराब होती चली जा रही है। इस पर गंभीरता पूर्वक विचार करने की जरूरत है। चूंकि पत्रकारिता, आज एक व्यवसाय के रूप में तब्दील हो चुका है। पत्रकार चाहे कितने भी ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ क्यों न हो ! वे पत्रकारिता अपने मन से नहीं कर पा रहे हैं, बल्कि अखबार मालिकों के दबाव में रहने को विवश है। जबकि दूसरी पत्रकार अपने दायित्व का निर्वहन पूरी ईमानदारी से कर रहे हैं। इसके बावजूद उनके हाथ, बेबसी, लाचारी और भूखमरी ही हाथ लग रही हैं। यह स्थिति अच्छी नहीं है। अखबार के मालिक अपने फायदे के लिए अखबार के प्रकाशन में जुटे हैं। लाभ हानि ही उनका मुख्य उद्देश्य होता है। कैसे अपने उद्योग धंधों को आगे करें ? राजनीति से कैसे लाभ लें ? यही उनका मुख्य उद्देश बन कर रह गया है।
पत्रकारों की स्थिति अच्छी नहीं है
पत्रकारों का हाल बेहाल है। आंचलिक पत्रकारों की स्थिति और भी बद से बदतर होती चली जा रही है। आज भी देश की लगभग 73% आबादी गांवों में निवास करती है । बिना मासिक तनख्वाह के 73% क्षेत्र की रिपोर्टिंग अखबारों में छपती है। कुछ गिने चुने अखबार ही इन आंचलिक पत्रकारों को बहुत मामूली मासिक तनख्वाह दे पाते हैं। शेष पत्रकारों की स्थिति अच्छी नहीं है। यह लिखते हुए बेहद अफसोस होता है कि कई पत्रकार जिनकी उम्र काफी हो गई है। सिर्फ पत्रकार के पेशे में जुड़े रहने के कारण उनकी जाति के लोगों ने उनसे अपनी बच्ची की शादी करना उचित नहीं समझा। ऐसे कई पत्रकार, जिनकी उम्र अधिक हो जाने के बावजूद उनकी शादियां नहीं हो पाई है। यह समाज के लिए बेहद चिंता की बात है। ऐसी विषम परिस्थिति में निष्पक्ष पत्रकारिता की उम्मीद हम लगाए बैठे हैं, कैसे संभव है ? राज्य सरकारों, केंद्र सरकार और समाज के सभी वर्ग के लोगों को इस विषय पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।
गिनती भर पत्रकारों की स्थिति अच्छी
सभी को खबर पहुंचने वाले पत्रकारों की खुद की खबर चिंतनीय है। देश के लगभग जिलों में प्रेस क्लब या इसी नाम से अन्य प्रेस क्लब भी जरूर क्रियाशील है। बैठकें भी प्रेस क्लब के बराबर होती रहती है ।लेकिन इस पेशे से जुड़े पत्रकारों को समय से मासिक तनख्वाह मिले, इस विषय पर बातचीत भी जरूर होती है, लेकिन बातें ज़मीन पर उतर नहीं पाती हैं। गिनती भर पत्रकारों की स्थिति अच्छी कही जाती जा सकती है, शेष पत्रकारों की स्थिति अच्छी नहीं है ।
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कैसे मजबूत रह सकता है
ऐसी विषम परिस्थिति में एक पत्रकार अपनी पत्रकारिता के हुनर को सामने कैसे ला सकता है? वह अपने आपको निर्भीक, निष्पक्ष और स्वतंत्र कैसे बनाएं रख सकता है ? ध्यातव्य है कि पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ जरूर कहा जाता है, लेकिन पत्रकारिता की ‘जान’ पत्रकार स्वयं पैसे पैसे को मोहताज है । तब लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कैसे मजबूत रह सकता है। देश के न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका से जुड़े लगभग सभी लोगों की स्थिति दिन प दिन बेहतर हो रही है। वे अपने मन मुताबिक जीवन जी सकते हैं । अपनी आवश्यकताओं को पूरा कर सकते हैं । लेकिन लोकतंत्र के चौथे स्तंभ कहे जाने वाले पत्रकारगण अपनी आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं कर सकते हैं।
पत्रकारिता के पुराने गौरव को लौटाने की जरूरत
इस कारण पत्रकार चाह कर भी अपनी पत्रकारिता के तेवर/ हूनर दिखा नहीं पा रहें हैं। ऐसी विषम परिस्थिति में वे सामाज के आसपास के सच को भी सामने नहीं रख पा रहे हैं । यह बेहद चिंता की बात है। यह एक गंभीर विषय और गंभीर चुनौती भी है। इस विषय पर समाज के सभी वर्ग के लोगों को विचार करने की जरूरत है। संपूर्ण देशवासी यह मानते हैं कि कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधान पालिका की तरह लोकतंत्र का चौथा स्तंभ पत्रकारिता है । यह सिर्फ कहने भर की बात है। पत्रकारिता के आधार पत्रकार गण होते हैं। सच्चे अर्थों में वे ही आधार हीन हो चुके हैं । ऐसी विषम परिस्थिति में समाज के हर वर्ग के लोगों को इस पर चिंतन मनन करने की जरूरत है। अखबार मालिकों के उदासीनता के कारण ‘पत्रकारिता’,अपने उद्देश्य भटक चुका है। पत्रकारिता के पुराने गौरव को लौटाने की जरूरत है। स्वाधीनता आंदोलन के दरमियान पत्रकारिता स्वाधीनता सेनानियों के संघर्ष का मुख हथियार हुआ करता था । चूकि उनकी कलम अखबार मालिकों के हाथों में नहीं थीं।
पाठकों को भी इस मुद्दे पर बहुत गहन मनन करने की जरूरत है ।तभी पत्रकारिता अपने पुराने स्वरूप को प्राप्त कर सकता है।अखबार रंगीन कागज के टुकड़े नहीं बल्कि समाज का दर्पण होता है। रंगीन कागज के बहकावे में आने की जरूरत नहीं है ।हाथों से लिखित अखबारों ने जो काम किया, उसे कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता है।
अखबार के मालिक अपने हिसाब से आलेख लिखवाते हैं
मैं बीते 45 वर्षों से पत्रकारिता से जुड़ा हुआ हूं। नियमित स्तंभ लेखन करता रहा रहा हूं । हर वर्ष सैकड़ों की संख्या में हिंदी अखबारों का शुभारंभ इस देश में होता है । अखबार के संपादक अपने मालिक के इशारे पर, अपने हिसाब से लेखकों से आलेख की मांग करते हैं। यह कदापि उचित नहीं है। पत्रकारिता का कार्य है,,समाज के सच को सामने रखना। बहरी हो चुकी सरकार को जगाना । समाज के अंतिम व्यक्ति तक विकास पहुंच पाया है अथवा नहीं ? इस सच को सामने रखना । लेकिन अखबार के मालिक अपने हिसाब से आलेख लिखवाते हैं। अर्थात देश की बौद्धिकता अखबार मालिकों के हाथों गिरवी रखी जा चुकी है। जिस कारण समाज का सच करोड़ों पाठकों व देशवासियों तक पहुंच नहीं पा रहे हैं। यह परंपरा बंद होनी चाहिए । यह तभी संभव है। जब देशवासी व करोड़ों पाठक गन खुलकर सामने आएंगे।
पत्रकारों पर हमेशा ख़तरा मंडराता रहता है
इस विषय पर वरिष्ठ पत्रकार उदय केसरी ने दर्ज किया है, ‘विमर्श मालिक, संपादक और पाठक तक ही सीमित नहीं है, क्योंकि इतनी तो समस्या आजादी के बाद कमोबेश हर वक्त रही है, फिर भी सच लिखने के लिए अखबार और संपादक सम्मानित और प्रतिष्ठित होते थे। चाहकर भी सत्ता उन्हें खुलेआम प्रताड़ित नहीं कर पाती थी, लेकिन आज परिदृश्य ही कुछ और है- क्या मालिक, क्या संपादक और क्या रिपोर्टर सभी यदि सत्ता के एजेंडा के साथ नहीं, तो उनकी पत्रकारिता को खारिज और बदनाम कर दी जाती है। उन्हें खान मार्केट गैंग या वामपंथी गैंग आदि नामों से कोसा और डिस्क्रेडिट किया जाता है। उनके खिलाफ देशद्रोह आदि के फर्जी मुकदमे लादे जाते हैं। ऐसे में कौन कितना हिम्मत करेगा खुद विचारें।’ उदय केसरी ने अपनी बातों को बहुत ही पुख्ता तरीके से प्रस्तुत किया है। उन्होंने साफ कर दिया कि सत्ता कैसे पत्रकारिता का घोर दुरुपयोग कर रही है। उदय केसरी जैसे ना जाने कितने पत्रकार अपने कैरियर की शुरुआत पत्रकारिता से करते रहते हैं। जब उनका हकीकत से पाला पड़ता है, उन उन सबों का मन कितना टूटता होगा ? अंदाजा लगाया जा सकता है। कितने अरमान लेकर ये नए चेहरे पत्रकारिता का दामन थामते है। कई तो रोजी-रोटी के कारण इस पेशे से जुड़े रह जाते हैं । कई हालात से लड़ते रहते हैं। फिर खुद को अकेला पाकर पत्रकारिता ही छोड़ देते हैं। कई तो पारिवारिक, सामाजिक व अन्य कई कारण के चलते पत्रकारिता छोड़ देते हैं। इस पत्रकारिता के जमीनी सच को समझने की जरूरत है। ऐसे कई पत्रकार जो समाज में बदलाव लाने के लिए पत्रकारिता ज्वाइन करते हैं । पत्रकारिता के सच को जानकर पत्रकारिता से विदाई ले लेते हैं । उनकी पीड़ा को समझने की जरूरत है।
पत्रकारिता काॉरपोरेट घरानों के शिकंजे में
आज किस तरह पत्रकारिता काॉरपोरेट घरानों के शिकंजे में है ? कॉर्पोरेट घराने अपने फायदे के लिए सत्ता का दामन मजबूती के साथ थामे हुए हैं। वे सत्ता के इशारे पर सारा कार्य कर रहे हैं । आज मालिक का स्वरूप बदल गया है। मालिक सत्ता पर बैठे हैं। वे सत्तासीन बन चुके हैं। और उनके एजेंट, अखबार मालिक बन बैठे हैं। निश्चित तौर पर पत्रकारिता के लिए यह संक्रमण काल है। उदय केसरी ने जिन बातों की ओर इशारा किया है । देशवासियों को उस पर विचार करने की जरूरत है। अब सवाल यह उठता है कि इस व्यवस्था के खिलाफ आवाज कौन बुलंद करेगा ? मालिक अपने फायदे में जुटे हुए हैं । राजनेता सत्ता पर काबिज होने के लिए तिकड़म लगाए बैठे हैं। सारे कार्य राजनीतिक और सत्ता के फायदे के लिए किए जा रहे हैं। इसके खिलाफ एक सामूहिक सामाजिक नवजागरण की जरूरत है। तभी इस समस्या का समाधान संभव है। यह एक लंबी लड़ाई की मांग कर रही है। हम सबों को मिलकर लड़ने की जरूरत है। इस बात को जन-जन तक पहुंचाने की जरूरत है। मीडिया आज बड़े ही चतुराई के साथ, सफाई के साथ सत्ता की दलाली में लगी हुई है। मीडिया खुद-ब-खुद जनता की निगाहों में अपनी असलियत बयां कर दे रही है। बस ! जरूरत है। एक निष्पक्ष कुशल नेतृत्व की। अगर पत्रकारों के हाल इसी तरह रहे तो लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के नाम से जाने, जाने वाले पत्रकारिता अपने अस्तित्व को बचा नहीं पाएगी ।