तुम्हारे लिए के लेखक हिमांशु जोशी ,पहली पुण्यतिथि पर विशेष

"तुम्हारे लिए" लिखे भी अब लगभग ढाई दशक हो चुके होंगे। पत्रिका में प्रकाशित होने के बाद पुस्तक-रूप में इसके कई संस्करण हुए। हाँ, दूरदर्शन के लिए जब धारावाहिक बन रहा था, तब मुहूर्त के लिए निर्माता अवश्य पकड़कर ले गए थे। तब एक बार फिर नैनीताल को जीने का अवसर मिला।

तुम्हारे लिए के लेखक हिमांशु जोशी ,पहली पुण्यतिथि पर विशेष

इस उपन्यास का जादू देखने और महसूस करने लायक है।.कई भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है। धारावाहिक बना है और फिल्म भी।
खुद हिमांशु जोशी इसके बारे में लिखते हैं कि
एक नवोदित लेखक स्वर्गीय कुमार गौतम एक बार मिलने आए। बोले, ‘इस उपन्यास को पढ़कर मैं इतना सम्मोहित हुआ कि नैनीताल जाने से अपने को रोक नहीं पाया। पता नहीं कैसे ग्वालियर से नैनीताल जा पहुँचा। वहाँ उन सारे स्थानों को मैं पागल की तरह खोज खोजकर देखने लगा, जिनका वर्णन इस उपन्यास में किया गया है। आपको सच नहीं लगेगा, मैं इसकी प्रतियाँ वर्षों से खरीद-खरीदकर बाँटता रहा हूँ…।’
तुम्हारे लिए’ लिखे भी अब लगभग ढाई दशक हो चुके होंगे। पत्रिका में प्रकाशित होने के बाद पुस्तक-रूप में इसके कई संस्करण हुए। हाँ, दूरदर्शन के लिए जब धारावाहिक बन रहा था, तब मुहूर्त के लिए निर्माता अवश्य पकड़कर ले गए थे। तब एक बार फिर नैनीताल को जीने का अवसर मिला।

अब तक अनेक रूपों में, रंगों में पाठकों ने इस उपन्यास को देखा, पढ़ा, परखा। अधिकांश की प्रायः यही जिज्ञासा रही कि क्या यह कहानी सच है ? क्या यह उपन्यास मैंने अपने पर ही लिखा है ?
कई पाठक ऐसे भी रहे, जिन्होंने इसे अपनी ही जीवन-कहानी समझ लिया। एक नवोदित लेखक स्वर्गीय कुमार गौतम एक बार मिलने आए। बोले, ‘इस उपन्यास को पढ़कर मैं इतना सम्मोहित हुआ कि नैनीताल जाने से अपने को रोक नहीं पाया। पता नहीं कैसे ग्वालियर से नैनीताल जा पहुँचा। वहाँ उन सारे स्थानों को मैं पागल की तरह खोज खोजकर देखने लगा, जिनका वर्णन इस उपन्यास में किया गया है। आपको सच नहीं लगेगा, मैं इसकी प्रतियाँ वर्षों से खरीद-खरीदकर बाँटता रहा हूँ…।’

इंदौर से एक महिला डॉक्टर ने लिखा कि यह तो मेरी ही अपनी कहानी है। अनुमेहा की तरह मैंने भी मामा के घर रहकर पढ़ा। मुझे भी पढ़ाने…।
ऐसे सैकड़ों पत्र ! सैकड़ों प्रतिक्रियाएँ।
आज भी अनेक पत्र यदा-कदा मिलते हैं। इसमें इसी तरह के प्रश्न होते हैं। अधिकांश इसे आत्मकथा का ही एक अंश मानते हैं। कितनी बार कह चुका हूँ कि यह तो कहानी है। परंतु फिर विचार आता है कि क्या कहानी, मात्र कहानी होती है, सच नहीं ? कल्पना और यथार्थ के ताने-बाने से ही तो सही साहित्य की सरंचना होती है।
ऐसे पाठकों की संख्या कम नहीं रही, जिन्होंने इसे दो-चार बार नहीं, अनेक बार पढ़ा।