महाराष्ट्र की घटना ने बचा लिया बिहार को:- सुनील सौरभ
गया । महाराष्ट्र की घटना ने बिहार को बचा लिया। इसमें जरा सा भी संदेह करने की गुंजाइश नहीं है। बिहार में पिछले तीन चार महीने से जातीय गणना, अग्निवीरों की सेना में बहाली,राष्ट्रपति चुनाव को लेकर एन डी ए में शामिल घटक दलों और विशेषकर जदयू के नेताओं के बयानों को देखा जाए तो इसके मायने लगाए जा सकते हैं कि ऊपर से सबकुछ ठीक दिखने वाला एन डी ए गठबंधन में कुछ तो गड़बड़ है।भाजपा नेताओं के दर्द को भी उनके बयानों से समझा जा सकता है।विधान सभा में सबसे बड़ी पार्टी होने के बाद भी भाजपा ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाया। बाबजूद इसके जदयू के नेताओं के बोल भी बड़े बड़े हो रहे हैं। बिहार एन डी ए में गड़बड़ होने की बात तब सतह पर आ गई थी जब बजट सत्र में मुख्यमंत्री और विधान सभा अध्यक्ष में किसी बात को लेकर बहस हो गई थी।बाद में इस मामले को मुख्यमंत्री और विधानसभा अध्यक्ष से मिलाकर भाजपा जेडीयू के नेताओं ने पैचअप करा दिया। लेकिन टीस दोनों दलों के नेताओं में बनी रही।जेडीयू नेता जातीय गणना को लेकर भाजपा को घेरने का प्रयास करते रहे,परंतु घेर नहीं पाए। जुबानी जंग चलता रहा।प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष संजय जायसवाल राज्य के विधि व्यवस्था पर सवाल उठाते रहे तो जदयू के नेता भाजपा नेताओं को नसीहत देते रहे। इसी बीच केंद्र सरकार ने सेना में अग्निवीरों की बहाली को लेकर जानकारी दी तो मौका की तलाश में असामाजिक तत्वों ने भाजपा नेताओं और रेल को निशाना बना कर कई रेल गाड़ियों को फूंक डाला। केंद्र की सेना में अग्निवीरों की बहाली को लेकर जब घोषणा की गई तो विरोध तो कई राज्यों में हुआ लेकिन बिहार में चार दिनों तक उपद्रवियों ने जो आतंक मचाया ,उससे बिहार सरकार सवालों के घेरे में आ गई। चार दिनों तक बिहार जलता रहा, राज्य के उपमुख्यमंत्री और गठबंधन के सबसे बड़े दल भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के घर पर हमला हो, ऐसे में भी राज्य के मुखिया के साथ साथ उच्चाधिकारियों की चुप्पी बहुत से सवाल खड़े कर देते हैं। राजनीतिक विश्लेषकों ने भी कहना शुरू कर दिया कि राष्ट्रपति चुनाव में भाजपा को जेडीयू से समर्थन लेना है इसीलिए इन घटनाओं को प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने वरदास्त किया है। क्योंकि तब तक नीतीश कुमार ने भी राष्ट्रपति चुनाव को लेकर अपनी नीति साफ नहीं की थी। नीतीश कुमार की राजनीति को समझने वाले भी आज यह कहते नजर आते हैं कि वह क्या निर्णय लेंगे , कहना मुश्किल है। दूसरी ओर आर सी पी सिंह को जेडीयू ने राज्य सभा में नहीं भेजा बाबजूद इसके उन्हें केंद्र में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी मंत्री बनाए हुए हैं। नीतीश कुमार इस बात से भी खफा हैं। इन्हीं सब बातों को लेकर कयास लगाए जा रहे थे कि इस बार फिर नीतीश जी केंद्र की एन डी ए सरकार को गच्चा दे सकते हैं। राष्ट्रपति चुनाव पर सभी दलों ने अपने अपने रुख साफ कर रखे थे। एन डी ए में रहते हुए भी नीतीश ने अपनी नीति साफ नहीं की थी।वहीं ओडिसा की नवीन पटनायक सरकार ने भी राष्ट्रपति चुनाव पर अपने स्टैंड को साफ नहीं किया था। लेकिन नरेंद्र मोदी, अमित शाह और जे पी नड्डा की तिकड़ी ने राष्ट्रपति चुनाव में एक आदिवासी महिला उम्मीदवार के रूप में झारखंड की पूर्व राज्यपाल द्रोपदी मुर्मू को उतार कर ऐसा मास्टर स्ट्रोक मारा कि राजनीति के बड़े बड़े सियासतबाज चारों खाने चित हो गए। सबसे पहले ओडिसा के नवीन पटनायक ने अपना समर्थन एन डी ए उम्मीदवार को देने की घोषणा कर दी। क्योंकि द्रोपदी मुर्मू ओडिसा से ही आती हैं।तब भी नीतीश जी चुप रहे। इसी बीच महाराष्ट्र में शिवसेना के कद्दावर नेता एकनाथ शिंदे ने उद्धव ठाकरे से बगावत कर 37 विधायक को पहले सूरत फिर गौहाटी ले उड़े।महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे की सरकार अल्पमत में ही नहीं आई बल्कि शिवसेना पार्टी पर ही एक तरह से एकनाथ शिंदे का कब्जा सा हो गया। महाराष्ट्र की घटना से बिहार में भी राजनीतिक हलचल तेज होने की बातें होने लगी। लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया की कहीं आर सी पी सिंह जेडीयू के लिए बिहार में एकनाथ शिंदे न साबित हो जाएं। कहा जाता है कि नीतीश कुमार ने देश की वर्तमान राजनीतिक हालात और गंभीरता को देखते हुए और प्रधान मंत्री से बात होने के बाद द्रोपदी मुर्मू को समर्थन देने की घोषणा की । यह बात भी सच है कि यदि महाराष्ट्र की घटना नहीं होती तो आज बिहार के राजनीतिक हालात में कुछ न कुछ होता। बिहार के लिए अच्छी बात रही की महाराष्ट्र की घटना ने बिहार को राजनीतिक उथल पुथल से बचा लिया।
(लेखक वरिष्ट पत्रकार हैं)
सुनील सौरभ
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