सद्कर्म ही मनुष्य की सच्ची संपत्ति : बाबूजी के सद्वचन
सामाजिक सरोकारों और पारिवारिक संस्कारों को सर्वोपरि समझते थे बाबु जी। पुण्यतिथि (सात अगस्त) पर विशेष:
सुधीर कुमार सिंह
हमारे पिताजी, जिन्हें हमलोग आदर व स्नेह से बाबू जी कहकर पुकारा करते थे, सामाजिक सरोकारों और पारिवारिक संस्कारों को काफी महत्व दिया करते थे। वह जीवन पर्यंत संयुक्त परिवार के पक्षधर रहे। जब तक जीवित रहे, अपने पूर्वजों के गौरवशाली इतिहास को आत्मसात कर उनके पदचिन्हों पर चलते हुए हम सबों को समाज व परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों का बोध कराते रहे।
बाबूजी कहा करते थे कि सद्कर्म ही मनुष्य की सच्ची संपत्ति है। हमारी असली संपत्ति हमारे कर्म हैं ,जो लोक-परलोक दोनों में नजर आएंगे। अपने कर्मों को सत्कर्म में बदलें ,यही हमारी संपत्ति है। मानवता, दया, परोपकार, दान व सहिष्णुता जैसे दिव्य दैवीय गुणों को आत्मसात कर अपनी विरासत, संस्कृति, अध्यात्म, धर्म सुरक्षित रख सकते हैं। यही संपत्ति संस्कार के रूप में आने वाली पीढ़ी को सौंपें।
बाबूजी कहते थे धन-संपदा को आने वाली पीढ़ी को सौंपने से पहले उन्हें संस्कार एवं विनयशीलता की संपत्ति सौंपने की कोशिश करें। यही संपत्ति आने वाली पीढ़ी के अंदर चरित्र निर्माण का मार्ग प्रशस्त करेगी।
हम तीनों भाइयों और तीन बहनों सहित परिवार के अन्य सभी सदस्यों को बाबूजी कहा करते थे कि बुरे कर्मों से अंतःकरण में अशांति और व्याकुलता उत्पन्न होती है। इसलिए सदैव अच्छे कर्म करें।
एक बार मेरे व्यक्तिगत जीवन में ऐसा भी क्षण आया, जब मैं विचलित हो गया। उस समय बाबूजी ने मेरा हौसला बनाए रखा और सकारात्मक सोच के साथ परिस्थितियों से जूझने के लिए प्रेरित किया। बाबूजी द्वारा मिली प्रेरणा से मुझे ऐसी शक्ति मिली कि मैं झंझावातों को पार करता गया और समस्याएं खुद-ब-खुद किनारे होती गई।
बाबूजी कहते थे मन की भूमि पर विचारों के बीज संभलकर डालने चाहिए। जैसा बीज होगा, वैसे ही उसके फल और फूल होंगे। मन में किसी के लिए अच्छाई या बुराई के बीज बोने से पहले यह ध्यान रहे कि बुराइयों की बीज आपके भीतर ही अपनी जड़ें फैलाएंगे।
बाबूजी का मानना था कि समय बड़ा बलवान होता है। अक्सर हम लोगों को कहते थे कि समय की कद्र करो।
सुबह जगने व रात को सोने के बीच में जितना हो सके स्वयं को व्यस्त रखो। समयबद्धता एक अच्छे व्यक्ति का गुण होता है। जहां जीवन में आलस्य आ गया,काम करने से जी चुराने लगोगे, वहां समस्याएं पैदा होंगी। बाबूजी के प्रेरणादायक व आदर्श वाक्य आज भी हम सबों के कानों में गूंजती है। वह कहते थे विलासिता व सुविधावाद से विकास अवरुद्ध हो जाता है। वहीं, श्रमशीलता एवं समयबद्धता से हर मुश्किल राहें आसान हो जाती है। वह कहते थे असफलता से ही सफलता का मार्ग प्रशस्त होता है। जीवन में हर पल घटने वाली सुख-दुख की लहरों को पूरी तरह से आत्मसात कर लेना ही जीवन जीने की कला है। बाबूजी ने एक बार कहा था काम,क्रोध, मोह, लोभ जैसे क्षणभंगुर तत्वों से दूर रहकर जीवन जियो, जीवन में आने वाले सुख-दुख, उतार-चढ़ाव और परेशानियों को सहज रूप से स्वीकार कर लेना ही समझदारी है। जितना हमारे पास उपलब्ध है, उसी में संतोष करना। व्यर्थ में अतीत और भविष्य के बारे में कभी मत सोचना। यह वर्तमान को कुएं में धकेलना के समान है।
यह जरूरी नहीं कि आज जो तुम्हारे पास है, वह जीवन पर्यंत तुम्हारा ही रहेगा। यदि इस भाव से दूर रहोगे तो जीवन में उत्सव के रंग हमेशा बने रहेंगे।
वह कहते थे संत महात्माओं से सत्संग सुनने, उस पर चिंतन-मनन करने और अच्छे-बुरे का अवलोकन करने से ही हमारे विचार स्वच्छ रहेंगे। जीवन में सुख-दुख धूप-छांव की तरह आते जाते रहते हैं। इसलिए विषम परिस्थितियों में भी घबराना नहीं चाहिए।
एक बार बाबूजी ने कहा था कि कभी मन में नकारात्मक सोच को जगह मत देना। हमेशा सकारात्मक सोच रखते हुए अपने जीवन पथ पर अग्रसर रहना। बाबूजी द्वारा कहे गए वाक्य हमेशा याद आते हैं। वह हमारे परिवार के प्रेरणास्रोत हैं। अपनी पारिवारिक जिम्मेवारियों को उन्होंने बखूबी निभाया। अपने जीवन काल में उन्होंने कई झंझावातों को झेला, लेकिन कभी घबराए नहीं। हमेशा हिम्मत से काम लिया।
परिवार और समाज के प्रति बाबूजी का समर्पण हमेशा याद रहेगा।
लेखक कनिष्ठ सुपुत्र हैं