“इतने बदनाम हुए हम तो इस जमाने में , लगेंगी आपको सदियां हमें भुलाने में” – कवी “नीरज” की पुण्यतिथि पर विशेष।

गीत जब मर जायेंगे फिर क्या यहाँ रह जायेगा , एक सिसकता आंसुओं का कारवां रह जायेगा। प्यार की धरती अगर बन्दुक से बांटी गई , एक मुर्दा शहर अपने दरमियाँ रह जाएगा। .

“इतने बदनाम हुए हम तो इस जमाने में , लगेंगी आपको सदियां हमें भुलाने में” – कवी “नीरज” की पुण्यतिथि पर विशेष।

बॉलीवुड को अपने अमर गीतों से जीवंत करने वाले गोपालदास सक्सेना “नीरज” का जन्म 4 जनवरी 1925 को उत्तर प्रदेश के इटावा शहर में हुआ था। मात्र 6 वर्ष की आयु में पिता के गुजर जाने के बाद हाई स्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। कुछ समय टाइपिस्ट का काम करने के बाद सिनेमाघर की एक दुकान पर उन्होंने नौकरी की। काफी उतार-चढ़ाव भरी जिंदगी के बावजूद उन्होंने m.a. की परीक्षा हिंदी साहित्य में प्रथम श्रेणी से पास की और मेरठ कॉलेज में हिंदी प्रवक्ता के रूप में अपना योगदान देना शुरू किया। कुछ समय पश्चात् अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज में हिंदी के प्राध्यापक के रूप में अपना योगदान देते रहे। इस बीच शहर में होनेवाले कवी सम्मलेन में भी अपनी प्रतिभा को बिखेरते रहे। वर्ष 1958 में जब लखनऊ रेडियो से पहली बार “कारवां गुजर गया” नामक अपनी कविता पढ़ी तो मुंबई में बैठे हुए हुए लोगों ने उनकी कविता सुनी और उन्हें मुंबई आने का निमंत्रण भेज दिया। सर्वप्रथम उन्हें नई उमर की नई फसल फिल्म के लिए गीत लिखने का अवसर मिला। पहली ही फिल्म के उनके गीत जैसे कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे और देखती ही रहो आज दर्पण ना तुम, प्यार का ये मुहूरत निकल जाएगा बेहद लोकप्रिय हुआ। परिणाम स्वरूप मुंबई में ही रह कर फिल्मों के लिए गीत लिखने लगे। फिल्मों में गीत लिखने का उनका सफर मेरा नाम जोकर ,शर्मीली और प्रेम पुजारी जैसी सफल फिल्मों में कई वर्षों तक जारी रहा।
फिल्म फेयर पुरस्कार :
सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिए 70 के दशक में लगातार तीन बार उन्हें फिल्म फेयर पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया।

(1) 1970 में फिल्म चंदा और बिजली के गीत काल का पहिया घूमे रे भैया

(2) 1971 में फिल्म पहचान के गीत बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं

(3) 1972 में मेरा नाम जोकर फिल्म के लिए ए भाई जरा देख के चलो

इन तीनों में उन्हें 1970 में काल का पहिया घूमे रे भैया के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार दिया गया।


साहित्य के क्षेत्र में नीरज ने अपने आपको ध्रुव तारा के रूप में स्थापित किया है। इनकी कविता में पाठकों को सराबोर कर देने की क्षमता है। इनकी नशीली और शोख भरी कविताएं श्रोताओं को दीवाना बना देती है। नीरज के लिखे गीत “अब के सावन में शरारत मेरे साथ हुई ,मेरा घर छोड़कर सारे शहर में बरसात हुई” कोई भी सुन ले तो सावन की तरह झूमने लगे। नीरज प्रेम और दर्द के कवि हैं। प्रेम ऐसा जो शाश्वत और पवित्र है और दर्द ऐसा जो अव्यक्त है। प्रेम ऐसा जिसे ना दान चाहिए न दया ,प्रेम तो सदैव से ही समृद्ध है। नीरज के गीतों में कबीर के दर्शन भी होते हैं।

छिप छिप अश्रु बहाने वालों ,मोती व्यर्थ लुटाने वालों ,कुछ सपनों के मर जाने से – जीवन नहीं मरा करता है। जैसे गीत पाठकों को सम्मोहित करने की क्षमता रखती है। नीरज कहा करते थे – विश्व चाहे या ना चाहे ,लोग समझे या न समझे ,आ गए हैं हम यहां तो गीत गाकर ही उठेंगे
सुप्रसिद्ध कवि एवं गीतकार गोपालदास नीरज का मानना था कि कवी मंच का एक दौर था जो अब धीरे-धीरे गायब होता गया और कपि मंच में परिवर्तित हो गया। फिल्मों में भी गीत और गीतकार के सुनहरे दिन गायब होते जा रहे हैं।


कवि एवं गीतकार गोपालदास नीरज को उनकी प्रतिभा के लिए कई पुरस्कार व सम्मान मिले।

(1 ) विश्व उर्दू परिषद पुरस्कार

(2 ) 1991 में पद्म श्री सम्मान भारत सरकार के द्वारा

(3 ) 1994 में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ के द्वारा यश भारती एवं ₹100000 का पुरस्कार

(4 ) 2007 में भारत सरकार के द्वारा पद्म भूषण सम्मान दिया गया


गोपालदास नीरज के द्वारा लिखा गया अपने बारे में एक शेर जो आज भी कई मुशायरा में फरमाइश के साथ सुना जाता है :

इतने बदनाम हुए हम तो इस जमाने में , लगेंगी आपको सदियां हमें भुलाने में

ना पीने का सलीका ना पिलाने का शऊर , ऐसे भी लोग चले आए हैं मयखाने में

नीरज ने कई कालजई साहित्यिक कृतियों की रचना की ।
वर्ष 2012 में उत्तर प्रदेश सरकार ने भाषा संस्थान विभाग मंत्री का दर्जा प्रदान किया
वे ऐसे पहले व्यक्ति हुए जिन्हें शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में भारत सरकार ने दो-दो बार सम्मानित किया। पहले पद्मश्री और उसके बाद पद्म भूषण से।
बकौल एक पत्रकार जब उन्होंने नीरज से पूछा कि लिखने वालों में उन्हें कौन पसंद हैं , तो गुलजार का नाम लेते हुए उन्होंने कहा ज्यादा को तो नहीं सुन पाता लेकिन गुलजार अच्छे लिखते हैं। नीरज की कविता में शराब से भी ज्यादा नशा होता है जो उतरने का नाम नहीं लेता। मंच पर अपने आखिरी दिनों में वह अपनी मर्जी से ही रहते थे। जब मन नहीं होता तो हजारों की भीड़ होने के बावजूद भी संचालक से कहकर शुरू में ही कविता पढ़कर वापस अपने होटल चले जाते थे। भगवान श्री कृष्ण ,ओशो और जीवन मृत्यु ,इन विषयों में उन्हें बहुत ज्यादा रुचि थी। इन विषयों पर बात करना ज्यादा पसंद करते थे। उनका कहना था कि ओशो (रजनीश) देहांत से पहले अपना चोगा और कलम उनके लिए छोड़ गए थे। वे कहते थे मेरी भाषा प्रेम की भाषा है। गुस्से में कभी अपना चेहरा देखना और जब प्रेम करते हो तब देखना ,अंतर समझ में आ जाएगा।

प्रशंसकों द्वारा स्वयं को खत लिखे जाने पर वे कहते थे :-

अब न गाँधी रहे न विनोबा। कहाँ गए वे लोग ?हम साहब गरीब थे पर बेईमान नहीं थे। आप लोग चिट्ठी में नीचे लिखते हैं न “आपका”. वो झूठ है। मैं जानता हूँ की मेरी साँस तक अपनी नहीं है। यकीं मानिए मैंने शब्द की रोटी खाई है जिंदगी भर , इसलिए मैं “आपका” नहीं “सप्रेम” लिखता हूँ लेकिन अंग्रेजी में “योर्स सिंसियरली” लिखना पड़ता है। कितना बड़ा झूठ है साहब !

इस कालजयी कवी को कविता लिखने की प्रेरणा सुप्रसिद्ध कवी हरिवंश राय बच्चन से मिली थी।

नीरज ने अपने एक लेख में लिखा है कि – बच्चन जी ने आकाश में घूमने वाली कविताओं को जमीं पर उतारा और सामान्य आदमी के सुख दुःख को अपनी कविताओं के माध्यम से एक नए अंदाज में पिरोया।

ऐसे अमर कवी एवं गीतकार को देशपत्र की सप्रेम श्रद्धांजली :

गीत जब मर जायेंगे फिर क्या यहाँ रह जायेगा ,

एक सिसकता आंसुओं का कारवां रह जायेगा

प्यार की धरती अगर बन्दुक से बांटी गई ,

एक मुर्दा शहर अपने दरमियाँ रह जाएगा। .