अज्ञानता से मुक्ति और ज्ञान का मार्ग प्रशस्त करते हैं 'गुरू'
(10 जुलाई, गुरु पूर्णिमा पर विशेष)

अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का अर्थ है, अज्ञानता से मुक्ति और ज्ञान की प्राप्ति। मानवीय जीवन में ज्ञान का बहुत ही महत्व है । सभी जीवो में मनुष्य जाति सबसे श्रेष्ठ इसलिए बन पाया कि उसके पास ज्ञान का धन है। ज्ञान प्राप्ति के बाद व्यक्ति स्वयं में विराजमान असत्य को निकाल कर सत्य को आत्मसात कर पाता है। ज्ञान प्राप्ति के पूर्व व्यक्ति सत्य और असत्य के भेद को समझ नहीं पाता है। व्यक्ति को ज्ञान प्रदान करने वाले को गुरु कहते हैं । भारतीय संस्कृति और रीति-रिवाज में गुरु का बहुत ही महत्व है। भारतीय समाज आदि काल से गुरु को भगवान से भी ऊंचा स्थान प्रदान करता रह रहा है । संत कबीर ने दर्ज किया है , "गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय, बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताए"। कबीर ने उक्त पंक्तियों के माध्यम से स्पष्ट कर दिया है कि भगवान और गुरु दोनों जब आपके समक्ष उपस्थित हों, तो पहले गुरु को प्रणाम अर्पित करें। किसी भी व्यक्ति के अंदर में जो भी अध्यात्मिक, पुनर्जागरण और क्रांतिकारी बदलाव आते हैं, उसमें गुरु की भूमिका अहम होती है। गुरु भगवान नहीं होते हैं, किंतु गुरु ही अपने शिष्यों को भगवान तक पहुंचाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
हम सबों को यह याद रखना चाहिए कि गुरु ही नर से नारायण बनाने की क्षमता रखते हैं । अर्थात नर से नारायण बनाती है, गुरु सत्ता । गुरु स्वयं में एक प्रकाश होते हैं। गुरु का प्रकाश शिष्य के भीतर जाए, इस निमित्त गुरु अपनी पूरी आध्यात्मिक तप शक्ति लगा देते हैं । कोई भी व्यक्ति गुरु के पास इसलिए जाता है कि वह अंधकार, अज्ञानता से मुक्ति पाएं। उसके मन में अज्ञानता और अंधकार को मिटाने की जिज्ञासा जागृत होती है। तब ही वह गुरु के पास आता है। गुरु, ईश्वरीय माया के वशीभूत व्यक्ति को सांसारिक प्रपंच से निकालकर ईश्वरीय अनुग्रह को जागृत कर अपने गुरु धर्म का पालन करता है । हमारे धर्म ग्रंथों में दो प्रकार के गुरुओं का विशेष रुप से उल्लेख मिलता है। देवताओं के गुरु बृहस्पति माने जाते हैं। वहीं दूसरी ओर दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य माने जाते हैं । दोनों गुरुओं की अलग-अलग महता है । देवताओं के गुरु, इसलिए विशेष रुप से पूछे जाते हैं कि उन्होंने सत्य मार्ग पर चलने का मार्ग प्रशस्त किया। दूसरी ओर दैत्यों के गुरु अपने शिष्यों में दुर्गुण विचारों को पुनर्जीवित कर अपने गुरु धर्म का पालन सत्य प्रेरणा से नहीं किया। फलत: दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य को जगत में वह सम्मान नहीं कर मिल पाया। गुरु अपने गुरु एवं ईश्वर की कृपा से गुरू बनते हैं। उनको जो अध्यात्मिक और ज्ञान की शक्ति प्राप्त होती है, उसका सही दिशा में प्रयोग ही श्री श्रेष्यकर है। अगर गुरु अपने शिष्यों में दुर्गुण से भरते हैं तो वे शुक्राचार्य की तरह ही जगत में पूजीत नहीं हो पाते हैं। इसलिए वर्तमान परिपेक्ष में चाहे वे आध्यात्मिक गुरु हों, शैक्षणिक गुरु हों, उपरोक्त बिंदुओं पर गंभीरता पूर्वक विचार कर सत्य मार्ग की ओर ले जाने वाला ही संदेश अपने शिष्यों के बीच बांटे ।
संपूर्ण भारतवर्ष में गुरु पूर्णिमा पर्व बड़े ही धूमधाम के साथ मनाया जाता है। इस दिन शिष्य अपने अपने गुरुओं की आराधना करते हैं । कई शिष्यों के उनके गुरु जीवित रहने पर इस दिन शिष्यगण उनकी विशेष सेवा करते हैं, और गुरु से अमृतवाणी प्राप्त करते हैं। विचारणीय बात यह है कि आषाढ़ शुक्ल पक्ष का पूर्णिमा का दिन बहुत ही पवित्र दिन माना जाता है। इस दिन शिष्यगण अपने अपने गुरुओं से दीक्षित भी होते हैं। गुरु द्वारा शिष्यों को पवित्र किया जाता है। उन्हें संकल्पित सूत्र से बांधा जाता है। हिंदू धर्म ग्रंथों में इस दिन की महत्ता पर बहुत कुछ दर्ज किया गया है । इन्हीं बातों के पाठन से ज्ञात होता है कि ईसा से 3000 वर्ष पूर्व गुरु पूर्णिमा के दिन ही महर्षि वेदव्यास जी का प्रादुर्भाव इस धरा पर हुआ था। महर्षि वेदव्यास जी ने ही चारों वेदों सहित उपनिषद और पुराणों की रचना की । इसलिए भारतीय समाज में वे पहले गुरु के रूप में पूजे जाते हैं और माने भी जाते हैं । महर्षि वेदव्यास जी का संपूर्ण जीवन शास्त्रों की रचना में बीता था । उन्होंने जिस तरह के शास्त्रों की रचना की वह कदापि एक मनुष्य संभव नहीं हो सकता । महर्षि वेदव्यास त्रिकालदर्शी के साथ जगत के कल्याण के लिए चारों वेदों, पुराणों और उपनिषद की रचना की थी । हजारों साल बीत जाने के बाद भी महर्षि वेदव्यास जी की कृति की सार्थकता उसी प्रकार बनी हुई है। आज भी लाखों करोड़ों लोगों को उनकी कृतियां मार्ग प्रशस्त करती रह रही है।
आज की बदली परिस्थितियों में गुरु की महत्ता और भी बढ़ गई है । भारतीय वांग्मय के अध्ययन से ज्ञात होता है कि किसी भी युग व काल खंड में गुरु की महत्ता कम नहीं हुई। सतयुग, द्वापर युग, त्रेता युग के काल खंडों में रचित शास्त्रों के अध्ययन से प्रतीत होता है कि किसी भी युग के कालखंड में गुरु की महिमा कम नहीं हुई बल्कि हर कालखंड में गुरु की महिमा बढ़ती ही रही थी। वाल्मिकी रचित रामायण गुरु शिष्य परंपरा को बहुत ही मजबूती के साथ स्थापित करता है । माता-पिता से भी ज्यादा हक उनके पुत्रों पर गुरु का होता है। राजा दशरथ ने कभी भी अपने पुत्रों के गुरु की बातों की अवहेलना नहीं की बल्कि उनके आदेशों का अक्षरश पालन किया। द्वापरयुग में भगवान श्री कृष्ण और सुदामा एक ही गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करते हुए मित्र बन पाए थे । दोनों ने कभी भी गुरु के आदेशों की अवहेलना नहीं किया। गुरु ने दोनों को जो भी आदेश दिया दोनों ने बखूबी निभाया। सत्ययुग कालखंड में रघुकुल के पूर्वज राजा दिलीप ने गुरु की बड़ी सेवा की थी। इस कालखंड में राजा हरिश्चंद्र का भी प्रादुर्भाव हुआ था। सत्य के निर्वहन के लिए उन्होंने अपना सब कुछ गंवा दिया, किंतु गुरु से लिया सत्य का संकल्प को कभी टूटने नहीं दिया। अर्थात हर कालखंड में गुरु को भगवान से भी ऊपर स्थान प्राप्त होता रहा है।
द्वापर में जब गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य से गुरु दक्षिणा के रूप में उसका अंगूठा मांग लिया था, तब एकलव्य ने गुरु का मान रखने के लिए हंसते-हंसते अपने अंगूठे को काटकर गुरु के चरणों में अर्पित कर दिया था। हमारे समाज में अब तक जितने भी महापुरुष अवतरित हुए सबों ने गुरु से ही ज्ञान प्राप्त किया। बीते तीनों काल खंडों के अवलोकन से यह बात प्रकाश में आती है कि राजा भी अपने दरबार में ज्ञानियों और गुरु को विशेष दर्जा प्रदान करते थे। राज दरबार में उनके लिए विशेष सिंहासन लगाकर तथा विभिन्न समस्याओं के निराकरण में उन सबों से राय ली जाती थी। राजा उनके राय को गंभीरता से लेते थे और विचार पूर्वक लागू भी करते।
गुरु पूर्णिमा पर हम सबों का नैतिक कर्तव्य बनता है कि अपने अपने गुरुओं को स्मरण करें । व्यक्ति को कभी भी अपने गुरु का अनादर नहीं करना चाहिए । संत कबीर ने इस संदर्भ में एक बड़ी अच्छी बात दर्ज की है कि "कबीरा वे नर अंध है, जो गुरु कहते और हरी रूठे गुरु ठौर है , गुरु रूठे नहीं ठौर"। भगवान अगर रूठ जाते हैं तो गुरु के यहां ठौर है। अगर गुरु रूठ जाते हैं तो ठौर के लिए कोई स्थान नहीं बचता है। इसलिए जिनके भी माध्यम से हम लोगों ने जीवन में ज्ञान रूपी प्रकाश को प्राप्त किया है। उन्हें कभी भी अनादर नहीं करना चाहिए। जब जीवन में खून निराशा उत्पन्न हो जाता है , सब ओर से सभी मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं, तब गुरु ही हम सबों के जीवन में आशा का संचार करते हैं और अवरुद्ध मार्ग खुद-ब-खुद खुल जाते हैं।