कोयले की चमक में बुझते झारखंड के सपने

हंसराज चौरसिया
झारखंड नाम में ही झाड़ और खंड का संगम है। जंगल और धरती का टुकड़ा जो प्रकृति की गोद में बसा एक अद्भुत भूभाग है। परंतु विडंबना यह है कि जिस धरती को भगवान ने खनिजों का स्वर्ग बनाया, उसी धरती पर आज युवाओं का भविष्य बंजर होता जा रहा है। लोहा, कोयला, यूरेनियम, बॉक्साइट, सोना, चूना पत्थर, अभ्रक और तांबे जैसे खनिजों से भरा यह प्रदेश अपनी समृद्धि के बावजूद दरिद्रता, बेरोज़गारी और पलायन का पर्याय बन गया है। यह वही झारखंड है जो भारत की ऊर्जा का पेट भरता है, पर उसके अपने घरों में अंधकार पसरा है। यह वही राज्य है जहां कोयले की गंध के बीच युवाओं के सपने राख हो जाते हैं। झारखंड की धरती को ईश्वर ने वह सब दिया जो किसी भी सभ्यता को समृद्ध कर सकता था। जल, जंगल और ज़मीन की त्रिवेणी। पर आज यही त्रिवेणी विनाश का प्रतीक बनती जा रही है। यहां का खनन उद्योग, जो कभी रोजगार और विकास का प्रतीक माना गया था, अब असमानता, विस्थापन और पर्यावरणीय विनाश का पर्याय बन गया है। सरकारें बदलती रहीं, योजनाएं आईं, नीतियां बनीं, पर युवाओं के जीवन में स्थायित्व नहीं आया। खनिज संपदा का प्रवाह पूंजीपतियों की तिजोरियों में सिमट गया, जबकि स्थानीय युवाओं के हिस्से में बेरोज़गारी और असुरक्षा आई। खनिज संपदा का यह खेल किसी आर्थिक नीति का परिणाम भर नहीं बल्कि एक मानसिकता का प्रतीक है, जिसमें राज्य के संसाधनों को राज्य की जनता का अधिकार नहीं माना गया। यह विकास का वह मॉडल है जो स्थानीयता को कुचलकर औद्योगिक विस्तार को राष्ट्रनिर्माण का नाम देता है। खनन कंपनियां जंगलों को काटकर धरती की छाती चीरती हैं, नदियां सूखती हैं, गांव उजड़ते हैं और अंततः युवाओं के पास बचता है केवल धूल भरी सड़कें और टूटे हुए सपनों की विरासत। झारखंड के युवा जो कभी अपने खेतों में काम करते थे या जंगलों में प्रकृति के साथ जीते थे, आज विस्थापित हो चुके हैं। उनका जीवन ठेकेदारों की दया पर निर्भर है। कोयले की खदानों में दम घोंटती हवा के बीच वे कुछ रुपये की मजदूरी पर दिन गुजारते हैं। उनके शरीर पर खदान की कालिख है और मन पर असुरक्षा की मोटी परत। यह वह पीढ़ी है जो खनिजों की चकाचौंध में अपनी पहचान खो रही है।संसाधनों की यह लूट केवल आर्थिक नहीं है, यह सांस्कृतिक भी है। जब कोई खदान खुलती है तो उसके साथ खुलता है एक नया अध्याय जिसमें गांव की मिट्टी विस्थापित होती है, पेड़ उजड़ते हैं और पुरखों के स्मारक मिट्टी में समा जाते हैं। आदिवासी संस्कृति जो झारखंड की आत्मा है, धीरे-धीरे कॉरपोरेट विकास की मशीनों के नीचे दबती जा रही है। पर विकास का यह भ्रम कितना टिकाऊ है, जब स्थानीय लोग ही विस्थापित होंगे तो उस विकास की आत्मा कौन बचाएगा। खनिज संपदा का दोहन झारखंड की राजनीति का भी सबसे बड़ा हथियार बन चुका है। सत्ता की कुर्सियां अक्सर उन्हीं के इर्दगिर्द घूमती हैं जो इन खदानों से निकले लाभ के हिस्सेदार होते हैं। नीतियां ऐसी बनाई जाती हैं जो कॉरपोरेट्स के लिए आसान हों लेकिन जनजातीय युवाओं के लिए जटिल। परिणाम यह है कि यहां की नई पीढ़ी बेरोज़गारी के दलदल में फंसी है। सरकारी नौकरियां घटती जा रही हैं और निजी क्षेत्र में अवसर सीमित हैं। एक तरफ रांची, धनबाद, बोकारो और चाईबासा के आसमान में खनिज उद्योगों की चिमनियां धुआं उगलती हैं, वहीं दूसरी तरफ गांवों में शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है। तकनीकी शिक्षा की पहुंच न के बराबर है। इससे स्थानीय युवाओं के पास आधुनिक उद्योगों में काम करने की योग्यता नहीं बन पा रही है। बाहरी लोग इन पदों पर आसीन हो जाते हैं और स्थानीय लोग मजदूरी तक सीमित रह जाते हैं। खनिज संपदा ने यहां की धरती का सीना चीर दिया है, पर उस चीरन से विकास की रोशनी नहीं बल्कि निराशा की धूल निकली है। नदियां अब जहरीले रसायनों से भर चुकी हैं। खेतों में कोयले की राख गिरती है। हवा में उड़ते कण बच्चों के फेफड़ों में घर बना चुके हैं। फिर भी इसे विकास कहा जाता है। यह विकास वह दर्पण है जिसमें अमीर की समृद्धि झलकती है और गरीब की हड्डियां सूखती हैं। यहां के युवाओं के लिए खनिज संपदा का दूसरा नाम विस्थापन है। जो गांव खदानों के पास हैं, वहां के बच्चे स्कूल छोड़ने को मजबूर हैं क्योंकि हर कुछ महीनों में विस्फोटों से धरती हिलती है और छतें गिर जाती हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास—सब कुछ खनन के आगे गौण हो गया है। जिन गांवों में कभी लोकगीत गूंजते थे, अब वहां मशीनों की आवाज़ है। यह वही झारखंड है, जहां खदानों की गहराइयों में काम करने वाला मजदूर अपने ही राज्य के विकास का मूक दर्शक है। खनिज संपदा का वास्तविक लाभ किसे मिला, यह प्रश्न झारखंड के हर युवा के मन में जलता है। कंपनियों ने अरबों का मुनाफा कमाया, सरकार ने राजस्व पाया, पर युवाओं को क्या मिला? टूटी हुई ज़मीन, बंजर खेत और धुएं से भरा आसमान। जब प्राकृतिक संपदा का न्यायपूर्ण वितरण नहीं होता, तब असंतोष जन्म लेता है और यही असंतोष कई बार नक्सलवाद जैसे आंदोलनों को जन्म देता है। राज्य की नीतियां इस असंतोष को अपराध मानती हैं, जबकि यह समाज की वेदना का विस्फोट है। आज झारखंड का युवा एक चौराहे पर खड़ा है। एक ओर उसकी जड़ों को खोदता विकास है, दूसरी ओर उसकी पहचान को निगलता पलायन। वह अपने ही राज्य में पराया हो चुका है। जो मिट्टी उसके पूर्वजों की थी, वह अब कंपनियों की संपत्ति बन चुकी है। उसके सपनों की कीमत तय होती है बाजार में, और उसकी आवाज़ दब जाती है नीतियों की फाइलों के नीचे। झारखंड की खनिज संपदा तब तक वरदान नहीं बन सकती, जब तक यह जनता के हाथों में नहीं आएगी। विकास की परिभाषा तब तक अधूरी रहेगी, जब तक इस राज्य का युवा अपनी भूमि का स्वामी नहीं बनेगा। खनिजों की यह धरती तभी सचमुच स्वर्णभूमि कहलाएगी, जब यहां का युवा मजदूर नहीं, मालिक बनेगा। जब कोयले की राख से भविष्य का अंधकार नहीं, बल्कि उजाला निकलेगा। जब झारखंड का हर युवा अपने हक की आवाज़ बुलंद करेगा और यह राज्य अपनी मिट्टी की खुशबू में आत्मनिर्भरता की पहचान खोजेगा। आज जरूरत इस बात की है कि खनिज नीति को स्थानीयता के केंद्र में रखा जाए। खनन से होने वाले राजस्व का सीधा लाभ शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार पर खर्च हो। युवा पीढ़ी को तकनीकी प्रशिक्षण दिया जाए ताकि वे अपने ही राज्य के उद्योगों में सम्मानपूर्वक काम कर सकें। पर्यावरणीय पुनर्वास अनिवार्य बनाया जाए ताकि धरती का सीना चीरने के बाद उसकी मरहम भी लगाई जा सके। यदि झारखंड अपने खनिजों का स्वामी नहीं बन पाया, तो वह अपनी पहचान खो देगा। यह धरती केवल कोयले की नहीं, बल्कि चेतना की धरती है। यहां के जंगलों में इतिहास की आत्मा बसी है, यहां की नदियां संघर्ष की साक्षी हैं। यह राज्य केवल खदानों का समूह नहीं, बल्कि मनुष्यता का प्रतीक है। इसलिए अब समय आ गया है कि झारखंड की खनिज संपदा को एक नए दृष्टिकोण से देखा जाए। विकास के नाम पर विनाश नहीं, बल्कि संतुलन की परंपरा को पुनर्जीवित किया जाए। झारखंड का युवा अगर अपनी मिट्टी से जुड़ा रहेगा तो कोई खदान उसकी उम्मीदों को नहीं खोद पाएगी। कोई कंपनी उसकी अस्मिता को नहीं खरीद पाएगी। यह वही धरती है जिसने संघर्षों को जन्म दिया है और यह वही धरती है जो फिर एक बार अपनी संतानों से कह रही है अपनी जमीन बचाओ, तभी अपना भविष्य बचा पाओगे। खनिज संपदा तभी आशीर्वाद बन सकती है जब वह न्याय के साथ बटे, जब उसकी चमक युवाओं के चेहरे पर उजाला लाए न कि उनकी आंखों से सपने छीन ले। यही वह सत्य है जो झारखंड की मिट्टी कहती है धरती की गोद में खजाने नहीं, जीवन बसना चाहिए।