पति के प्रति स्त्री शक्ति की निष्ठा को दर्शाता है 'करवा चौथ'
(10 अक्टूबर, कार्तिक कृष्ण पक्ष चतुर्थी, 'करवा चौथ' व्रत पर विशेष)

भारत में प्रचलित पर्व व त्यौहार हमारी राष्ट्रीय एकता की पहचान के साथ समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार की खुशहाली केंद्रित है। इन पर्वों का ताना-बाना ऋतु के साथ ऐसा बना हुआ है कि इससे संपूर्ण देश के कृषकों की जीविका भी जुड़ी हुई है। चूंकि आदिकाल से भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है। आज भी संपूर्ण देश में औद्योगिक क्रांति आने के बावजूद भारत एक कृषि प्रधान देश बना हुआ है। कृषकों द्वारा उत्पादित अनाज और फल हमारे पर्वों के पूजन के निमित्त प्रमुख वस्तुएं होती हैं । ऋतु के प्रमुख अनाज और फल देवताओं को अर्पित किए जाते हैं। पूजन के बाद इन अनाज और फल से बने प्रसाद ग्रहण और वितरण किए जाते हैं। करवा चौथ का त्यौहार भी हमारी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। हम सभी जानते हैं कि किसी भी परिवार में पति और पत्नी मुख्य धूरी होते हैं। उसके ही इर्द गिर्द आगे की पीढ़ी अपना आकार ग्रहण करती है। पति कमाने वाला होता है। स्त्री गृहस्थी चलाती हैं । इसलिए पति और पत्नी को दोनों को स्वस्थ होना जरूरी है। इस बात को ध्यान में रखकर ही हमारे ऋषि मुनियों ने करवा चौथ पर्व की परंपरा प्रारंभ की थी ।
करवा चौथ से संबंधित कई कथाएं हमारे समाज में प्रचलित है । इन कथाओं ने हमारे पूरे समाज को बहुत ही मजबूती के साथ बांधकर रखा है। बीते हजारों वर्षों के दरमियान अखंड भारत में कई विदेशी आक्रांताओं का शासन रहा था। भारत की संस्कृति और पहचानको मिटाने की कई आक्रांताओं द्वारा कोशिश भी की गई थी, लेकिन हजारों वर्षों की लंबी गुलामी के बाद भी हमारी संस्कृति और हमारी पहचान उसी रूप में अनवरत बनी हुई है। इसका सबसे बड़ा देन में प्रचलित पर्व और त्योहार हैं। यह लिखते हुए गर्व होता है कि आज भारतीय मूल के लाखों की संख्या में लोग लगभग एक सौ से अधिक देशों में रह रहे हैं। वे सभी आज भी इन पर्वों और त्योहारों के कारण भारतीय संस्कृति से जुड़े हुए हैं।
करवा चौथ का व्रत पति-पत्नी के प्रेम, परिवार की एकता और स्त्री-शक्ति के त्याग व संकल्प का प्रतीक है। यह व्रत न केवल पति की दीर्घायु के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि दाम्पत्य प्रेम, सामाजिक एकता और स्त्री-शक्ति की निष्ठा को भी दर्शाता है। आज की बदली परिस्थिति में स्त्रियां भी काम से जुड़ चुकी हैं। स्त्रियां भी पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ रही हैं । चाहे जो भी क्षेत्र हो, स्त्रियां हर क्षेत्र में अपना परचम लहरा रही हैं। इसके बावजूद देश की स्त्रियां अपनी परंपरा का भी निर्वहन पूरी निष्ठा के साथ करती चली आ रही हैं। यह अपने आप में एक बड़ी बात है । स्त्रियां दिन भर अपने अपने काम में मन लगाते हुए पति की दीर्घायु होने की कामना के साथ निर्जला उपवास रहकर चंद्रोदय के बाद अपने पति का मुख देखकर औरत को पूरा करती है । संपूर्ण विश्व में भारत एक मात्र ऐसा देश है, जहां स्त्रियां अपने-अपने पति की दीर्घायु की कामना को लेकर निर्जला उपवास रखती हैं । करवा चौथ के अलावा भी कई अन्य व्रत हैं ,जो पति, परिवार और समाज के कल्याण के निमित्त किए जाते हैं।
करवा चौथ का इतिहास पौराणिक कथाओं से जुड़ा है। एक कथा के अनुसार, करवा नामक एक स्त्री ने अपने पति की प्राण की रक्षा यमराज से की थी। उसकी निष्ठा और दृढ़ता से प्रसन्न होकर यमराज ने उसके पति को जीवनदान दिया। तभी से करवा चौथ का व्रत रखा जाता है। इस एक कथा ने हमारे संपूर्ण समाज को एक सूत्र में बांधने का काम किया है । पति अपने परिवार का मुख्य केंद्र में होता है। उसकी रक्षा की सर्वप्रथम जवाबदेही उसकी अर्धांगिनी की ही होती है। इस कथा के माध्यम से हर एक स्त्री का दायित्व बनता है कि पति स्वस्थ और दीर्घायु बने, इस निमित्त कदापि अपने व्यवहार से पति को किसी भी परिस्थिति में नाराज नहीं करना चाहिए । घर की स्त्रियों को यह भी याद रखना चाहिए कि अगर वह अपने पति की दीर्घायु होने की कामना के साथ व्रत करती हैं,तो उसके पति के साथ घर के अन्य सदस्यों पर भी इसका बहुत ही अनुकूल प्रभाव पड़ता है। घर के सभी सदस्य गण उक्त स्त्री के इस निर्जला उपवास से अपने-अपने परिवार के सदस्यों के प्रति पूरी निष्ठा बरतने की सीख लेते हैं। आज भी देश के करोड़ों ऐसे परिवार हैं, जो संयुक्त रूप से रह रहे हैं। सभी एक दूसरे की खुशी और दुःख में साथ-साथ बराबर के हिस्सेदार बने हुए हैं।
करवा चौथ की हिंदू रीति रिवाज से धार्मिक मान्यता है कि यह व्रत, कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चन्द्रोदय व्यापिनी चतुर्थी, करक चतुर्थी को मनाया जाता है। इस व्रत पर विवाहित स्त्रियां पति की दीर्घायु, स्वास्थ्य एवं अपने सौभाग्य हेतु निराहार रहकर चन्द्रोदय की प्रतीक्षा करती हैं और उदय उपरांत चंद्रमा को अर्घ्य अर्पित कर भोजन करती हैं। इस दिन प्रातः स्नान उपरांत सुंदर वस्त्र धारण कर, हाथों में मेंहंदी लगा, अपने पति की लंबी आयु, आरोग्य व सौभाग्य के लिए स्त्रीयां चंद्रोदय तक निराहार रहकर भगवान शिव-पार्वती, कार्तिकेय, गणेश एवं चंद्रदेव का पूजन करती हैं। पूजन करने के लिए बालू अथवा सफेद मिट्टी की वेदी बनाकर उपरोक्त सभी देवों को स्थापित किया जाता है। इस व्रत का सांसारिक मायने यह है कि सूर्य की उपस्थिति में स्त्रियां उपवास रहकर उससे ऊर्जा प्राप्त कर खुद स्वस्थ होने का वरदान प्राप्त करती हैं। इसका वैज्ञानिक पक्ष भी यही कहता है। भारत में प्रचलित अधिकांश पर सूर्य की ही उपस्थिति में उपवास रहने की परंपरा है । इस परंपरा का जो भी निर्वहन करते हैं, अन्य लोगों की तुलना में ज्यादा स्वस्थ रह पाते हैं। वहीं दूसरी ओर चंद्रोदय के साथ ही पति और चंद्रमा को देखकर स्त्री व्रत को पूरा करती हैं। चंद्रमा शीतलता का प्रतीक है । विपरीत परिस्थितियों में भी पति और पत्नी को शीतलता का त्याग नहीं करना चाहिए। शीतलता का यहां अर्थ है, धैर्य और संयम। यही धैर्य और संयम पूरे परिवार को एक सूत्र में बांधे रखता है।
करवा चौथ व्रत के दिन हमारी स्त्रियां अपने अपने घरों में परिवार के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर शुद्ध घी में आटे को सेंककर उसमें शक्कर अथवा खांड मिलाकर मोदक लड्डू व नैवेद्य बनाती हैं। चूंकि शरद ऋतु का आगमन हो चुका होता है। ऋतु के अनुकूल हमारे खान-पान होने चाहिए। करवा चौथ के व्रत में उपयोग में होने वाले प्रसाद भी हमारे शरीर को ऊर्जा प्रदान करने वाले हैं। व्रत धारी स्त्रियों को बालू अथवा सफेद मिट्टी की वेदी पर शिव-पार्वती, स्वामी कार्तिकेय, गणेश एवं चंद्रमा की स्थापना करना चाहिए। मूर्ति के अभाव में सुपारी पर नाड़ा बाँधकर देवता की भावना करके स्थापित करना चाहिए। करवा चौथ के पूजन प्रक्रिया में निम्न मंत्र का जाप करना चाहिए। ॐ शिवायै नमःॐ नमः शिवायॐ षण्मुखाय नमः , ॐ गणेशाय नमः,ॐ सोमाय नमः ।