बिरसा का “उलगुलान”, धरती आबा ने आदिवासी अस्मिता की रक्षा का अलख जगाया

बिरसा ने पहले तो अपने मीठे और प्रभावी प्रवचनों से आदिवासियों को उनकी अपनी संस्कृति पर गर्व और स्वाभिमान करना सिखाया। शराब, जुआ आदि के बुरे असर को समझाया। जब लोगों में अपनी आदिवासी अस्मिता को ले कर आत्मविस्वास और स्वाभिमान भर गया,तब बिरसा ने “उलगुलान” यानि कि विद्रोह का आह्वान किया।

इतिहास की किताबों के पन्नों से देखें तो बिरसा मुंडा, झारखंड के मुंडा विद्रोह के नायक थे जिन्होंने आदिवासी समाज को संगठित करते हुए बाहरी ठेकेदारों और अंग्रेज़ अधिकारियों के खिलाफ उलगुलान यानि जंग छेड़ी थी। उन्हें गिरफ्तार किया गया तथा , जेल में ही उनकी मृत्यु हो गयी। इस से अधिक, न तो इतिहास के पाठ्यपुस्तकों में लिखा जाता है, और न प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछा जाता है। हर विद्यार्थी के लिए बिरसा का इतना लघु परिचय, काफी मान लिया जाता है। मगर क्या इतनी सी जानकारी दे कर हम बिरसा के महान व्यक्तित्व के साथ अन्याय नहीं कर रहे? बिरसा का वह व्यक्तित्व जो चमकता है उन लोकगीतों में, जिन्हें खूंटी से ले कर चक्रधरपुर तथा ओड़िसा के सुंदरगढ़ तक आज भी याद किया जाता है।

शिक्षा के लिए बिरसा का धर्म बदल दिया 

जन्म हुआ वीरवार को अतः नाम रखा गया बिरसा। बचपन अन्य मुंडा बच्चों की तरह खेतों में काम करते हुए तथा नदी किनारे बाँसुरी बजाते हुए बीता। पढ़ाई के लिए चाईबासा के गोस्सनर स्कूल में दाखिला मिला जहां धर्मांतरण अनिवार्य था। धर्म बदलने पर नाम रखा गया डेविड पूर्ति (दाऊद)। एक दिन पादरी से उलझ पड़ा जब पादरी ने कहा कि हमने धर्मांतरण के बाद तुम आदिवासियों के लिए स्वर्ग का द्वार खोल दिया है। लड़के ने पलट कर कहा कि हमारे अच्छे खासे स्वर्ग को लूट कर हमें नरक जैसी ज़िन्दगी देने के बाद , कौन सा स्वर्ग देने वाले हो? वहां जो अंग्रेजों से मोह भंग हुआ तो बढ़ता ही गया। इसी बीच फारेस्ट एक्ट के तहत सिंहभूम के जंगलों की बंदोबस्ती कर के सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया। आदिवासी जिन जंगलों में सदियों से मालिक के हैसियत से रहते थे, वहां किरायदार हो गए। रही सही कसर बाहर से आ बसे लकड़ी और बीड़ी पत्ता के ठेकेदारों ने पूरी कर दी। आदिवासी समाज एक ऐसे संक्रमण काल से गुज़र रहा था जहां बिरसा को साफ दिख रहा था कि समय दूर नहीं कि आदिवासी अपनी सारी धरोहर खो कर मात्र एक मजदूर बन के रहने वाला है।

आदिवासी अस्मिता का महत्व और "उलगुलान" का आह्वान 

बिरसा ने दो तरफा फार्मूला निकाला। उसने पहले तो आदिवासियों को उनकी अपनी संस्कृति पर गर्व और स्वाभिमान करना सिखाया। शराब, जुआ आदि के बुरे असर को समझाया। ईसाई धर्म का प्रलोभन रोकने के लिए कई प्रयास किये। उसके प्रवचन सुनने के लिए लोग दूर दूर से आने लगे। जैसा गठीला शरीर , उनती ही मधुर वाणी और सरल व्यक्तित्व, किसी देवता की तरह। लोगों में इतना गहरा असर होता था इस 20 साल के लड़के की वाणी का, कि वो किसी पैगम्बर से कम नहीं लगता था उन्हें। जब लोगों में अपनी आदिवासी अस्मिता को ले कर आत्मविश्वास और स्वाभिमान भरा, तब बिरसा ने “उलगुलान” यानि कि विद्रोह का आह्वान किया और कई जगहों पर अंग्रेज़ सरकार तथा उनके ठेकेदारों पर एक साथ हमला शुरू हुआ। सरकार ने काफी निर्दयता से इस विद्रोह को कुचलने का प्रयास किया। बिरसा के बारे में सूचना देने के एवज में भारी नकद का ऐलान हुआ। अंततः बिरसा मुंडा अपने ही एक साथी की ग़द्दारी से गिरफ्तार किए गए और जेल में ही उनकी मृत्य हो गई। अपनी अल्प आयु में लोगों के अंदर विश्वास और शक्ति का संचार करते हुए उन्हें अपनी धरती को बचाने का संदेश दिया। सही मायने में “धरती-आबा” थे बिरसा।

मात्र 25 वर्ष में हुए शहीद 

जिसने अपने जीवन के मात्र 25 वसंत देखे, जो कि अपने लोगों में “सिंह बोंगा” यानी स्वयं भगवान सूर्य का रूप माना जाता था, उसे समाज में क्या स्थान मिला वह देख कर बड़ा अजीब लगता है। लौह पुरुष लिखिए तो गूगल में आती है पटेल की तस्वीर, बापू लिखिए तो आती है गांधी की तस्वीर, गुरुदेव लिखिए तो आती है टैगोर की तसवीर.. मगर , धरती आबा लिखने पर आती है धरती आबा सुपरफास्ट एक्सप्रेस ट्रेन की तस्वीर ! उस व्यक्तित्व को हमने मात्र एक “आदिवासी” नेता घोषित कर के बिल्कुल सीमित कर दिया। जैसा कि समाज ने मान लिया हो कि “गैर-आदिवासियों” को क्या सरोकार है बिरसा के इतिहास से!

झारखंड के जाने माने कवि अनुज लुगुन कहते हैं कि आदिवासी विद्रोह के बारे में इतिहासकारों ने अक्सर दो गलतियां की हैं। पहली ये मान्यता कि आदिवासी विद्रोह अचानक ही किसी नियम या कानून की खिलाफत में खड़े होते थे। और दूसरी मान्यता ये कि ये कानून में संशोधन कर देने से ये विद्रोह अपने आप खत्म हो जाते थे। इस तरह हमने आदिवासी विद्रोह को कभी भी अन्य किसान विद्रोहों या नागरिक विद्रोहों के बराबर का दर्जा नहीं दिया।