डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की राजनीति त्याग और बलिदान से ओतप्रोत

दो निशान, दो विधान को जन मुद्दा बनाकर इसकी समाप्ति के लिए डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जन आंदोलन की शुरुआत की थी।

डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की राजनीति त्याग और बलिदान से ओतप्रोत

विजय केसरी की कलम से

महान स्वाधीनता सेनानी डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की राजनीति त्याग और बलिदान से ओतप्रोत है। उनका संपूर्ण जीवन भारत की एकता और अखंडता में बीता था । देश की आजादी के लिए उन्होंने जो कुछ भी किया, अद्वितीय और बेमिसाल था। उनका संपूर्ण जीवन देश की आजादी और जम्मू कश्मीर का पूर्णरूपेण भारत संघ में विलय में बीता था। वे एक कुशल राजनीतिक दूरद्रष्टा थे । वे बेमिसाल संगठनकर्ता भी थी । उन्होंने देश के राष्ट्रवादी विचार धारा के राजनीतिज्ञ साथियों के साथ मिलकर भारतीय जनसंघ पार्टी की स्थापना की थी । बहुत कम समय में यह देश की एक बड़ी पार्टी बन गई । 1977 में जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर भारतीय जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया था । जब जनता पार्टी टूटी तब भारतीय जनसंघ,भारतीय जनता पार्टी में जब दिल हो गई । यह पार्टी अब देश की सत्ता पर काबीज है। डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जो अखंड भारत का जो सपना देखा था , वह साकार होती चली जा रही है।
 डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने एक देश में दो निशान और दो विधान का जबरदस्त विरोध किया था । इसी बात को लेकर उन्होंने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा  भी दिया था। दो निशान, दो विधान को जन मुद्दा बनाकर इसकी समाप्ति के लिए डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जन आंदोलन की शुरुआत की थी।  कश्मीर की धरती पर उन्होंने दो निशान , दो विधान के विरुद्ध जबरदस्त जन आंदोलन छेड़ा था।  कश्मीर में आंदोलन के क्रम में ही डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी को राज्य सरकार द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया।  उन्हें कश्मीर के ही एक जेल में बंद कर दिया गया। यह खबर आग की तरह  संपूर्ण देश में फैल गई थी। उनके पक्ष में देश के कई बड़े नेता मुखर्  हुए थे,  किंतु देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने सबो की बातों को अनसुना कर दिया था। यह नेहरू की बड़ी भूलों में एक भूल थी।  नेहरु जी ने डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी  को कश्मीर के जेल से छुड़ाने का रत्ती भर भी प्रयास नहीं किया था। उस समय जम्मू कश्मीर के तख्त पर बतौर प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला विराजमान थे।  शेख अब्दुल्ला दो निशान, दो विधान के प्रबल पक्ष कार थे । वह यह बिल्कुल नहीं चाहते थे कि भारत का कोई नेता कश्मीर में उनकी नीति का विरोध करें । कुछ ही दिनों में जेल के अंदर डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी का संदेहास्पद अवस्था में मृत्यु हो गई।  उनकी इस तरह जेल में मृत्यु हो जाने के बाद भी देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का मौन रहना,  कई तरह के सवालों को जन्म देता है।  डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे देश के बड़े नेता का कश्मीर के एक जेल में इस तरह संदेहास्पद मृत्यु हो जाना अपने आप में बड़ी बात थी। भारत सरकार द्वारा डॉक्टर मुखर्जी के मृत्यु के कारणों को पता लगाने के लिए ढंग से कोई सरकारी स्तर पर जांच तक नहीं कराई गई।

  डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी जम्मू कश्मीर के सचिवालय सहित सभी संवैधानिक संस्थाओं में सिर्फ तिरंगा लहराए जाने जैसे अरमान  लिए बिना स्वर्ग सिधार गए  ।  देश को आजादी 15 अगस्त 1947 को जरूर मिली थी, लेकिन यह आजादी खंडित मिली थी । ऊपरी तौर पर  जम्मू कश्मीर का विलय भारत संघ में जरूर हो गया था,  किंतु जम्मू कश्मीर का स्वतंत्र स्टेटस था । 566 रियासतों का विलय भारत संघ में जरूर हो गया था।  सिर्फ एक रियासत जम्मू कश्मीर के भारत में विलय में इतनी कौन सी दिक्कतें आ रही थी ? यह सवाल आज भी उसी तरह बरकरार है । जब पाकिस्तानी फौजों ने कश्मीर को हथियाने के लिए कश्मीर हमला किया, जम्मू कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने भारत संघ के विलय पत्र पर हस्ताक्षर किया । भारतीय  फौंजो ने समय पर पहुंचकर पाकिस्तानी हमले को निरस्त कर दिया।  पाकिस्तानी फौजियों को हटाकर ही हमारे सैनिक ही दम लिए। युद्ध में भारत की जीत हुई थी । तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इस बात को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ चले गए और ऊपर से सीजफायर का भी आदेश दे दिया। कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा पाक हुकूमत के गिरफ्त में चला गया । युद्ध में भारत जीत कर भी नेहरू जी की नीति के कारण हार गया था । अब सवाल यह उठता है कि इन तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद शेख अब्दुल्ला को जम्मू-कश्मीर का प्रधानमंत्री क्यों बनाया गया  ?  क्या भारत सरकार इतने संवेदनशील सीमावर्ती  राज्य के बेहतरी के लिए कोई बड़ा व साहसिक कदम नहीं उठा सकते थे ? क्या किसी  अन्य राष्ट्रवादी सोच के कश्मीरी को वहां का प्रधानमंत्री नियुक्त नहीं कर सकते थे। ?  मेरे विचार से जम्मू कश्मीर समस्या का समाधान राजनीतिक  व कूटनीतिक तरीके से  किया जाना चाहिए था । किंतु इतने संवेदनशील राज्य के प्रति  नेहरू इतना उदास क्यों थे ?  यह बात आज भी समझ से परे है।  जबकि वल्लभभाई पटेल  जम्मू कश्मीर समस्या का स्थाई  समाधान चाहते थे ।वे कई बार अपनी नीतियों से नेहरू जी को अवगत कराया था। उन्होंने जम्मू कश्मीर समस्या का स्थाई समाधान का प्रस्ताव भी रखा था।  लेकिन नेहरू टस से मस नहीं हुए।  बीते 75 वर्षों में क्या जम्मू कश्मीर में हुआ?  यह बात आज किसी से छुपी हुई नहीं है।
1952 में जम्मू कश्मीर संविधान सभा ने झंडे के  मसले में तिरंगा को राष्ट्रीय ध्वज माना और जम्मू कश्मीर के झंडा को राज्य का झंडा माना। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और जम्मू कश्मीर के प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला ने केंद्र और राज्य की शक्तियों को परिभाषित करने वाले एक समझौता पर राजी हुए । इस समझौते की धारा 4 में लिखा गया था कि “केंद्र सरकार केंद्रीय झंडा के साथ राज्य के पर सहमति जताती है, लेकिन राज्य सरकार इस पर सहमत है कि राज्य का झंडा केंद्रीय झंडा का प्रतिरोध ही नहीं होगा।  यह भी मान्यता दी जाती है कि केंद्रीय झंडे का जम्मू और कश्मीर में वही दर्जा और स्थिति होगी जो शेष भारत में,  लेकिन राज्य में स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े ऐतिहासिक कारणों के लिए राज्य के झंडे को जारी रखने की जरूरत और मान्यता देता है । अब सवाल यह उठता है कि जब जम्मू कश्मीर का भारत संघ में  विलय हो गया था  तब इस तरह के समझौता करने की क्या जरूरत आन पड़ी थी ?
डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी, नेहरू के इस नीति का जोरदार विरोध किया था । वे जानते थे कि इसका हश्र क्या होगा ? वे जीवन के अंतिम क्षण तक एक राज्य दो विधान का विरोध करते रहे थे।
देश को यह भी जानना चाहिए कि जम्मू कश्मीर राज्य का झंडा कैसा था?  लाल रंग के झंडे पर हल का निशान और उस पर तीन सफेद पट्टियां दर्ज थी।  यह तीन सफेद पट्टियां राज्य के तीन क्षेत्रों जम्मू, कश्मीर, लद्दाख का प्रतिनिधित्व करती थी। जब देशभर में स्वाधीनता आंदोलन जोरों पर था,  तब 1931 के लगभग डोगरा शासक के विरुद्ध कश्मीरियों का जबरदस्त जन आंदोलन चल रहा था।  इस आंदोलन में 21 कश्मीरी मारे गए थे। तभी एक आंदोलनकारी ने शहीदों पर कपड़ा डाल दिया था।  फलस्वरूप इस कपड़े को ही राज्य का  पहला झंडा मान लिया गया था ।  देश भर में चल रहे आंदोलन की आधारशिला समाजवाद थी, इसलिए इस झंडा में बाद में हल अंकित कर दिया गया था।

1952 से 2019 तक लगातार 67 वर्षों तक जम्मू कश्मीर में दो निशान लहराता रहा  था। 5 अगस्त, 2019 को भारत सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 और 35 से हटा दिए जाने के बाद दो निशान और दो विधान का प्रस्ताव ही निरस्त हो गया । दो निशान के कारण ही जम्मू-कश्मीर में इतनी अशांति बनी रही थी । बीते 75 वर्षों में 41000 से अधिक लोगों की जानें गई थी। लाखों कश्मीरी पंडितों को अपनी जन्म भूमि से बेदखल होना पड़ा था। अब कश्मीर से धारा 370 हट गया है । 25 अगस्त को जम्मू कश्मीर सचिवालयलय  पर तिरंगा फहरा दिया गया है । इसके साथ ही राज्य के सभी संवैधानिक संस्थानों फर तिरंगा लहर रहा है । जम्मू कश्मीर अब केंद्र शासित प्रदेश के रूप में तब्दील हो चुका है ।लद्दाख को जम्मू कश्मीर से अलग कर केंद्र शासित प्रदेश के रूप में मान्यता दिया गया है।  निश्चित तौर पर यह तब्दीलियां अपने आप में बड़ी राजनीतिक बातें हैं । पूर्व में देश के रणनीतिकारों ने जो भूलें की थी , मोदी सरकार ने  इस भूल को दुरुस्त करने का एक साहसिक कदम उठाया  और डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के सपनों साकार किया है। कश्मीर में धारा 370 और 35a हटा दिए जाने के बाद भी विदेशी साजिशें कम नहीं हुई है। विदेशी शक्तियां देश की एकता और अखंडता पर जबर्दस्त प्रहार करती चली जा रही है। ऐसी शक्तियों से मुकाबल हम सब एकजुट होकर कर सकते हैं।