खनन संबंधित तमाम इलाकों में कुपोषण, कोयला क्षेत्र से जुड़े हर व्यक्ति के हितों की रक्षा ज़रूरी
कोयला खदानों में अभी जिस तरह का रोजगार ढांचा है, उससे जाहिर होता है कि अधिकतर लोग संविदा पर नियुक्त हैं और प्रवासी मजदूर हैं। कोयला उद्योग बहुत ही ‘परजीवी’ किस्म की इंडस्ट्री है।
एनर्जी ट्रांजिशन भारत जैसे जटिल सामाजिक और आर्थिक परिदृश्यों वाले देश की एक बड़ी ज़रूरत है। लेकिन इस ट्रांजिशन का न्यायसंगत तरीके से करना भी उतना ही मुश्किल है। विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में एनर्जी ट्रांजिशन का मतलब संगठित क्षेत्र के लाखों लोगों के साथ-साथ असंगठित क्षेत्र के करोड़ों लोगों के हितों को सुरक्षित करते हुए नेट-जीरो वाले भविष्य को संवारना है। निश्चित रूप से यह एक दुरूह काम है और हर पहलू को ध्यान में रखकर बुनी गयी सुगठित नीति और उसके सटीक क्रियान्वयन के जरिये ही हम अपने लक्ष्य को हासिल कर पाएंगे। मगर हम शायद अभी इसके तमाम पहलुओं पर नजर नहीं डाल सके हैं।
कार्बन एमिशन को कम करने की भारत की महत्वाकांक्षा को बढ़ावा देते हुए ज़्यादा से ज़्यादा राज्य अब कोयले से चलने वाली किसी भी नयी परियोजना में निवेश नहीं करने के लिये प्रतिबद्ध नज़र आ रहे हैं। मगर कोयला सम्पदा के लिहाज से समृद्ध दो राज्यों झारखंड और छत्तीसगढ़ के लिए एनेर्जी ट्रांजिशन के तहत कोयले से बनने वाली बिजली को तिलांजलि देकर अक्षय ऊर्जा को अपनाने से पहले एक बड़ा सवाल खड़ा है कि इस रूपांतरण के कारण उन करोड़ों दिहाड़ी मजदूरों का क्या भविष्य होगा जो अपनी रोजीरोटी के लिये कोयला आधारित अर्थव्यवस्था पर निर्भर हैं। कोविड-19 महामारी ने कोयले के खेल में छुपी आर्थिक अनिश्चितताओं का पर्दाफाश किया है जिससे आने वाले दशक और उससे आगे के दृष्टिकोण पर सवाल उठे हैं।
‘कार्बनकॉपी’ ने बुधवार को इस विषय पर चर्चा करने के लिये एक वेबिनार आयोजित किया। इसमें इस बात पर चर्चा की गयी कि कैसे मजदूरों को उनके रोज़गार में आ रहे इस बदलाव के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है और कैसे जस्ट या न्यायपूर्ण ट्रांजिशन को लागू करने का आर्थिक तौर पर लाभकारी हल हासिल कर सकते हैं। इसके ज़रिये भारत को एक स्थायी भविष्य के रास्ते पर आसानी से आगे ले जाया जा सकता है।
वेबिनार में जस्ट ट्रांजिशन, आई फॉरेस्ट की निदेशक श्रेष्ठा बनर्जी, हेल्थ केयर विदाउट हार्म की क्लाइमेट एंड हेल्थ कैंपेनर श्वेता नारायण और सीईईडब्ल्यू के फेलो वैभव चतुर्वेदी ने हिस्सा लिया जबकि पर्यावरण संबंधी विषयों को कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार हृदयेश जोशी ने वेबिनार का संचालन किया।
श्वेता नारायण ने ऊर्जा व्यवस्था के न्यायपूर्ण रूपांतरण की प्रक्रिया में लोगों की उम्मीदों को खास तरजीह देने और जस्ट ट्रांजिशन करते वक्त कोयले के कारण क्षेत्र को हो चुके नुकसान की भरपाई की जवाबदेही पहले से ही तय करने की जरूरत पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि अभी हम सिर्फ रूपांतरण की बात कर रहे हैं लेकिन इस दौरान कोयले के कारण पर्यावरण ,मिट्टी , हवा और पानी पर क्या असर पड़ा और उसकी भरपाई कौन करेगा, उस पर हम बात नहीं कर रहे हैं।
श्वेता ने कहा कि कोयले का चलन तो खत्म कर दिया जाएगा लेकिन अब तक उसकी वजह से हवा, पानी और मिट्टी को जो नुकसान हुआ है, उसे कैसे ठीक किया जाएगा। हमने कोयला क्षेत्र में स्वास्थ संबंधी जितने भी अध्ययन किये हैं, उनमें पाया गया है कि खनन से संबंधित तमाम इलाकों में कुपोषण सबसे ज्यादा होता है। अगर विकास हो रहा है तो किसका हो रहा है, यह सवाल पूछना बहुत जरूरी है। कोयले के कारण स्वास्थ्य और पर्यावरण पर अभी तक जिस तरह का असर हुआ है उसके निदान का खर्च कौन उठाएगा। यह एक वास्तविकता है। इसके बारे में ज्यादा चर्चा नहीं होती।
उन्होंने सवाल किया कि जो लोग पावर प्लांट में काम कर रहे हैं क्या उनका स्वास्थ्य वैसा ही रहेगा कि वह वैकल्पिक रोजगार में भी पूरी क्षमता से काम कर पाएंगे। सामाजिक सुरक्षा को लेकर कौन-कौन से प्रावधान किए जा रहे हैं, इस पर कोई बात ही नहीं हो रही है। सामाजिक तंत्र का जिस तरह से सीमांतकरण हुआ है, उसकी भरपाई कैसे होगी। जंगल भी एक आजीविका है, उसमें निवेश करना जरूरी है और लोगों की क्या राय है यह जानना भी जरूरी है। हम विकल्पों की तरफ देख रहे हैं लेकिन उनका बुनियादी ढांचा कहां है? हमें फिर से सोचना पड़ेगा और जमीनी लोगों को साथ में लेकर यह जानना पड़ेगा कि आखिर विकल्प क्या है।
श्वेता ने कोयला क्षेत्र में रह रहे लोगों की आजीविका को लेकर व्याप्त भ्रांतियों का जिक्र करते हुए कहा कि आमतौर पर यह माना जाता है कि कोयला क्षेत्र में रहने वाले सभी लोग कोयले पर निर्भर करते हैं। ऐसा मानना सही नहीं है। कोयला खदानों में अभी जिस तरह का रोजगार ढांचा है, उससे जाहिर होता है कि अधिकतर लोग संविदा पर नियुक्त हैं और प्रवासी मजदूर हैं। कोयला उद्योग बहुत ही ‘परजीवी’ किस्म की इंडस्ट्री है। सामाजिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो इसमें जातीय विभेद बहुत होता है। ऊर्जा उत्पादन में रूपांतरण के वक्त हमें उन गलतियों को दोहराने से बचना होगा जो हमने कोयला आधारित बिजली व्यवस्था बनाने के दौरान की थीं। एनेर्जी ट्रांजिशन करने से पहले हमें उन लोगों की उम्मीदों को जानना-समझना होगा जो इस रूपांतरण से सबसे ज्यादा प्रभावित होने जा रहे हैं।
जस्ट ट्रांजिशन, आई फॉरेस्ट की निदेशक श्रेष्ठा बनर्जी ने कहा कि झारखण्ड और छत्तीसगढ़ की खदानों में लाखों की संख्या में दिहाड़ी मजदूर काम करते हैं। झारखण्ड की ही बात करें तो वहां बहुत बड़े पैमाने पर असंगठित श्रमशक्ति है। संगठित कामगारों के मुकाबले असंगठित श्रमिकों की संख्या लगभग तीन गुनी है। भारत जैसे बड़े देश में ऊर्जा के न्यायपूर्ण रूपांतरण में सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम कोयला अर्थव्यवस्था पर निर्भर कामगारों को उनका रोजगार छूटने पर उसकी भरपाई कैसे करेंगे।
उन्होंने कहा कि भारत में पांच राज्यों के करीब 65 जिलों से देश में कुल कोयला उत्पादन का 95 प्रतिशत हिस्सा आता है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि कोयला क्षेत्रों में रहने वालों में गरीब लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है। खासतौर पर जब हम झारखंड जैसे राज्य के बात करते हैं जहां लोग 100 साल या उससे ज्यादा समय से लाखों लोग अपनी रोजीरोटी के लिये पूरी तरह से कोयले पर निर्भर हैं। भारत के कोयला क्षेत्र के सामने सबसे बड़ी समस्या इस क्षेत्र की इन मुश्किलों को दूर करने की है। अक्सर यह माना जाता है कि कोयले का कंसंट्रेशन और रोजगार के मामले में उस पर निर्भरता सिर्फ उन्हीं लोगों की होती है, जो कोयला ब्लॉक के तीन किलोमीटर के दायरे में होते हैं, मगर सच्चाई कुछ और ही है। यह एक स्थापित तथ्य है कि कोयला अर्थव्यवस्था का दायरा कोल ब्लॉक के सिर्फ तीन किलोमीटर के दायरे तक सीमित नहीं है बल्कि इसमें वे मजदूरपेशा और ढुलाई करने वाले लोग भी शामिल हैं जो दूसरे जिलों से आकर काम करते हैं। रोजी रोटी के मामले में कोयले पर निर्भरता की बात करें तो यह तस्वीर अलग हो जाती है। जस्ट ट्रांजिशन करते वक्त हमें इस पूरे दायरे में आने वाले लोगों के हितों का भी ख्याल रखना होगा।
श्रेष्ठा ने कहा कि असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के कम से कम पांच सदस्यों के परिवार की औसत मासिक आमदनी 10,000 रुपये से ज्यादा नहीं होती। ‘मल्टीडाइमेंशनल पॉवर्टी इंडेक्स’ के मुताबिक कोयला अर्थव्यवस्था वाले राज्यों में आधे से ज्यादा आबादी गरीब है। उनके पास न तो बुनियादी सुविधाएं हैं और न ही शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएं मौजूद हैं। जब हम कोल ट्रांजिशन की बात करते हैं तो हमें कोयला दिहाड़ी श्रमिकों की बहुआयामी समस्याओं से सबसे पहले निपटना होगा।
सीईईडब्ल्यू के फेलो वैभव चतुर्वेदी ने ऊर्जा के न्यायसंगत रूपांतरण से जुड़े आर्थिक पहलुओं का जिक्र करते हुए कहा कि दरअसल आर्थिक रूपांतरण ही असल मुद्दा है। न्यायसंगत रूपांतरण तो उसका एक पहलू मात्र है। आने वाले समय में जस्ट ट्रांजिशन के सवाल पर अनेक देशों का आर्थिक वजूद दांव पर होगा। सबसे ज्यादा असर जीवाश्म ईंधन के लिहाज से सर्वाधिक सम्पन्न उन देशों पर पड़ेगा जिनसे यह कहा जाएगा कि अगर पर्यावरण को बचाना है तो वे अपनी इस प्राकृतिक सम्पदा का इस्तेमाल न करें। अगर हम आय वर्ग की बात करें तो उच्च आय वर्ग और निम्न आय वर्ग के बीच खाई बहुत चौड़ी हो गयी है। ऐसे में समानतापूर्ण विकास एक बहुत बड़ा मुद्दा बन गया है।
उन्होंने कहा कि जस्ट ट्रांजिशन को लेकर यह सबसे ज्वलंत सवाल है कि ज्यादा कोयला खनन करने वाले जिलों को सबसे ज्यादा नुकसान होगा? इससे बचने के लिये हमें सुगठित योजना बनानी होगी। जस्ट ट्रांजिशन कोई पांच या 10 साल आगे की योजना नहीं है, बल्कि 40-50 साल बाद की योजना है। उस वक्त दौर ही कुछ और होगा। हमें इस रूपांतरण की कीमत चुकाने लायक बनाने के लिये यह सुनिश्चित करना होगा कि प्रभावित परिवारों के बच्चे ज्यादा शिक्षित और कार्यकुशल हों।
वैभव ने जस्ट ट्रांजिशन को एक अच्छा अवसर करार देते हुए कहा ‘‘मेरा मजबूत मानना है कि कोई भी संकट एक अवसर लेकर आता है। जस्ट ट्रांजिशन एक संकट है लेकिन इसमें अवसर भी है। यह बहुत महत्वपूर्ण पहलू है। जस्ट ट्रांजिशन में हम 40-50 साल आगे की बात कर रहे हैं। अगर हम कल्पना करें तो पायेंगे कि 50 साल बाद भारत का भविष्य कैसा होगा। निश्चित रूप से भारत के भविष्य की तस्वीर बिल्कुल अलग होगी। छत्तीसगढ़ और झारखंड में 2070 में क्या होगा, यह बेहद कौतूहल का विषय है। एक अनुमान के मुताबिक हमारी सालाना प्रति व्यक्ति आय 14000 डॉलर हो जाएगी। इस वक्त चीन में प्रति व्यक्ति आय 9000 डॉलर है।’’
उन्होंने कहा कि अगर हमें नेटजीरो का लक्ष्य हासिल करना है तो हमें कुल ऊर्जा उत्पादन में जीवाश्म ईंधन की हिस्सेदारी को 5 प्रतिशत से कम करना होगा। अगर हम जलवायु परिवर्तन की दिक्कतों को दूर रखना चाहते हैं तो ऐसा करना पड़ेगा। यह अच्छी बात है कि राजनीतिक स्तर पर भी चीजें धीरे-धीरे बदल रही हैं। दिल्ली जैसे अमीर राज्य में बिजली का बिल भी एक राजनीतिक विषय हो गया। इसलिए सीसीएस जैसी टेक्नोलॉजी नहीं आ पा रही है। क्योंकि इसकी वजह से बिजली बहुत महंगी हो जाएगी।
वेबिनार के संचालक वरिष्ठ पत्रकार हृदयेश जोशी ने इस मौके पर कहा कि जस्ट ट्रांजिशन तभी सम्भव है जब कोयला क्षेत्र से जुड़े हर व्यक्ति के हितों की रक्षा करते हुए एनेर्जी ट्रांजिशन का लक्ष्य हासिल किया जाए। श्रम कानूनों को लेकर सरकारों के मौजूदा रवैये को देखते हुए इस बारे में कोई भी बात पक्के तौर पर कहना मुश्किल है। हम चाहे जितनी बातें करें लेकिन जमीन अभी उस तरह की तैयार नहीं हुई है। सरकारों ने मजदूरों के हितों से जुड़े कानूनों को कमजोर ही किया है। उनकी यूनियन बनाने के विधिक अधिकार छीने हैं। श्रम संगठन बनाने के लिये तरह-तरह की शर्तों और औपचारिकताओं को जोड़कर प्रक्रिया को जटिल बनाया गया है। जस्ट ट्रांजिशन एक बहुत संवेदनशील विषय है। देश के करोड़ों लोगों का भविष्य कोयला आधारित अर्थव्यवस्था पर टिका है, लिहाजा एनेर्जी ट्रांजिशन जैसी बड़ी और जटिल कवायद को अंजाम देते वक्त उससे सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले श्रमिकों के हितों के संरक्षण को सबसे अधिक तरजीह दी जानी चाहिये।