"डाकिया अब डाक नहीं लाता":- अनंत धीश अमन
सुनहरी भावनाओं का संगम अब हमारे दर पर नहीं आता, हां अब कोई चिट्ठी या खत हमारे घर नहीं आता।
गया । सुनहरी भावनाओं का संगम अब हमारे दर पर नहीं आता, हां अब कोई चिट्ठी या खत हमारे घर नहीं आता।
हिमालय की वादियों को उकेरते, बसंत के फूलों को संजोते, एवं मरु हृदय के खबर वाला खत अब हमारे या आपके घर नहीं आता। जिसमें अलंकार, श्रृंगार, छंद, बंध, रास, रंग, प्यास, अंग शेरों शायरी हुआ करती थी, वो वाला खत जिसमें लिखने वाले व्यक्ति का सिर्फ संवेदना हीं नहीं अपितु उसकी तस्वीर भी हमारी नजरों में उतर आती थी वह खत चिट्ठी अब डाकिया नहीं लाता जिसके इंतजार में कितने खत और लिख डालते थे। वो सुनहरी चमक इंतजार का अब आंखों में नज़र नही आता "हां डाकिया अब डाक नहीं लाता।
घर में वो मेज या टेबुल भी नजर नहीं आता जिसपर टेबुल लैंप या दीपक हुआ करता था, जिसके प्रकाश से सिर्फ शब्द हीं नहीं बल्कि संवेदना उकेरी जाती थी। तमस के अंधेरे में जाग-जाग कर संवेदना की रोशनी की शहनाई बजाई जाती थी, और आंखें जिससे नई चमक पाती थी, वो अब नजर नहीं आता वो मेज़ लैंप दीपक कुछ भी स्टोर रुम में भी नजर नहीं आता। जहां मोर पंख या स्याह की शीशी और कलम दवात का भंडार हुआ करता था। जिसके रंग से शब्द सिर्फ लिखें हीं नहीं अपितु तराशें जाती थी। वह कुछ अब नज़र नहीं आता हां डाकिया अब डाक नहीं लाता।
प्रेम उत्साह उमंग व्यंग्य खबर दर खबर का अब संचार नहीं होता शब्द कितने भी लिखें हो संवेदना का अब विस्तार नहीं होता। अब आंखों में किसी खत का इंतजार नहीं होता। हां डाकिया अब डाक नहीं लाता ढहती बहती संवेदना का कोई प्रतिकार नहीं होता हां अब शब्दों में कोई कलाकार नहीं होता। खत अभी शेष हैं संवेदना और भी विशेष है ।