126 वर्ष पूर्व हजारीबाग नगर में पंच मंदिर चौक से 'होलिका दहन' की शुरुआत हुई थी
पंच मंदिर चौक से ही प्रेरणा लेकर हजारीबाग के अन्य चौराहों पर होलिका दहन की यह परंपरा शुरू की गई थी। पंच मंदिर चौक में शुरू की गई होलिका दहन परंपरा की शुरुआत स्व हरसहाय मल,स्व मैदा कुंवरी, स्व पंडित गोपीनाथ शर्मा के पिता आदि ने मिलजुल कर की थी।

होली पर्व से एक दिन पूर्व फागुन पूर्णिमा के दिन रात्रि मे 'होलिका दहन' की एक परंपरा है । होलिका दहन को 'अगजा' के नाम से जाना जाता है। देश में प्रचलित यह परंपरा काफी पुरानी है। आज से लगभग 126 वर्ष पूर्व हजारीबाग नगर में पंच मंदिर चौक से इस परंपरा की शुरुआत हुई थी। इस संबंध में मिली जानकारी के अनुसार राधा कृष्ण पंच मंदिर से होलिका दहन की प्रारंभ होने की कहानी जुड़ी हुई है। राधा कृष्ण पक्ष मंदिर का निर्माण 1880 से प्रारंभ हो गया था । लगभग 20 वर्षों बाद यह मंदिर बनकर तैयार हुआ था। सन 1901 में राधा कृष्ण पंच मंदिर में स्थापित मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा और पूजा पाठ के साथ ही पंच मंदिर चौक पर सामूहिक रूप से होलिका का दहन का शुभारंभ हुआ था। इस चौराहे का नामकरण राधा कृष्ण पंच मंदिर के शुभ उदघाटन के बाद ही पंच मंदिर चौक पड़ा था।
126 वर्ष पूर्व पंच मंदिर चौक में होलिका दहन जिस विधि विधान के साथ शुरू की गई थी, आज भी यह परंपरा जारी है। पंच मंदिर चौक से ही प्रेरणा लेकर हजारीबाग के अन्य चौराहों पर होलिका दहन की यह परंपरा शुरू की गई थी। पंच मंदिर चौक में शुरू की गई होलिका दहन परंपरा की शुरुआत स्व हरसहाय मल,स्व मैदा कुंवरी, स्व पंडित गोपीनाथ शर्मा के पिता आदि ने मिलजुल कर की थी। पुरोहित के रूप में स्वर्गीय पंडित गोपीनाथ लंबे समय तक पंच मंदिर चौक पर होलिका दहन की पूजा करते रहे थे। आज उनके ही वंशज पंडित पुरुषोत्तम शर्मा बीते पच्चीस वर्षों से होलिका दहन की पूजा कर रहे हैं ।
1880 के आसपास राजस्थान से कई अग्रवाल और जैन समाज के लोग हजारीबाग आकर बसे थे। तब हजारीबाग नगर एक गांव के समान था। नगर के अधिकांश मकान खपरैल के ही थे। पूरे नगर में आम, इमली, पीपल, बरगद, बेल आदि के हजारों पेड़ लगे हुए थे।
होलिका दहन एक पवित्र पूजा विधान के रूप में माना जाता है। राजस्थान से आकर बसे अग्रवाल समाज की महिलाएं इस दिन का इंतजार बहुत ही बेसब्री के साथ करती रही हैं। फागुन पूर्णिमा के दिन रेड़ी गाछ के एक डाल को इस चौक पर बहुत ही विधि विधान के साथ स्थापित किया जाता है । मारवाड़ी महिलाएं एक महीना पूर्व से ही गाय के गोबर से बड़कुल्या बना कर सुखा रखतीं हैं । होलिका दहन के दिन रेड़ी के डाल की पूजा कर बड़कुल्या अर्पित कर देती है। उसके बाद कुछ लड़कियां वहां जमा कर दी जाती है। होलिका दहन से पूर्व आसपास के हिंदू धर्मावलंबी लंबी अपने-अपने घरों में बने पकवान अगजा पर समर्पित कर देते हैं। ऐसी मान्यता है कि अगजा पर पकवान समर्पित करने से उनके घर में कभी भी अन धन की कमी नहीं होगी।
देश की आजादी के बाद स्व फूल चंद्र अग्रवाल, स्व नाथूलाल अग्रवाल,स्व कस्तूरमल,स्व हीरालाल महाजन, स्व पांचू गोप,स्व यादुनथ बाबू, स्वर्गीय गुरु सहाय ठाकुर आदि ने अपने-अपने मुहल्ले के चौराहों पर होलिका दहन को विस्तार दिया था। इसी कालखंड में हिरणाकश्यप की बहन होलिका और भक्त प्रहलाद की मूर्ति अगजा में समर्पित होनी शुरू हो गई थी। जबकि होलीका दहन के पश्चात भक्त प्रहलाद की मूर्ति को वहां से तुरंत निकाल ली जाती है। यह परंपरा आज भी उसी रूप में अनवरत जारी है।
1950 के आस पास स्वर्गीय मुन्ना साव, स्वर्गीय द्वारका साव, स्वर्गीय बसंत ठठेरा, स्वर्गीय डोमन साहू, स्वर्गीय काशीलाल अग्रवाल,स्वर्गीय सुरेश केसरी,स्वर्गीय बद्री साव, स्वर्गीय प्रभु चंद साहू, स्वर्गीय रामबिलास खंडेलवाल आदि पंच मंदिर के होलिका दहन कार्यक्रम को आकर्ष कबनाने में महती भूमिका अदा किए थे। अग्रवाल समाज के लोग अगजा से आग के गोले निकालकर अपने-अपने घर ले जाते हैं । इसी आग के गोले से अपने-अपने घरों में बने चूल्हे को जलते हैं । और उस चूल्हा पर पकवान बनाते हैं। जबकि आज घर-घर में रसोई गैस उपलब्ध है। इसके बाद भी यह परंपरा भी उसी रूप में जीवित है।
वर्तमान समय में नई युवा पीढ़ी होलिका दहन कार्यक्रम से जुड़े हैं। आज हजारीबाग नगर में सौ से अधिक जगहों पर होलिका दहन की जाती है । इसके बाद ही लोग होली पर्व मनाते हैं।