18 साल बाद साहिबगंज DTO ने आदिवासी पहाड़िया को “अंग्रेज़ी” में नोटिस भेजा
जिस व्यक्ति के नाम साहिबगंज ज़िले का परिवहन कार्यालय सूचना जारी करता है वह व्यक्ति अंग्रेज़ी बिलकुल भी नहीं जानता है।
ग़ज़ब हैं झारखंड के DTO बाबू । एक तरफ़ झारखंड के मुखिया हेमंत बाबू झारखंड की जनता को ” गुड मॉर्निंग” की जगह जोहार कहने को कहते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ झारखंड के सरकारी बाबू यहाँ के आदिवासियों को अंग्रेज़ी में नोटिस थमा देते हैं। यह जानकर आपको आश्चर्य होगा की जिस व्यक्ति के नाम साहिबगंज ज़िले का परिवहन कार्यालय सूचना जारी करता है वह व्यक्ति अंग्रेज़ी बिलकुल भी नहीं जानता है।
जानिए पूरा वाक़या : साहिबगंज ज़िला के रंगा थाना गंगूपाड़ा के रहनेवाले भीमा पहाड़िया को झारखंड सरकार ने वर्ष 2005 में जीवन यापन के लिए एक तीन पहिया वाहन अनुदान पर दी थी।अब लगभग 18 वर्ष बाद साहिबगंज के परिवहन पदाधिकारी ने भीमा पहाड़िया को उक्त वाहन का बकाया टैक्स चुकाने के लिए नोटिस भेजा है। भीमा पहाड़िया के अनुसार यह नोटिस रंगा थाना के चौकीदार के द्वारा उसे प्राप्त हुआ है। परिवहन पदाधिकारी, साहिबगंज के द्वारा भेजे गये नोटिस की भाषा अग्रेजी में है। प्रथम दृष्टया यह पत्र सत्य प्रतीत नहीं होता है क्योंकि न तो इसमें कोई पत्रांक क्रमांक अंकित है और न ही इसकी भाषा विश्वसनीय है। देशपत्र ने जब भीमा पहाड़िया से बात की तो उसने बताया की उसे अंग्रेज़ी समझ नहीं आती है। भीमा ने बताया की गाड़ी मिलने के बाद वह लगभग दो साल तक उसका उपयोग कर पाया। उसने बताया की उसे टैक्स से संबंधित कोई जानकारी नहीं थी । बीते लगभग 18 वर्षों के दौरान उसे कभी भी जानकारी नहीं मिल पाई की उक्त वाहन का टैक्स भी देना पड़ता है। भीमा के अनुसार वह अभी आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है और किसी भी तरह का कर चुकाने में समर्थ नहीं है। भीमा का कहना है कि यदि उसे पहले ही ( वाहन देते समय) यह बात बता दी जाती तो संभव था की किसी भी तरह से कर चुका दिया जाता।
सवाल नंबर एक : जैसा कि हम सभी जानते भी हैं और केंद्र तथा राज्य सरकार का स्पष्ट दिशा निर्देश है की हमारे हिंदुस्तान में कहीं भी, कोई भी सरकारी विभाग में या तो मातृभाषा “हिन्दी” का इस्तेमाल हो या फिर संबंधित राज्य का क्षेत्रीय भाषा का इस्तेमाल किया जाय। लेकिन साहिबगंज परिवहन कार्यालय से निकली सूचना पत्र की भाषा अंग्रेज़ी में है। अंग्रेज़ी में जनता को सूचना प्राप्त होना, सूचना पत्र की सत्यता/वास्तविकता पर संशय खड़ा करती है। इस मामले में साहिबगंज DTO से संपर्क करने का हर संभव प्रयास किया गया लेकिन उन्होंने फ़ोन करनेवाले सभी नंबरों को ब्लॉक कर दिया। फिर झारखंड के परिवहन सचिव से संपर्क करने पर उनके PS ने बताया कि आम जन को किसी भी तरह की सूचना देने के लिए सिर्फ़ हिन्दी भाषा का इस्तेमाल किया जाता है। जब उनसे इस अंग्रेज़ी के सूचना पत्र की बात कि तो उन्होंने साहिबगंज DTO से बात करने और अपने यहाँ इसकी लिखित शिकायत करने को कहा। जब देशपत्र की टीम ने कहा की हम आपको इसकी सूचना दे रहे हैं तो उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा की आपको जो भी कहना है लिख कर दीजिए, तब हम इसकी जाँच करवायेंगे। बग़ैर लिखित के हम कुछ नहीं करेंगे। ऐसे में निष्कर्ष यही निकलता है की एक आम आदमी यदि सरकार के जाल/तंत्र में एक बार फँस गया तो फिर सरकारी कार्यालय के चक्कर लगाते रहिए। आपके चप्पल घिस जाएँगे सिर्फ़ समस्या को समझने में।कोई भी सरकार या सरकारी मुलाजिम आपकी मदद नहीं करेगा, बल्कि आपको इतना उलझा देगा की फिर दोबारा कोई सरकारी मदद लेने की हिम्मत भी नहीं जुटा पायेंगे।
सवाल नंबर दो : भीमा पहाड़िया ने वर्ष 2005 में झारखंड सरकार से अनुदान पर वाहन लिया था। किसी भी सरकारी विभाग में कई कर्मचारी/अधिकारी होते हैं। सरकारी योजना के प्रचार-प्रसार, क्रियान्वयन और निष्पादन हेतु सरकारी कर्मचारियों की एक फ़ौज रहती है, जिन्हें सरकार की तरफ़ से मोटी तनख़्वाह दी जाती है। वे काम क्या करते हैं? उन्हें किस बात की तनख़्वाह दी जाती है? भीमा पहाड़िया को अनुदान देने के मामले में कोई तो सरकारी अधिकारी होगा ही जिसकी ज़िम्मेवारी होगी की भीमा पहाड़िया को अनुदान से संबंधित सारी जानकारी दी जाय। इस योजना से भीमा का जीवन में कैसे सुधार हो मुख्य मक़सद यही होना चाहिए, न की सरकारी अनुदान देकर उसके जीवन को और भी मुश्किल में डालना।
सवाल नंबर तीन : अब सवाल है ज़िला परिवहन कार्यालय साहिबगंज से, की आप पिछले 18 वर्षों तक आख़िर किस बात का इंतज़ार कर रहे थे? क्या आपके पास कर्मचारी नहीं थे जो झारखंड सरकार के राजस्व संग्रहण पर ध्यान दे सकें। 18 वर्ष कोई अल्प समय नहीं होता है। इन 18 वर्षों में तो आप ही के नियमानुसार वाहन का निबंधन भी रद्द कर दिया जाता है। या तो आप इन नियमों से अनभिज्ञ हैं या फिर राजस्व संग्रहण के अतिरिक्त दबाव में आपसे गलती हो गई। दूसरा सवाल की आपने एक आदिवासी को अंग्रेज़ी में सूचना भेजा है। इसके पीछे आपकी कोई तो सोच होगी। या फिर आप समझते होंगे कि झारखंड के आदिवासी अच्छी तरह अंग्रेज़ी जानते हैं। माना कि वे अंग्रेज़ी समझ भी लें, तो क्या यह न समझ लिया जाय कि सरकार के द्वारा हिन्दी और क्षेत्रीय भाषा के इस्तेमाल करने की बात कहना सिर्फ़ जनता को बहलाने के नुस्ख़े हैं। हिन्दी और क्षेत्रीय भाषा के संरक्षण के नाम पर सिर्फ़ ख़ानापूर्ति होती है और इसके नाम पर फण्ड बनाकर आपस में बंदरबाँट कर लिया जाता है।