भाजपा सबक लेगी या फिर बिहार और दिल्ली भी गंवाएगी ?

भाजपा सबक लेगी या फिर बिहार और दिल्ली भी गंवाएगी ?

झारखंड में भाजपा की पराजय से यही बात सामने आई है कि केंद्रीय सत्ता में रहते हुए कोई दल चाहे जितने बेहतर काम कर ले वह राज्य सरकार से आम जनता की अपेक्षाएं जो होती है उन्हें पूरा नहीं कर सकती. राज्य सरकार से जनता की अपेक्षाएं अलग होती है और केंद्र सरकार से अलग. ज्यादा समय नहीं हुआ है जब भाजपा का डंका बज रहा था और एक के बाद एक राज्यों में वह जीत हासिल कर रही थी, लेकिन पिछले कुछ समय से भाजपा एक के बाद एक राज्य गंवा रही है. पहले मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ गंवाए, फिर महाराष्ट्र. महाराष्ट्र का मामला थोड़ा अलग है और इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि उसने हरियाणा किसी तरह बचा लिया, लेकिन झारखंड में भाजपा अपनी हार का ठीकरा किसी और पर नहीं फोड़ सकती. सुशासन के मोर्चे पर रघुवर सरकार कमजोर साबित हुई. भाजपा झारखंड में अपना गठबंधन भी सही तरीके से नहीं बना सकी और यह तो साफ है कि केवल केंद्र सरकार की योजनाओं के सहारे राज्यों के चुनाव नहीं जीते जा सकते.

आज का मतदाता यह बखूबी समझता है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव में किन मुद्दों के आधार पर वोट डालना है. करीब 7 महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में शानदार जीत हासिल की थी तो राष्ट्रीय मुद्दों और साथ ही अपनी जनकल्याणकारी नीतियों के कारण. इसके बाद हरियाणा में उसने कमजोर प्रदर्शन किया और महाराष्ट्र शिवसेना की दगाबाजी से खोया. झारखंड की हार का अवलोकन करते समय भाजपा को इस पर विचार करना होगा कि भितरघात, गुटबाजी और नेताओं की महत्वाकांक्षा कितनी घातक साबित होती है.

रघुवर दास को बतौर निर्दलीय प्रत्याशी हराने वाले सरयू राय की छवि एक ईमानदार नेता की रही है. वह निर्दलीय चुनाव लड़ने के लिए विवश हुए क्योंकि भाजपा ने इन्हें प्रत्याशी बनाने से इनकार कर दिया था. सरयू राय जमशेदपुर पश्चिम सीट से अपना टिकट तय मानकर चल रहे थे, लेकिन भाजपा नेतृत्व ने उन्हें चुनावी मैदान में नहीं उतारने का फैसला किया. इसके बाद उन्होंने जमशेदपुर पूर्वी सीट से रघुवर दास के खिलाफ ताल ठोंक दी और उन्हें मात भी दे दी. उन्हें रघुवर विरोधियों का भी भरपूर साथ मिला. पशुपालन घोटाले से लेकर मधु कोड़ा के कारनामे उजागर करनेवाले सरयू राय का टिकट काटने से आम भाजपा कार्यकर्ता भी निराश हुए. यह निराशा अन्य अनेक स्थानों पर भी नजर आई, क्यूंकि भाजपा कार्यकर्ताओं ने यह देखा कि किस तरह दूसरे दलों से आए दागदार छवि वाले नेताओं को आनन-फानन भाजपा में शामिल कर उम्मीदवार घोषित कर दिया गया. अंतिम समय में दागदार छवि वाले उम्मीदवारों को भाजपा में शामिल करना भी काफी घातक साबित हुआ जिसका असर अन्य जगहों पर देखने को मिला. ऐसा लगता है कि भाजपा नेतृत्व ने रघुवर दास की लोकप्रियता का आकलन किए बिना ही घर-घर रघुवर नारे को मंजूरी दे दी. लगता है कि इस नारे ने भितरघात को और तेज किया. समझना कठिन है कि रघुवर विरोधियों की सक्रियता के बावजूद संगठन बेपरवाह क्यों बना रहा? राजनीति में सक्रिय लोगों की महत्वाकांक्षा को साधना आसान काम नहीं होता. अगर सरयू राय फिर से सत्ता हासिल करने में सहायक थे तो फिर यह नहीं देखा जाना चाहिए था कि उनके मुख्यमंत्री रघुवर दास से रिश्ते कैसे हैं? कायदे से उन्हें साधने की जिम्मेदारी तो खुद रघुवर दास को उठानी चाहिए थी. ऐसा नहीं किया गया और नतीजा सामने है. निसंदेह सामने यह भी है कि खुद सरयू राय भी सत्ता से बाहर हो गए

झारखण्ड एक आदिवासी बहुल राज्य है. 5 साल पहले भाजपा की जीत में पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा का भी हाथ था. वह चुनाव एक तरह से अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में लड़ा गया था, लेकिन चुनाव हारने के कारण अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री की दौड़ से बाहर हो गए और रघुवर दास मुख्यमंत्री बने. उन्होंने 5 साल सरकार अवश्य चलाई लेकिन शायद भाजपा में भितरघात की नींव उसी समय पड़ गई थी जब यह स्पष्ट हो गया कि पार्टी नेतृत्व के आदिवासी नेता को आगे करके ही चुनाव मैदान में उतरेगा. यह अपने आप में चुनौती थी. एक तो गैर आदिवासी नेता को आगे किया गया और दूसरे यह नहीं देखा गया कि पार्टी के आदिवासी नेता इस पर क्या सोच रहे हैं? और वे रघुवर के पीछे पूरी ताकत के साथ खड़े हैं या नहीं? ऐसा तब हुआ जब बाबूलाल मरांडी बहुत पहले ही भाजपा से अलग हो चुके थे. जाहिर है कि विरोधी दलों ने इस बात को उछाला कि भाजपा आदिवासियों की परवाह नहीं कर रही है. आखिर कोई भी दल आदिवासी बहुल राज्य में इस समुदाय के नेताओं के बगैर आगे कैसे बढ़ सकता है? ऐसा नहीं है कि भाजपा के पास आदिवासी नेता नहीं थे लेकिन पता नहीं क्यों उन्हें हाशिए पर रखना सही समझा गया. क्योंकि ऐसा ही किया गया इसलिए हैरानी नहीं कि आदिवासियों के बीच गलत संदेश गया हो और भितरघात भी तेज हुई हो. यह भी ध्यान रहे कि चुनाव के पहले रघुवर सरकार में शामिल रही आजसू ही भाजपा गठबंधन से अलग हो गई थी. अगर दोनों साथ मिलकर चुनाव लड़ते तो सत्ता के करीब पहुंच जाते.
नए साल में दिल्ली और बिहार के विधानसभा चुनाव होने वाले हैं.

5 साल पहले दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने प्रचंड जीत हासिल की थी. उसने ऐसे समय जोरदार जीत हासिल की थी जब नरेंद्र मोदी को अपने दम पर केंद्र की सत्ता में आए हुए कुछ ही महीने हुए थे. पिछले कुछ महीने से केजरीवाल सरकार ने जिस तरह अपनी छवि को सुधारने पर जोर दिया है उससे स्पष्ट है कि इस बार भी तगड़ा मुकाबला होगा. आमतौर पर किसी भी पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं का मनोबल पार्टी की जीत हार के सिलसिले से ही बनता है. झारखंड की हार दिल्ली के भाजपा कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने वाली नहीं कही जा सकती. दिल्ली में कांग्रेस भी कमर कस रही है. इधर कांग्रेस ने जिस तरह क्षेत्रीय दलों के साथ समन्वय बनाकर अपनी स्थिति सुधारी है वह किसी से छुपी नहीं, लेकिन उसके लिए दिल्ली में ऐसी कोई सुविधा नहीं है. वह नागरिकता संशोधन कानून, नागरिकता रजिस्टर और जनसंख्या रजिस्टर यानि सी ए ए, एन आर सी और एन पी आर के सहारे अपने पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश अवश्य करेगी. यह समय बतायेगा कि इसका लाभ मिलेगा या नहीं लेकिन इस समय जो राजनीतिक स्थितियां स्थितियां चल रही है उनसे भाजपा को चिंतित होना चाहिए. इसलिए और भी क्यूंकि विरोधी राजनीतिक दल यह दुष्प्रचार करने में लगे हुए हैं कि झारखंड में उसकी हार नागरिकता संशोधन कानून के कारण हुई. निःसंदेह यह तथ्यों से परे एक नकारात्मक प्रचार है. लेकिन यह भी सही है कि इसका सफलतापूर्वक सामना करके ही भाजपा कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने में समर्थ हो पाएगी.