आज महिलाएं हर क्षेत्र में  परचम लहरा रही हैं 

(7 मार्च "अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस " पर विशेष)

आज महिलाएं हर क्षेत्र में  परचम लहरा रही हैं 

आज विश्व भर की महिलाएं हर क्षेत्र में परचम लहराती चली जा रही हैं। भारत की महिलाएं विकसित देशों की तुलना में कुछ पीछे जरूर पड़ रही हैं, लेकिन उनकी गति बहुत तेजी से आगे बढ़ रही हैं । देश की आजादी के बाद बीते 77 वर्षों में भारत की महिलाएं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी तरक्की की हैं। यह भारतवर्ष के लिए एक अच्छी खबर है। सर्वविदित है कि प्रकृति व ईश्वर ने सृष्टि के संचालन के लिए स्त्री एवं पुरुष को उत्पन्न किया, ताकि सृष्टि की रचना पूर्ण हो सके। इसके साथ ही उन्होंने पशु -पक्षी और विभिन्न प्रकार के कीट -पतंगों को भी उत्पन्न किया । सबों को मिलाकर एक सूत्र में ऐसा बांधा गया कि सभी एक दूसरे के पूरक बन गए । स्त्री- पुरुष नामक दो लिंगों में विभक्त नर नारी को ऐसा बांधा गया ताकि वे दोनों साथ साथ जीवन बिता सकें। जानवरों, कीट- पतंगों को भी नर -मादा की श्रेणी में विभक्त कर प्रकृति ने इसे और भी मोहक बना दिया । हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार इस सृष्टि में 84 लाख छोटे बड़े जीव निवास करते हैं । इन 84 लाख जीवों में मनुष्य जी को सबसे उत्तम माना गया । मनुष्य की सभ्यता और उसके विकास की एक लंबी कहानी है।

वर्तमान समय , जिसे हम सब आधुनिक काल कहते हैं । यहां तक पहुंचने में इस मनुष्य को लंबे सफर के दौर से गुजरना पड़ा है । हमारा भारतीय समाज पुरुष प्रधान है । संभवत विश्व के लगभग देशों में पुरुष की प्रधानता के ही दृष्टांत सामने मिलते हैं । सामाजिक मान्यताओं के अनुसार पुरुष गृहस्थी के संचालन के लिए घर से बाहर जाकर धन की जुगाड़ के लिए विविध प्रकार के श्रम, व्यवसाय और नौकरी करते हैं, ताकि घर के सभी सदस्यों के खान-पान के साथ अन्य जरूरतें पूरी हो सकें । इन्हीं मान्यताओं के साथ हमारा विश्व समाज आगे बढ़ता चला जा रहा है। महिलाओं के जिम्मे में पूरी तरह घर के  भीतर गृहस्थी संभालने की जवाबदेही है । यह कोई मामूली जवाबदेही नहीं है बल्कि पुरुषों की तुलना में एक बड़ी जवाबदेही इसे कह सकते हैं । घर के भीतर महिलाएं सभी के खाने-पीने के इंतजाम के साथ आने वाली नहीं पीढ़ी को भी जन्म देती है । 
ईश्वर ने यह विशिष्ट गुण महिलाओं को ही प्रदान किया है। इसके साथ ही अपने-अपने बच्चों की प्रथम गुरु माता ही होती हैं। इसलिए बच्चें सबसे पहले मां शब्द का ही उच्चारण करते देखे जाते हैं । समाज की इस पारंपरिक व्यवस्था को  महिलाओं की कई प्रगतिशील संस्थाओं ने इस परंपरा को महिलाओं को घर में  कैद कर रखने के समान बताया। 
    विश्व की महिलाओं को आगे बढ़ाने में  लोकतांत्रिक व्यवस्था की पहल एक शुभ संकेत था। पश्चिम के देशों में सबसे पहले लोकतंत्र दस्तक दी थी । इस लोकतंत्र ने जन मानस की सोच को ही बदल कर रख दिया था।  महिलाएं भी पुरुषों के कदम से कदम मिलाकर चलने लगी । गृहस्थी के साथ उनके कंधों पर कमाने की भी जवाबदेही आ गई । समय के साथ बदलते परिदृश्य में दोनों जवाबदेही को महिलाओं ने पूरी निष्ठा से निभाना प्रारंभ किया । इसकी गूंज विश्व भर में फैलती गई । गृहस्थी के कामकाज में उलझी महिलाओं में भी बोद्धिक विकास होने लगा कि हम सब भी पुरुषों के समान हर कार्य कर रही हैं। प्रारंभ में तो महिलाओं का घर से बाहर निकलना , कमाने की बात सोचना भी बेमानी थी । किंतु धीरे-धीरे ही सही, यह सोच धरातल पर उतारी और महिलाएं घर से बाहर निकलने लगी । आज से मात्र 30 - 40 वर्ष पूर्व तक महिलाएं जब रिक्शा में सवार होकर घर से बाहर निकलती थी, तो रिक्शा पर पर्दा लगाकर । कहीं कोई देख न ले । लोग क्या कहेंगे ? समय के साथ या पर्दा प्रथा रुखसत हो गई । महिलाओं के घर से बाहर निकलने  के संदर्भ में एक बात का और जिक्र करना चाहूंगा कि भारतीय सिनेमा उद्योग की आधारशिला दादा साहब फाल्के ने रखी थी । उस समय में श्वेत - श्याम और अनबोलता फिल्मे बनती थी । चलचित्र में महिला का किरदार पुरुष , स्त्री का वस्त्र पहन करत थे । फिल्मों में काम करने के लिए महिलाएं सामने आती ही नहीं थी । अगर कोई एक महिला ने सिनेमा में काम कर लिया तो समाज उसे दूरी दूसरी निगाह से देखा करता था। यह बात लगभग 100 वर्ष पूर्व की है । इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता है कि एक जमाने में पुरुष प्रधान समाज ने महिलाओं को एक विशेष प्रजाति का जीव बना कर रख दिया था ।
   सामाजिक रुप से महिलाएं अब मजबूत होती चली जा रही है ।पहले बच्चियों को होश संभालते ही घर के गृह कार्य में लगा दिया जाता था । लेकिन घर की बच्चियों को अन्य लड़कों की तरह स्कूल जाने की आजादी नहीं थी।  स्कूल में आकर बच्चियों ने स्वयं को योग सिद्धि किया।  लड़कों से बेहतर अंक लाकर उन्होंने समाज में एक नई पहचान निर्मित की।  आज हमारी बच्चियां नित नई ऊंचाइयों को छू रही है। एक जमाना ऐसा था कि अगर कोई लड़की साइकिल चलाते हुए सामने से निकल जाए तो लोग भौचक निगाहों से देखते रह जाते थे । आज लड़कियां स्कूटी और मोटरसाइकिल से दना दन चलती हैं। मज़े से  सेर - सपाटा करती नजर आती है। कोई ऐसा क्षेत्र आज अछूता नहीं है ,जहां लड़कियों नहीं है। हमारी लड़कियां खेलकूद के क्षेत्र में जो मुकाम हासिल की है , वह अपने आप में बेमिसाल है । पहले पहलवानी के क्षेत्र में कोई अभिभावक अपनी बच्ची को भेजने की बात सोच ही नहीं सकते थे। आज पहलवानी के क्षेत्र में हमारी बच्चियों ने जो नाम कमाया है ,उस पर सदा गर्व किया जा सकता है।
  विश्व भर की महिलाओं की आर्थिक स्थिति पर विवेचना किया जाए तो कई नए ऐसी बातें उभरकर सामने आएंगी जिस पर विश्वास करना मुश्किल होगा । जिन महिलाओं के जिम्मे में सिर्फ चूल्हा -  चौकी ही था । पति के निधन के बाद वह महिला घर से बाहर निकली। अपने पति के कारोबार को अपने हाथों में ली। खुद को शिक्षित की और कारोबार को बढ़ाईं। अपने सभी बच्चों को उच्च शिक्षा दी।   विज्ञान और उच्च तकनीक के क्षेत्र में महिलाओं में जो परचम लहराया है ,विश्व भर के लोगों को इस पर नाज है । महिलाएं नित नई उड़ान की ओर अग्रसर जरूर है, किंतु उनके लिए सामाजिक दासता एक अभिशाप बन कर आस-पास ही मंडरा रही है ।इस बात का जिक्र में भारत के परिप्रेक्ष्य में कर रहा हूं । हमारी बच्चियां चाहे जितनी भी ऊंचाई को क्यों न छू ले  ? मां बाप को उसकी शादी की चिंता लगी ही रहती है । इसी शादी की चिंता की कोख से दहेज प्रथा नामक नई बीमारी का जन्म हुआ है । शादी जितना जरूरी एक लड़का के लिए है, उतना ही एक लड़की के लिए भी । फिर सिर्फ लड़की के माता-पिता को ही इतनी चिंता क्यों?  बेटी को गुणवान और अपने पैर पर खड़ा होने लायक बनाने के बाद भी दहेज क्यों ? शादी के लिए सबसे पहले लड़की वाले ही क्यों पहल करें ?  शादी की रस्म अदायगी में लड़का के पिता को ऊंचा पीढ़ा और लड़की के पिता को नीचा  पीढ़ा क्यों ?   इस तरह के  कई अनुत्तरित सवाल और मान्यताएं हैं, जिस समाज के सभी वर्ग के लोगों को गंभीरतापूर्वक विचार कर इसे दूर भगाने की जरूरत है । महिला दिवस पर समाज के हर नागरिक का दायित्व बनता है कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से पिछड़े बहनों को आगे कैसे बढ़ाए  ? विचार करने की जरूरत है। आज की माताओं  के कंधे पर समाज की तीन तरह की जवाबदेही आन पड़ी है । प्रथम कमाने की, दूसरी गृहस्थी चलाने की और तीसरी बच्चों को पैदा करने की। यह तीनों जिम्मेदारियां महिलाएं सहर्ष संभालते हुए आगे बढ़ रही हैं।