झारखंड में दुर्गा पूजोत्सव मनाने का इतिहास
विभिन्न रियासतों के रजवाड़े अपने महल के आसपास दुर्गा जी की एक बड़ी प्रतिमा स्थापित कर किया करते थे। जिसमें काफी संख्या में रियासत भर के आम जन शामिल हुआ करते थे।
विजय केसरी :
झारखंड में दुर्गापूजोत्सव व दशहरा मनाने का इतिहास लगभग तीन सौ वर्ष पुराना है । झारखंड में दुर्गा पूजा मनाने के संबंध में कोई आलेख अब तक लिखित तौर पर मुझे प्राप्त नहीं हुआ । समाज के बड़े – बुजुर्गों एवं झारखंड प्रांत के विभिन्न दुर्गा पूजा समिति से जुड़े लोगों की बातचीत से पता चलता है कि झारखंड में दुर्गा पूजा मनाने का इतिहास लगभग तीन वर्ष पुराना है । पश्चिम बंगाल से ही दुर्गा पूजा मनाने की प्रथा झारखंड आई थी। ऐसा लोगों का मत है । झारखंड प्रांत में दो अलग-अलग महीने में दुर्गा पूजा बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है । पहला अश्विन मास एवं दूसरा चैत मास में । दोनों मास में मनाई जाने वाली दुर्गा पूजा की विधि लगभग एक समान है । आश्विन मास में मनाई जाने वाली दुर्गा पूजा , चैत मास की दुर्गा पूजा की तुलना में काफी भव्य तरीके से मनाई जाती है।
राजा अपने ही महल में दशहरा का आयोजन किया करते थे
अध्ययन बताता है कि झारखंड में आश्विन दुर्गा पूजा से दशहरा मनाने की शुरुआत हुई थी । आश्विन मास की दुर्गा पूजा के एक सौ वर्ष बाद चैत मास में दुर्गा पूजा मनाने की शुरुआत हुई थी । आगे अध्ययन बताता है कि जब देश गुलाम नहीं हुआ था, तब भी देश के विभिन्न रियासतों में अश्विन मास का दशहरा बड़े ही धूमधाम के साथ मनाया जाता था । तब इस दशहरा पर विभिन्न रियासतों के रजवाड़े अपने महल के आसपास दुर्गा जी की एक बड़ी प्रतिमा स्थापित कर किया करते थे। जिसमें काफी संख्या में रियासत भर के आम जन शामिल हुआ करते थे। देशभर में मैसूर का दशहरा बहुत ही लोकप्रिय था । वहां के राजा अपने ही महल में दशहरा का आयोजन किया करते थे । इस आयोजन में रियासत भर से काफी संख्या में लोग जुटा करते थे । आम जन के द्वारा शस्त्र प्रदर्शन भी का आयोजन होता था। बेहतर शस्त्र प्रदर्शन करने वाले को रियासत द्वारा पुरस्कृत भी किया जाता था । इस अवसर पर विभिन्न तरह के नृत्य और वादन का भी आयोजन होता था। बेहतर प्रदर्शन करने वाले को रियासत की ओर से पुरस्कृत किया जाता था। आज भी देश भर में मैसूर का दशहरा सबसे लोकप्रिय है। झारखंड सहित देशभर में जो आज दशहरा मनाने की प्रथा प्रचलित है, एक मत यह भी है कि इसकी शुरुआत मैसूर व दक्षिण भारत से ही हुई थी ।
भारत में ब्रिटिश हुकूमत के बाद देशीय रियासतों द्वारा दशहरा मनाने की परंपरा में कुछ कमी आई थी। फलत: प्रजा द्वारा अपने-अपने रियासतों में विभिन्न प्रमुख स्थलों पर दशहरा का आयोजन होने लगा था । बाद के दिनों में इन आयोजनों में रियासत के राजा एवं उनके प्रतिनिधि व मंत्री गण भी सम्मिलित होने लगे थे ।
रियासतों के राजाओं को शक्ति पीठों से दुर्गा पूजा व दशहरा मनाने की प्रेरणा मिली थी
आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा देश के चार दिशाओं में स्थापित चार धार्मिक पीठ ने समस्त देशवासियों को एक माला में पिरो दिया था । देशभर में पूर्व से स्थापित छः प्रमुख शक्ति पीठ समस्त देशवासियों को एक सूत्र में बांधने का बड़ा काम किया था । आज भी इन शक्ति पीठ की कड़ियां इतनी मजबूत है कि हम सब किसी न किसी रूप से एक दूसरे से जुड़े हुए हैं । देश के रियासतों के राजाओं को इन्हीं शक्ति पीठों से दुर्गा पूजा व दशहरा मनाने की प्रेरणा मिली थी। देश भर के विभिन्न रियासतों के राजा भी इन्हीं धार्मिक पीठों के कारण एक दूसरे रियासतों से जुड़े हुए थे । इन चार धार्मिक पीठ और छः शक्ति पीठों के कारण विभिन्न रियासतों में बंटा भारत एक बना हुआ था। इसीलिए देश के राजा अपनी बेटी की शादी अन्य रियासत के राजकुमारों के साथ किया करते थे।
बंगाल प्रदेश से दुर्गा पूजा मनाने की प्रथा की शुरुआत हुई थी
झारखंड में दुर्गा पूजा मनाने की प्रथा की शुरुआत बंगाल की देन मानी जाती है । तब झारखंड, बिहार का अंग हुआ करता था । भारत में ब्रिटिश हुकूमत के आगमन के बाद बिहार और उड़ीसा, बंगाल प्रदेश में ही समाहित था । बाद के कालखंड में प्रशासनिक व्यवस्था को और दुरुस्त करने के उद्देश्य से बंगाल से बिहार और उड़ीसा को अलग कर एक नए प्रांत का दर्जा प्रदान किया गया था । ऐसा कहा जाता है कि बंगाल प्रदेश से दुर्गा पूजा मनाने की प्रथा की शुरुआत हुई थी । देशभर में मनाया जाने वाला यह पर्व सबसे पहले बंगाल से ही प्रारंभ हुआ था । बंगाल में दुर्गा पूजा मनाने की प्रथा काफी पुरानी है । बंगाल में अंग्रेजों के शासन काल में भी दुर्गा पूजा उसी तरह मनाया जाता रहा था । जब अंग्रेज भारत में पूरी तरह अपना जड़ जमा चुके थे । तब भी उन्होंने बंगाल में दुर्गा पूजा मनाने की प्रथा में कोई भी अड़चन पैदा नहीं किया था । ब्रिटिश हुकूमत ने देशभर के अन्य रियासतों पर अपनी मजबूत पकड़ बनाए रखने के लिए बंगाल से पढ़े लिखे बंगालियों को बिहार, उड़ीसा सहित अन्य प्रदेशों में भी भेजा था । अंग्रेजी सरकार ने बिहार और उड़ीसा में काफी संख्या में बंगालियों को भेजा था । चूंकि ये बंगाली , बंगाल में दुर्गा पूजा बहुत ही धूमधाम के साथ मनाते थे । बिहार आकर प्रशासन से जुड़ जाने के बाद ये बंगाली गण छोटे रूप में अपने अपने निवास पर नवरात्र पूजा करना प्रारंभ कर दिया था । फिर बाद के काल खंडों में प्रतिमाएं बनने लगी थीं। इसीलिए झारखंड के लगभग जिलों में कहीं ना कहीं बंगाली दुर्गा स्थान जरूर विद्यमान है। ये बंगाली दुर्गा स्थान सर्वाधिक पुराने भी हैं । सर्वप्रथम इन्हीं बंगाली दुर्गा स्थानों में दुर्गा की प्रतिमा स्थापित हुई थी । बाद में दूसरी जातियों के लोग भी दुर्गा पूजा मनाने में आगे आए थे। प्रारंभ में बंगालियों के बाद स्वर्ण जाति के लोग दुर्गा पूजा मनाने में सबसे आगे आगे थे । फिर धीरे-धीरे कर झारखंड के आम लोग भी इस पूजा से जुड़ते चले गए थे। झारखंड की राजधानी रांची सहित हजारीबाग, रामगढ़, चतरा , देवघर, गिरीडीह, गोड्डा, गढ़वा, कोडरमा आदि जिलों में इसी कालखंड में दुर्गा पूजा मनाने की प्रथा की शुरुआत हुई थी । पहले हमारे यहां देवी मंडप हुआ करता था , जो आज भी विद्यमान है। इस देवी मंडप में देवी पिंड स्थापित रहते हैं। इसकी पूजा ग्रामीण तरीके से हुआ करती है। देवी मंडप के प्रति भी झारखंडियों की बड़ी श्रद्धा है।
झारखंड में दुर्गा प्रतिमा स्थापित कर दुर्गा पूजा मनाने की कोई प्रथा नहीं थी। झारखंड के किस जिले में सर्वप्रथम दुर्गा पूजा की प्रतिमा स्थापित की गई थी ? यह एक शोध का विषय है। जिस पर आगे शोध किया जा सकता है । उदाहरण के तौर पर मैंने हजारीबाग जिले में दुर्गा प्रतिमा स्थापित कर दशहरा की शुरुआत कब से हुई थी ? की छानबीन की तो पता चला कि हजारीबाग नगर स्थित बंगाली दुर्गा मंडप में ही सबसे पहले दुर्गा जी की प्रतिमा स्थापित हुई थी । उसके बाद बिहारी दुर्गा स्थान में दुर्गा प्रतिमा स्थापित हुई थी। फिर बाद के कालखंड में धीरे धीरे कर हजारीबाग नगर के विभिन्न मुहलों में दुर्गा प्रतिमाएं स्थापित होने लगी थी । हजारीबाग का सबसे पुराना राधा कृष्ण मंदिर है । इस मंदिर की स्थापना लगभग 140 वर्ष पूर्व हुई थी। यहां दुर्गा माता की छोटी प्रतिमा स्थापित है। इसका अर्थ यह है कि उस जमाने में भी दुर्गा पूजा इस नगर में बड़े लोग ही धूमधाम के साथ मनाई जाती थी।
दस दिनों तक माता दुर्गा की चलने वाली इस पूजा में आज भी विभिन्न पूजा स्थलों में बंगाल से पुजारी अनुष्ठान कराने के लिए आते हैं। झारखंड में प्रचलित दशहरा की शुरुआत बंगाल से हुई थी । इस बात के प्रमाण आज भी सर्वत्र देखने को मिलते हैं । नौ दिनों तक चलने वाली इस पूजा का समापन दशमी के दिन होता है । देश की आजादी के बाद दुर्गा पूजा विसर्जन जुलूस भी बहुत ही धूमधाम के साथ संपूर्ण झारखंड में होता चला आया । दुर्गा पूजा विसर्जन के जुलूस में धीरे-धीरे कर इतनी भीड़ बढ़ती गई कि आज झारखंड के 24 जिलों में शांति स्थापना के लिए सभी जिलो के प्रशासनिक अधिकारियों को मुस्तैद रहना पड़ता है । राज्य सरकार भी शांतिपूर्ण ढंग से दशहरा समापन के लिए आवश्यक दिशा निर्देश देती रहती है।
कोरोना के कारण बीते वर्ष दुर्गा में रौनक नहीं थी। गत वर्ष प्रतिमाएं छोटी कर दी गई थी ।इस वर्ष भी प्रशासन के निर्देशानुसार प्रतिमाएं छोटी बनी। भंडारा व भीड़ लगाने की अनुमति नही हैं। अंत में मैं आप सभी लोगों को नवरात्रि की बधाई देता हूं।