निष्काम कर्म के संदेशवाहक : श्री कृष्ण

कृष्ण ने धर्म की स्थापना के लिए ही इस धरा पर अवतार लिया था।उन्होंने निष्काम कर्म की शिक्षा आम जन को दिया ।अगर मनुष्य अपने जीवन में शांति चाहता है तो उसे निष्काम कर्म के संदेश को सख्ती से अपने जीवन में लागू करने की जरूरत है।

निष्काम कर्म के संदेशवाहक : श्री कृष्ण

विजय केसरी

भागवत पुराण के अनुसार भगवान श्री कृष्ण, भगवान विष्णु के आठवें अवतार के रूप में द्वापर में इस धरा पर अवतरित हुए थे। उन्होंने मानव कल्याण के लिए जो उपदेश दिया, उसकी प्रासंगिकता हर काल में बनी रहेगी। भगवान श्री कृष्ण का  प्रादुर्भाव इस धरा पर धर्म की स्थापना के लिए हुआ ।  श्री कृष्ण का जन्म जिन विकट परिस्थितियों में हुआ, इन परिस्थितियों को श्री कृष्ण ने समय के साथ अपनी धार में मोड़ कर  एक इतिहास रच दिया। ऐसा सिर्फ किसी अवतारी पुरुष से ही संभव था। इसके पूर्व इस तरह की कोई भी घटना किसी  धर्म ग्रंथ में दर्ज नहीं है । 

अत्याचारी कंस के अत्याचार से धरती हिल सी गई थी। उसने स्वयं को ईश्वर से भी श्रेष्ठ घोषित कर दिया था। कंस अधर्म के पथ पर अग्रसर हो गया, लेकिन काल की मार से कौन बच सकता था ?  कृष्ण के हाथों कंस का वद्य  होना था ।  कृष्ण ने धर्म की स्थापना के लिए ही इस धरा पर अवतार लिया था।  कृष्ण के जन्म के साथ ही जिस तरह की विचित्र घटनाएं घटित हो रही थी, और क्रमवार कृष्ण के हाथों निराकरण भी होता चला जा रहा था । ये सारी घटनाएं श्री कृष्ण के भगवान होने के पर्याप्त आधार बनाते चले जा रहे थे। जब  कंस ने  राक्षसनी  पूतना के हाथों भगवान कृष्ण को मारने की साजिश रचा था, तब बाल काल में ही कृष्ण ने राक्षसनी पूतना  का वध कर  अवतारी होने का घोषणा कर दिया था। भगवान श्री कृष्ण का संपूर्ण जीवन आदर्श, त्याग और बलिदान से ओतप्रोत है।  मथुरा पर विजय प्राप्त करने के बावजूद श्री कृष्ण ने  सिंहासन अन्य के हाथ सौंप दिया था।  उन्होंने सिर्फ एक ध्वजवाहक होने का संदेश दिया था।

उन्होंने निष्काम कर्म की शिक्षा आम जन को दिया ।  श्री कृष्ण ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि ‘मनुष्य  को फल की इच्छा किए बिना कर्म करनी चाहिए’। अर्थात उन्होंने निष्काम कर्म की शिक्षा दी। यह बात पढ़ने और सुनने में बिल्कुल साधारण प्रतीत होती है, किंतु निष्काम कर्म संदेश  के पीछे एक बहुत बड़ा दर्शन छुपा हुआ है।  आज विश्व भर जो भी अशांति और परेशानियां  छाई हुई है। यह सब मनुष्य के कर्म फल की इच्छाओं की कोख से जन्मी हुई है। भगवान श्री कृष्ण ने मनुष्य को कर्म करने की आजादी दी है, न कि फल की इच्छा से कर्म करने की शिक्षा दी। अगर  मनुष्य अपने जीवन में शांति चाहता है तो उसे निष्काम कर्म के संदेश को सख्ती से अपने जीवन में लागू करने की जरूरत है।  बिना निष्काम कर्म के उसके जीवन में शांति आ नहीं सकती। फल की इच्छा ही हमारी अशांति का कारण है। जिस पल मनुष्य के अंदर फल प्राप्त करने की इच्छा जागृत हो जाती है, मनुष्य अपने पथ से भटक जाता है। अब सवाल यह उठता है कि मनुष्य कर्म करें और फल प्राप्ति की इच्छा ना करें, यह कैसा उपदेश है ? यह बात आज की आधुनिकता की कसौटी में  लागू नहीं होती है। लेकिन धर्म की कसौटी पर यह बात हजारों वर्ष पूर्व भी सही थी। आज भी सही है। और कल भी सही रहेगी।

आज जितनी भी लड़ाइयां और  परेशानियां संसार भर में देखने को मिल रही है। यह सब फल की इच्छा के कारण ही बढ़ती चली जा रही है। भगवान श्री कृष्ण बाल काल से युवा काल और अपने जीवन के अंतिम क्षण  तक निष्काम कर्म के पथ पर ही आगे बढ़ते रहे थे। उन्होंने धर्म और सत्य की रक्षा के लिए  पांडवों को साथ दिया था। उन्हें इस धर्म और सत्य की रक्षा के लिए एक बड़े नरसंहार से गुजरना पड़ा था । इस महायुद्ध में लाखों जाने गई थीं। श्री कृष्णा ने  पांडवों के विजयी के साथ सत्य और धर्म की स्थापना की थी।

 भगवान श्री कृष्ण ने रणभूमि में अर्जुन के मन में उठते सवालों के जवाब में कहा कि ‘हे अर्जुन ! तुम इन्हें क्या मारोगे ? ये सब तो पहले से मरे पड़े हैं ।’ तब भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को अपने विराट स्वरूप से का दर्शन कराया । भगवान श्री कृष्ण के विराट स्वरूप के दर्शन के पश्चात अर्जुन के मस्तिष्क में जो परिवार का मोह और संबंधियों  को मारने का पाप के विचार चल रहे थे, सब दूर हो गए । अर्जुन ने स्वीकार किया कि ‘सृष्टि में जो कुछ भी घटनाएं घटित हो रही है, सब ईश्वर की ही देन है’। अर्थात जन्म देने वाला ईश्वर है और मारने वाला भी ईश्वर ही है। तब अर्जुन अपने गांडीव को उठाया और रणभूमि पर कूद पड़े थे । जब द्रोपति का चीरहरण हो रहा था, द्रोपति ने सच्चे मन से पुकारा, हे कृष्ण ! अब मेरी लाज तुम्हारे हाथों में है।  कृष्ण ने द्रोपति की लाज बचा कर धर्म की रक्षा की थी ।

कृष्ण ने सहज, सरल,जीवन जीने की सलाह लोगों को दिया।  अहंकार से सदा मुक्त रहने की बात कही। विपरीत परिस्थितियों में भी मनुष्य को सत्य और धर्म का साथ नहीं छोड़ना चाहिए। मनुष्य को अपने अदम्य साहस के साथ विपरीत परिस्थितियों से मुकाबला करना चाहिए।  धर्म और सत्य की  रक्षा के लिए मनुष्य का जन्म इस धरा पर हुआ है। विपरीत परिस्थितियों में भी मनुष्य को सत्य का दामन नहीं छोड़ना चाहिए । मनुष्य को सदा पाप कर्म से दूर रहना चाहिए । मनुष्य को सदा पंच विकारों से दूर रहना चाहिए। अर्थात काम, क्रोध, मद लोभ, मोह से  मनुष्य की जितनी दूरी बनी रहेगी, मनुष्य अपने जीवन को उतना ही सु मधुर बना सकता है।

 भागवत पुराण में भगवान श्री कृष्ण के संदर्भ में दर्ज है कि श्री कृष्ण योगियों के योगी है। अर्थात योगेश्वर है। यह बात बड़ी विचित्र से प्रतीत होती है कि भगवान श्री कृष्ण ने आठ शादियां की और लाखों गोपियों को पति रूप में दर्शन दिया।  इसके बावजूद श्री कृष्ण,  योगेश्वर कैसे हो सकते हैं ? लेकिन श्री कृष्ण के संदर्भ में यह बात बिल्कुल सत्य प्रतीत होती है। श्री कृष्ण ने बाह्य रूप से विवाहित होकर  भी एक सन्यासी की भांति अपना संपूर्ण जीवन जिया । गोपियां को  अपने पूर्व जन्म के श्राप के कारण  कई जन्मों तक इस धरा पर जन्म लेना पड़ा था। द्वापर में भगवान श्री कृष्ण ने सभी गोपियों का वरण कर उन्हें आवागमन के चक्र से मुक्त किया था।

 भगवान श्री कृष्ण और राधा का प्रेम अद्भुत व बेमिसाल है। जहां दोनों एक दूसरे के लिए बने थे। दोनों एक दूसरे के दिल में समाते थे। राधा के बिना कृष्ण की कल्पना भी नहीं की जा सकती ।  कृष्ण के बिना राधा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जहां भगवान कृष्ण, विष्णु के अवतार माने जाते हैं । वहीं राधा, माता लक्ष्मी की अवतार के रूप में जानी जाती हैं। भगवान कृष्ण और सुदामा की दोस्ती एक नए इतिहास की रचना करती प्रतीत होती है। जहां अमीरी और गरीबी की कोई दीवार नहीं है । एक ओर कृष्ण धन संपदा से भरपूर, वहीं दूसरी ओर  मित्र सुदामा निर्धन । जब सुदामा, कृष्ण से मिले, बीच में अमीरी और गरीबी की कोई दीवार नहीं। दोनों की दोस्ती में कोई बड़ा, कोई छोटा  नहीं। दोस्ती सभी रिश्तो में सबसे बड़ी होती है। इस बात को भगवान कृष्ण ने बहुत ही मजबूती के स्थापित किया।

 हर वर्ष हम सब भादो मास के कृष्ण पक्ष, अष्टमी के दिन कृष्ण जन्माष्टमी के रूप में बड़े ही धूमधाम के साथ उत्सव मनाते हैं। इनके भक्तगण दिन भर का उपवास करते हैं। मंदिरों और घरों में जय श्री कृष्ण, जय कृष्ण कृष्ण के नाम से  जाप चलता रहता है। इसकी सार्थकता तभी है, जब हम सब कृष्ण के बताए मार्ग पर चलें। उन्होंने जो निष्काम कर्म का संदेश दिया, उसे अपने जीवन में आत्मसात करें।