माता ब्रह्मचारिणी की आराधना से मन कर्तव्य पथ से विचलित नहीं होता 

(23 सितंबर, शारदीय नवरात्र के दूसरे दिन माता ब्रह्मचारिणी  की आराधना पर विशेष)

माता ब्रह्मचारिणी की आराधना से मन कर्तव्य पथ से विचलित नहीं होता 

शारदीय नवरात्र के दूसरे दिन माता ब्रह्मचारिणी की विशेष रूप से आराधना की जाती है। ब्रह्मचारिणी माता की आराधना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम आदि गुणों की वृद्धि होती है। इनकी उपासना से मनुष्य के जीवन के कठिन संघर्षों में भी उनका मन कर्तव्य पथ से विचलित नहीं होता है।  माता की उपासना अनंत फल देने वाली होती है।  माता ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से उनके भक्तों को सर्वत्र सिद्धि और विजय की प्राप्ति होती है।  इसलिए शारदीय नवरात्र के दूसरे दिन बहुत ही विधि विधान व निर्मल मन से माता ब्रह्मचारिणी की विशेष रूप से पूजा की जाती है। ब्रह्मचारिणी माता का यह स्वरूप बहुत ही कल्याणकारी है। भक्तों को माता के इस स्वरूप का  ध्यान कर उनकी उपासना करनी चाहिए। अगर भक्त अपने जीवन को आध्यात्मिकता की ओर ले जाना चाहता है, तो उसके लिए ब्रह्मचारिणी की उपासना ही सर्वोत्तम मार्ग होगा। देवी पुराण में वर्णन है कि ब्रह्मचारिणी माता के इस स्वरूप की आराधना करने से साधक में तप,त्याग, वैराग्य, सदाचार संयम आदि गुणों की वृद्धि होती है।

  हमारे ऋषि मुनियों ने हिंदू धर्म ग्रंथो में दर्ज किया है कि आध्यात्मिक मार्ग ही मनुष्य को देवत्व की ओर ले जाता है । यहां देवत्व के अर्थ को समझने की जरूरत है। मनुष्य का जन्म देवत्व की प्राप्ति के लिए ही होता है। एक मनुष्य का जन्म ईश्वर की कृपा से ही संभव होता है, मनुष्य अपने आध्यात्मिक गुणों को विकसित कर ही देवत्व को प्राप्त कर पता है। यहां यह समझना जरूरी हो जाता है कि एक मनुष्य का जन्म योनियों में सर्वोत्तम योनी मनुष्य योनि में क्यों हुआ है? और बार-बार क्यों हो रहा है ? हमारे धर्म ग्रंथो में वर्णन है कि आवागमन के इस चक्र से मुक्ति के लिए मनुष्य का जन्म अनंत काल से होता  आ रहा है। मनुष्य का यह अनंत काल से जन्म और मृत्यु मोक्ष प्राप्ति के लिए ही होता रहता है।  जो मनुष्य इस गुढ़ रहस्य को समझ लेता है।  वह ब्रह्मचारिणी माता की आराधना में रत होकर खुद को देवत्व में परिवर्तित कर लेता है।
  ब्रह्मचारिणी माता का नाम ब्रह्मचारिणी इसलिए पड़ा कि माता पार्वती शिव को प्राप्त करने के लिए ऐसी घोर तपस्या की थीं। इसलिए माता तप की चारिणी के नाम से जाना जानी लगी। माता का यह जन्म संपूर्णता में तप को समर्पित रहा था। इस कठिन तप चर्या के कारण ही माता का नाम ब्रह्मचारिणी पड़ा था । यहां ब्रह्म शब्द का अर्थ तपस्या है।  ब्रह्मचारिणी अर्थात तप की चारिणी। हमारे हिंदू धर्म के वेद में वर्णन है कि 'वेदस्तत्त्वं तपो  ब्रह्म'  अर्थात वेद, तत्व और तप  ब्रह्म शब्द के ही अर्थ हैं। देवी उपासकों को यह जानना चाहिए कि ब्रह्मचारिणी माता का यह स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय और अत्यंत मोहक हैं। मां के इस स्वरूप को ध्यान में रखकर उनकी की आराधना करनी चाहिए।
ब्रह्मचारिणी माता का यह स्वरूप पूर्ण रूप से ज्योतिर्मय  है ।‌ माता के इस स्वरूप को जो भी साधक ध्यान में रखकर उनकी उपासना करते हैं, उनमें तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार और संयम की वृद्धि होती है ।‌ माता  का यह स्वरूप बहुत ही निराला और मोहक है । माता का परिधान बिल्कुल शंख के समान सफेद है। माता के चेहरे पर एक विशेष प्रकार की  मुस्कान परीक्षित होती रहती है । माता के दाहिने हाथ में जप की माला एवं बाएं हाथ में कमंडलु सुशोभित होता रहता है।  माता के इस स्वरूप को देखने और ध्यान करने से मनुष्य का मन माता के परिधान के अनुरूप निर्मल हो जाता है । माता के कमंडलु को में जो जल है, यह जल संजीवनी का प्रतीक है, जो मनुष्य के कई जन्मों के पापों को नष्ट कर देता है। इसलिए ब्रह्मचारिणी माता के साधकों को यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि जब माता ब्रह्मचारिणी की उपासना कर रहे हों ,तब मन मस्तिष्क में किसी दूसरे विचार को प्रवेश नहीं करने देना चाहिए।मन मस्तिष्क में कई तरह के विचार आते  रहते हैं। यह मां का स्वभाव है। ‌ इससे तनिक भी विचलित होने की जरूरत नहीं है। ‌बल्कि  साधक को अपने विचार सिर्फ माता ब्रह्मचारिणी पर ही केंद्रित रखना चाहिए। ध्यान के निरंतर अभ्यास से यह संभव है। जब माता पर ध्यान पूरी तरह केंद्रित हो जाएगा, तब मनुष्य में जो परमानंद की अनुभूति होगी, उसे शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता है। माता के दाहिने हाथ में जो यह माला दिखाई पड़ती है, यह माला निरंतर अपनी गति के साथ आगे बढ़ती ही रहती है । यह माला हम सबों को यह संदेश देती है कि यह जीवन बहुत ही अनमोल है। इसका एक-एक पल बहुत ही मूल्यवान है। इसलिए हर एक मनुष्य को अपने इस अनमोल जीवन के महत्व को समझना चाहिए और उसका खर्च उसी अनुरूप में करना चाहिए।  ताकि एक भी पल व्यर्थ न जाए।  अपने सभी कामों को करते हुए हमेशा परमपिता परमेश्वर पर ध्यान होना चाहिए। ब्रह्मचारिणी माता की माला बिना रुके शिवत्व की प्राप्ति की ओर निरंतर रत रहती है। उसी प्रकार हम सबों का जीवन भी ईश्वर के नाम के साथ आगे बढ़ता ही रहना चाहिए।
  देवी पुराण में वर्णन है कि माता पार्वती जब हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न हुई थी। तब नारद के उपदेश पर उन्होंने भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए अत्यंत कठिन तपस्या की थी। उन्होंने एक हजार वर्षों तक केवल फल -  फूल खाकर भगवान शंकर की आराधना की थी। आगे उन्होंने  सौ वर्षों तक केवल शाक पर निर्वाह किया था।‌ माता पार्वती उपवास रखते हुए खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के भयानक कष्ट को सहती रही थीं । आगे ऐसा वर्णन है कि माता पार्वती तीन हजार वर्षों तक केवल जमीन पर टूट कर गिरे बेल पत्रों को खाकर भगवान शंकर की आराधना की थी ।‌ उनकी आराधना इतनी सघन  होती चली गई थी कि उन्होंने बेल पत्रों तक को भी खाना छोड़ दिया था ।‌ कई हजार वर्षों तक माता पार्वती निर्जला और निराहार तपस्या करती रही थी । उन्होंने जब बेल पत्रों को भी खाना छोड़ दिया था, इस कारण उनका नाम अपर्णा भी पड़ा था।
  माता की इस तपस्या से तीनों लोकों में हाहाकार मच गया था। देवता, ऋषि, सिद्ध गण,  मुनि सभी ब्रह्मचारिणी देवी की इस तपस्या को अभूतपूर्व पुण्य कृत्य बताया था । उनकी इस तपस्या से अति प्रसन्न होकर पितामह ब्रह्मा जी ने आकाशवाणी के द्वारा माता पार्वती को संबोधित करते हुए कहा,-  'देवी आज तक किसी ने ऐसी कठोर तपस्या नहीं की थी। ऐसी तपस्या तुम्हीं से संभव थी।  तुम्हारे इस अलौकिक कृत्य की चतुर्दिक सराहना हो रही है।  तुम्हारी मनोकामना सर्वतो भावेन  परिपूर्ण होगी।  भगवान चंद्रमौली शिवजी तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे। अब तुम तपस्या से विरत होकर घर लौट जाओ।  शीघ्र ही तुम्हारे पिता बुलाने आ रहे हैं।' फिर माता पार्वती की शादी भगवान शिव के साथ संपन्न हुई थी।  
देवी पुराण में वर्णित  कथा भक्तों को यह संदेश देती है कि विपरीत परिस्थितियों में भी अपने को अनुकूल बनाए रखना चाहिए। माता पार्वती शिव को प्राप्त करने के लिए कितनी कठिन तपस्या के दौर से गुजरी थीं ।तब उन्हें शिव की प्राप्ति हुई थी। यह कथा स्त्रियों को यह सीख देती है कि विपरीत परिस्थितियों में भी अपने पति का अनादर नहीं करना चाहिए ।‌पति -  पत्नी के बीच सदा विश्वास और मैत्री का संबंध होना चाहिए।‌ हर स्त्री को अपने पति धर्म का निर्वाह पूरी ईमानदारी और  निष्ठा से करनी चाहिए।  वहीं दूसरी ओर हर पति को अपनी पत्नी धर्म का निर्वाह पूरी निष्ठा और ईमानदारी से करनी चाहिए। मनुष्य को ये  कृत्य ही उसे देवत्व की ओर ले जाएगा ।