पवित्र मन से की गई भक्ति से ही माता शैलपुत्री प्रसन्न होती हैं 

(22 सितंबर, शारदीय नवरात्र के  प्रथम दिन शैलपुत्री माता की आराधना पर विशेष)

पवित्र मन से की गई भक्ति से ही माता शैलपुत्री प्रसन्न होती हैं 

भारत सहित विश्व  के जिन देशों में भारतीय मूल के लोग रहते हैं, सबों के लिए शारदीय नवरात्र का पर्व ढेर सारी खुशियां और संकल्पों के लेकर उपस्थित होता है । यह महापर्व 22 सितंबर, आश्विन शुक्ल नवमी से प्रारंभ हो रहा है। देवी पुराण के अनुसार शारदीय नवरात्र के पहले दिन माता शैलपुत्री की आराधना का वर्णन है। शैलपुत्री माता बहुत ही कृपालु और दयालु हैं । पवित्र मानसिक की गई भक्ति से ही शैलपुत्री माता प्रसन्न हो जाती हैं। हिमालय की पुत्री होने के कारण इनका नामकरण शैलपुत्री माता पड़ा माता था। इनका निवास स्थान हिमालय में है । शैलपुत्री माता भगवान शिव के वृषभ पर सवार होकर एक हाथ में  त्रिशूल और  दूसरे हाथ में कमल पुष्प लेकर अपने भक्तों को दर्शन दे रही होती हैं। माता का रूप बहुत ही मोहक और दुर्गति नाश करने वाली होती है। पवित्र मन से की गई भक्ति ही माता को स्वीकार होती हैं।
   इससे पूर्व देवी भक्तों को यह जानना चाहिए कि शैलपुत्री माता की उपासना करते समय मन पूरी तरह माता पर ही केंद्रित होनी चाहिए।  इसके साथ ही मन पूरी तरह निश्चल और पवित्र भी होना चाहिए। तभी माता की कृपा भक्तों को प्राप्त हो सकती ती है। आप कुछ कहें अथवा न कहें माता आपके मन की हर बात को पूरी तरह समझती हैं । बस ! जरूरत है, सच्चे मन से उनकी भक्ति करने की।  माता की कृपा सभी भक्तों पर बराबर रूप से पड़ती है । भक्त गण जितने सच्चे हृदय से माता की आराधना करते हैं,  उसी रूप में माता की कृपा बरसती है। दुर्गा सप्तशती के अनुसार  माता दुर्गा दुर्गति नाशनी है । माता दुर्गा कालनाशनी है ।दुर्गा माता की आराधना से भक्तों के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। समस्त प्राणियों की सुख दात्रि देवी दुर्गा माता  की कृपा से उनके भक्तगण सदा आनंद में रहते हैं। माता के भक्त  दूसरे को भी आनंद प्रदान करते हैं।  
  नवरात्र का यह पर्व दशहरा के नाम से जनमानस में प्रसिद्ध है। ऐसी मान्यता है कि  माता नौ दिनों तक अपने भक्तों की भक्ति प्राप्त कर, भक्तों के सभी प्रकार के कष्ट हर कर माता दसवें दिन विदा होती हैं। संसार में जितने भी प्रकार के सुख, शांति, समृद्धि और वैभव विद्यमान हैं। यह सब कुछ माता की ही कृपा है। माता की आराधना से भक्तों को जन्म जन्म के पाप मुक्ति मिलती हैं।  देवी पुराण में ऐसा वर्णन है कि मां की भक्ति से यश, बल, धर्म ,आयु की वृद्धि होती है।  मोक्ष की भी प्राप्ति होती है। शारदीय नवरात्र पर्व का हमारे धर्म ग्रंथों में बहुत ही ऊंचा स्थान प्रदान किया गया है।  माता पुत्री रूप में हम सभी भक्तों के बीच उपस्थित होती हैं। हम सबों की भक्ति स्वीकार कर सुख, समृद्धि और शांति का आशीर्वाद देकर जाती हैं। साथ ही माता यह भी वादा कर जाती  हैं कि अगले साल मैं पुनः आऊंगी। अपने भक्तों के प्रति मां का यह स्नेह अद्भुत और बेमिसाल है।
   आज दुनिया में जिस तरह की भी शक्तियां  विद्यमान है। सभी दुर्गा माता की ही तेज से उत्पन्न हुई । मां की कृपा के बिना कोई भी शक्ति गतिशील नहीं हो सकती है। नवरात्र में माता के नौ रूपों की पूजा की जाती है। प्रथम दिन शैलपुत्री माता। दूसरे दिन ब्रह्मचारिणी माता। तीसरे दिन चंद्रघंटा माता। चौथे दिन कुष्मांडा माता। पांचवें दिन स्कंदमाता माता । छठे दिन कात्यानी माता। सातवें दिन कालरात्रि माता । आठवें दिन महागौरी माता और नवमी दिन सिद्धिदात्री माता की पूजा होती है। माता के हर रूपों का एक गौरवशाली इतिहास है, जो हमारी धार्मिक भावनाओं और श्रद्धा  को प्रतिष्ठित कर संदेश देती हैं। दुर्गा सप्तशती में यह बात दर्ज है कि पुत्र कुपुत्र हो सकता है। किंतु माता कभी भी कुमाता नहीं हो सकती है। इस छोटे से वाक्य में हिंदू दर्शन की बहुत बड़ी बात छुपी हुई है। इसलिए हमारी रीति - रिवाज और धर्म संस्कृति में प्रारंभ से ही माता का ख्याल रखने के लिए कहा गया है। यह पर्व हमें दूसरों की मदद करने, दूसरों की भलाई करने और विश्व बंधुत्व की सीख भी प्रदान करता है।
    पाप और पुण्य दोनों मां के ही पुत्र हैं। दोनों को मां समान रूप से जन्म देती हैं। लेकिन एक अपने प्रारब्ध कर्म के कारण पाप में परिवर्तित होता और दूसरा पुण्य में। जब सृष्टि में पाप बढ़ जाता है, तब पुण्य जनों के उद्धार के लिए माता प्रकट होती है। नवरात्र का पर्व सत्य और असत्य पर आधारित है। असत्य कितना भी विशाल क्यों ना हो जाए ?  वह कालजयी नहीं हो सकता है। उसे एक न एक दिन सत्य के हाथों पराजित होना ही होता है। नवरात्र का पर्व हम सबों को सत्य के साथ खड़े  होने की सीख प्रदान करता है। यह पर्व असत्य पर सत्य की विजय के रूप में भी मनाया जाता है।  यह पर्व हम सबों को एक साथ मिलकर रहने की भी सीख प्रदान करता है। 
 देवी पुराण में वर्णन है कि जब पृथ्वी पर आसुरी शक्तियां बहुत ही प्रबल हो गई थीं। आसुरी शक्तियों के अत्याचार से देवगण भयाक्रांत हो गए थे। आसुरी शक्तियों के वर्चस्व इतने बढ़ गए थे कि देवगण के सिंहासन भी आसुरी शक्तियों के अधीन हो गए थे। आसुरी शक्तियों से बचने के लिए सभी देवताओं ने मिलकर माता दुर्गा की आराधना की थीं। एक कथा के अनुसार भगवान विष्णु, भगवान शिव और भगवान ब्रह्मा जी के तेज से आदि शक्ति स्वरूपा मां दुर्गा अवतरित हुई थीं। आसुरी शक्तियों के प्रतीक महिषासुर अपने अहंकार में इतना चूर हो गया था कि वह जिनसे शक्तियां प्राप्त किया था , उसी को ही चुनौती देने लगा  था । महिषासुर की आसुरी शक्तियों के अत्याचार से चंहुओर त्राहिमाम त्राहिमाम होने लगा था। माता के अवतरण के साथ ही सबसे पहले माता अपने भक्तों की भक्ति स्वीकार की थीं। तत्पश्चात देवगणों  को महिषासुर के अत्याचार से मुक्त करने के लिए सीधे रण भूमि में कूद पड़ी देवी  थी। देवी पुराण में जिस तरह रणभूमि की विभीषिका का वर्णन किया गया है। महिषासुर और माता दुर्गा के  युद्ध के समान न कभी भूतकाल  में ऐसा हुआ था और ना भविष्य में होगा।  इस युद्ध  में संपूर्ण ब्रह्मांड  हिल गया था । आकाश से बादल टूटकर गिरने लगे थे। हवा की तरह पर्वत इधर से उधर उड़ रहे थे ।आकाश से सिर्फ और सिर्फ आग ही बरीस हो रही थी। युद्ध सत्य और असत्य के बीच चल रहा था। आसुरी शक्ति महिषासुर ने विभिन्न रूपों में भेष बदलकर माता को पराजित करने का संपूर्ण कोशिश किया था। लेकिन उस अहंकारी महिषासुर को यह पता ही नहीं  था कि उसके पास जो भी शक्तियां विराजमान थीं। सभी  मां की कृपा से ही प्राप्त हुई थी।  महिषासुर की शक्तियां, मां की तेज का एक अंश भी नहीं था। उसे इस अंश पर इतना गुमान था। मां उन्हें अपनी पूर्ण शक्ति को प्रदर्शित करने का अवसर दे रही थीं। माता ने उसे अपनी गलती स्वीकार करने का भी अवसर पर अवसर प्रदान करती चली जा रही थीं।  इसके बावजूद महिषासुर को अपने अहंकार का भान ही नहीं हो रहा था। अंततः मां अपने विराट रूप में उपस्थित हुई और पलक झपकते ही उसका सर्वनाश कर दी थीं।