“राजनीति में गुरु-शिष्य परंपरा का आभाव”:-अनंत धीश अमन
गया । राजनीति लोकतंत्र में लोकनिति है जिसका ध्येय लोक कल्याण करना है किंतु परिभाषा सिर्फ किताबों तक सीमित हो जाती है जो इसे पढते है वो अपने राजनैतिक और समाजीक जीवन में अम्ल नही करते जिसके फलस्वरूप अर्थ अनर्थ हो जाता है व्याख्या सारा कोरा का कोरा रह जाता है, भारत की राजनीति में अच्छे लोगों की गिनती बङे आसानी से कर सकते है किंतु भ्रष्टाचार अराजक जातिवाद परिवारवाद के नुमाइंदगी की भीङ देखने को काफी मिलेगी। राजनीति जब इन बुराईयों के बीच घिरी हो तब अच्छे राजनैतिक लोंगो को ढूंढना हीं पहले-पहल मुश्किल हो जाता है और यदि मिल गए तो आप कितने हद तक अच्छे बने रहेंगे इसका भी कोई आधार नही क्योंकि इर्द-गिर्द आपके उसी गंदगी का जमावड़ा होता है और यदि किचङ में खिलने की ताकत है तो आप कमल के रुप में खिलेंगे किंतु किचङ आपको मैला न करे इसकी कोई जवाबदेही नही है, इसलिए राजनीति में गुरु और शिष्य दोनों का आभाव है क्योंकि गुरु को न हीं शिष्य पर भरोसा है और न हीं शिष्य को गुरु पर ।। गुरु शिष्य दोनों हीं विश्वास के कच्चे डोर में बंधे होते है और वक्त वक्त पर शाह और मात एक दूजे को देते रहते है, इसका मूल जङ विचारहीन राजनीति है जहाँ विचाकमजोर होता है वहाँ गुरु और शिष्य नही बल्कि शाह और मात का खेल होता है जो जीतता उसका सत्ता होता है वक्त का वह धुरंधर एंव वक्त उसका होता है, राजनीति जब विचार के जगह सत्ता पर टिकी हो तो न कुछ सही और न कुछ गलत होता है बस वक्त कभी इधर और कभी उधर होता है वक्त हीं गुरु और वक्त हीं शिष्य होता है, अरस्तू ने राजनीति की विवेचना करते हुए कहा था राजनीति ताकत का खेल है और जब राजनीति ताकत का खेल हो तो यह हमसभी जानते है शरिर कि क्या ताकत यह तो माटी का धूल है वक्त हीं इसका ताकत वक्त हीं इसका शहादत।