नेताजी सुभाष चन्द्र के आत्म उत्सर्ग की गौरवमयी गाथा
नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारत को विश्व के मानचित्र पर अग्रणी देश के रूप में स्थापित करना चाहते थे।
विजय केसरी
आज संपूर्ण देशवासी आजादी की 75 वीं वर्षगांठ बड़े ही धूमधाम के साथ मना रहे हैं। हर घरों में राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा बड़े ही शान के साथ फहर रहा है । पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक संपूर्ण देश तिरंगामय हो चुका है। देश की एकता और अखंडता देखते बन रही है । हर धर्म, पंथ और विचार के लोग इस गौरव में तिरंगा यात्रा में सम्मिलित हैं । देश की आजादी के लिए लाखों लोगों ने अपनी जनों की कुर्बानी दी थी। लंबे संघर्ष के बाद देश को आजादी मिली थी। देश की आजादी के इस पवित्र बेला पर मैं एक ऐसे स्वाधीनता सेनानी को स्मरण कर रहा हूं, जिस पर समस्त देशवासियों को नाज है। इनका संपूर्ण जीवन देश की आजादी में बीता था। इस महान स्वाधीनता सेनानी का नाम नेताजी सुभाष चंद्र बोस है। यह कालजई नाम सदा सदा के लिए अमर हो गया। आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष पर चंद पंक्तियां नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नाम अर्पित कर रहा हूं। महान स्वाधीनता सेनानी, भारत के पहले प्रधानमंत्री व आजाद हिंद फौज के संस्थापक नेताजी सुभाष चंद्र बोस का नाम जेहन में आते ही स्वयं में ऊर्जा का भान होने लगता है । नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नाम की यह शक्ति है । नेताजी कल भी पहली पसंद थे,आज भी युवाओं के पहली पसंद है। नेता जी का संपूर्ण जीवन भारत की राजनीति को सुदृढ़ करता नजर आता है। भारत को एक संप्रभु देश बनाने के लिए उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन लगा दिया था । वे स्वाधीनता संग्राम के अग्रणी और सबसे बड़े नेताओं की श्रेणी में खड़े थे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के संबंध में कहा जाता है कि वे गरम दल के नेता थे। सच्चे अर्थों में नेताजी एक कर्म योगी, राष्ट्रवादी, देशभक्त इंसान थे। उन्होंने छात्र जीवन में ही स्वामी विवेकानंद और महर्षि अरविंद के संपूर्ण साहित्य का अध्ययन कर लिया था । बाल काल से ही इनके मानस पटल पर स्वामी विवेकानंद और महर्षि अरविंद के साहित्य का बहुत गहरा प्रभाव था।
स्वाधीनता संग्राम के दौरान उन्होंने जो पत्रों को लिखा था, उन पत्रों के अध्ययन से प्रतीत होता है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारत को विश्व के मानचित्र पर अग्रणी देश के रूप में स्थापित करना चाहते थे। उस समय भारत की राजनीति जिस दिशा की ओर जा रही थी, जिन लोगों के हाथों देश की राजनीति थी, उससे नेताजी सुभाष चंद्र बोस आहत थे। उनका मानना था कि ब्रिटिश हुकूमत सिर्फ हाथ जोड़ने से यहां से भागेंगे नहीं बल्कि अंग्रेजों ने जिस तरह का सलूक देशवासियों के साथ किया, उसका भरपूर जवाब उन्हीं के अंदाज में देना होगा। इस बात की पुष्टि उनके बयानों और वक्तव्य से प्रतीत होता है। वे ईट का जवाब पत्थर से देना चाहते थे ।
अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित होने के बावजूद वे स्वतंत्र रूप से काम करने में असमर्थ थे। समय से पूर्व ही उन्होंने अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। उनका स्वाधीनता आंदोलन में आगमन कोलकाता के महान स्वाधीनता सेनानी चितरंजन दास के माध्यम से हुआ था। मुंबई में उन्होंने गांधी जी से पहली बार मुलाकात कर स्वाधीनता आंदोलन की आज्ञा मांगी थी। तब देश की स्थिति कुछ और थी । जैसे-जैसे नेताजी सुभाष चंद्र बोस मानसिक रूप से परिपक्व होते चले गए और देश की राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति से पाला पड़ा, उनको यह विश्वास हो गया कि ब्रिटिश हुकूमत सिर्फ हाथ जोड़ने से देश से भागने वाले नहीं हैं। बल्कि उनका मुंह तोड़ जवाब देने की जरूरत है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने विदेशों की यात्रा की। अंततः उन्होंने जापान और जर्मनी के सहयोग से आजाद हिंद फौज की स्थापना की थी। यह कार्य कोई ताकतवर व्यक्ति ही कर सकता था। भारत से बाहर जाकर आजाद हिंद फौज की स्थापना करना कोई मामूली काम नहीं था । लेकिन सुभाष चंद्र बोस ने इसे कर दिखलाया था।
जब पहली बार ब्रिटिश हुकूमत को यह जानकारी मिली कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज की गठन कर लिया । अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिल गई थी। अंग्रेजों को मालूम था कि सब से टक्कर लिया जा सकता है, लेकिन नेताजी सुभाष चंद्र बोस से टक्कर नहीं लिया जा सकता है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने सिंगापुर की धरती पर आजाद हिंद फौज की एक बड़ी आम सभा में, जिसमें हजारों हजार की संख्या में मलेटरी वेशभूषा में आजाद हिंद फौज के सिपाही खड़े थे । नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने स्वयं को स्वतंत्र भारत का प्रधानमंत्री घोषित किया था। तब आजाद हिंद फौज के सिपाहियों ने सिंह के समान गर्जना कर उनका स्वागत किया था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने भारत को स्वतंत्र देश की घोषणा की थी। तब जापान, जर्मनी, चीन सहित कई देशों ने भारत को एक स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता दी थी। यह भारत के लिए सबसे बड़ी जीत थी।
हम सब 15 अगस्त 1947 को आजादी के वर्षगांठ के रूप में मनाते हैं। लेकिन जिस तिथि को नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने भारत को स्वतंत्र घोषित कर स्वयं को भारत का प्रधानमंत्री घोषित किया था, यह तिथि 21 अक्टूबर,1943 भारत के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से लिखा जा चुका था। लेकिन एक राजनीति के तहत नेताजी के शौर्य की समीक्षा नहीं की गई। उनके शौर्य को दबाया गया। नेताजी सुभाष चंद्र बोस का आगमन इस धरा पर 1897 में हुआ था। 1945 में खबर आई कि एक हवाई दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। वे मात्र इस धरा पर 48 वर्षों तक जीवित रहे थे। लेकिन उनका एक एक क्षण देश की आजादी के नाम रहा था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस देश के नेताओं से नाखुश इसलिए रहा करते थे कि वे आग्रह को देश की कमजोरी मानते थे ।उनका मत था कि देशवासी ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुझे आजादी दूंगा’। इस तरह कहने वाले विश्व के अकेले ऐसे नेता थे , जिनके आह्वान के बाद हजारों हजार की संख्या में युवा उनके पीछे चल पड़े थे।
आज की बदली परिस्थिति में जहां देश की राजनीति, नैतिकता के आधार पर चल नहीं रही है। इस विषम परिस्थिति में देशवासियों को नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जीवन से त्याग बलिदान और देशभक्ति की सीख लेनी चाहिए। नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म भारत की आजादी के लिए हुआ था। उन्होंने घर वालों के कहने पर आईसीएस की परीक्षा दी और अच्छे अंको से उत्तीर्ण होकर कुछ माह नौकरी भी की थी। लेकिन मन के अंदर देश की आजादी का रक्त दौड़ रहा था। मन के अंदर स्वामी विवेकानंद और महर्षि अरविंद के विचार कौंध रहे थे। तब भला नेताजी सुभाष चंद्र बोस कैसे आईसीएस की नौकरी करते ? उन्होंने आईसीएस की नौकरी से त्यागपत्र देकर सीधे चितरंजन दास के पास गए और देश के स्वतंत्रता आंदोलन के सिपाही के रूप में आगे के मार्ग प्रशस्त करने का आग्रह किया। यह जज्बा नेताजी सुभाष चंद्र बोस के अंदर था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आईसीएस से रिजाइन करने के बाद उनके घर वालों को ने भी नेता जी के इस कार्य की बड़ी प्रशंसा की थी । नेता जी के परिवार जैसे लोग के कारण ही भारत को आजादी मिली थी। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज के माध्यम से ब्रिटिश हुकूमत को एक नहीं कई मोर्चे पर जबरदस्त मात दी थी। नेताजी सुभाष चंद्र बोस निरंतर आगे बढ़ते चले जा रहे थे । अंग्रेजी यह मानने के लिए विवश हो गए थे कि अगर भारत को आजाद नहीं करेंगे तो आजाद हिंद फौज उन्हें खदेड़ कर ही दम लेगा। 1942 में द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटेन की जबरदस्त हार भी इसी रणनीति का एक नमूना था। अंग्रेज अब मानने लगे थे कि भारत में अब ज्यादा दिनों तक शासन किया नहीं जा सकता । विश्व के राजनीति विशलेष्कों अनुमान है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बढ़ते अंतरराष्ट्रीय प्रभाव को देखकर एक साजिश के तहत ब्रिटिश हुकूमत ने नेताजी की हत्या करवा दी थी। हम सब देश भर में नेताजी की 125वीं जयंती मनाने जा रहे हैं। लेकिन आज तक उनकी मौत की गुत्थी सुलझ नहीं पाई है। मैं इस लेख के माध्यम से भारत सरकार से मांग करता हूं कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस के हत्या की गुत्थी सुलझाने में अहम भूमिका निभाएं। नेताजी की हत्या में शामिल लोगों के नामों को सामने लाएं,ताकि विश्व जनमानस नेताजी के हत्यारों को जान सके। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती पर यह सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी।