गुरु नानक देव जी का जीवन दर्शन नैतिकता की सीख प्रदान करता है

(4 नवंबर, कार्तिक पूर्णिमा, सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक जयंती पर विशेष)

गुरु नानक देव जी का जीवन दर्शन नैतिकता की सीख प्रदान करता है

सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक जी का जीवन दर्शन सहज - सरल रहने के साथ नैतिकता की सीख प्रदान करता है। उनका जीवन बहुत ही सहज सरल और सत्य निष्ठा पर आधारित था। वे बाल काल से लेकर जीवन के अंतिम क्षणों  तक मानव की सेवा में  तत्पर रहे थे।  उन्होंने कभी भी ऐसा कोई कार्य नहीं किया, जिससे मानव मन व्यथित हो। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि 'जीवन को सत्य की राह पर ले जाना ही जीवन का लक्ष्य और उद्देश्य होना चाहिए। मनुष्य को कदापि वह कार्य नहीं करना चाहिए, जो असत्य पर आधारित हो। ईमानदारी की सूखी रोटी ही अच्छी है। बेईमानी का मालपूआ का भी कोई अर्थ नहीं रह जाता है।' अर्थात उन्होंने सत्य मार्ग को ही जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण बताया।  वहीं असत्य के मार्ग पर न चलने की हिदायत दी । आज की बदली परिस्थिति  में संपूर्ण विश्व जहां युद्ध की राह पर चल पड़ा है, ऐसे में मनुष्य के जीवन पर हर पल मौत के बादल मंडरा रहे हैं।  चूंकि आज अधिकांश मनुष्य असत्य की राह की ओर अग्रसर है। वहीं स्वार्थी और लालची भी हो चुका है । इसलिए जरूरी है कि ऐसे विकारों से मुक्त होकर मनुष्य को मनुष्य की तरह गले लगाए। मनुष्य से मनुष्य की भिन्नता न करें तभी संपूर्ण विश्व इस  युद्ध के भंवर से निकल सकता है।  अन्यथा मनुष्य अपने ही हाथों अपने मनुष्य जाति का सर्वनाश कर देगा। आज संपूर्ण विश्व को गुरु नानक देव का जीवन दर्शन आत्मसात कर, मिलजुल कर आगे बढ़ना चाहिए।
 गुरु नानक देव जी को सिख धर्मावलंबियों के प्रथम गुरु होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वे बचपन से ही दयालु प्रवृत्ति के थे। वे सदैव गरीबों के कल्याण  के लिए तत्पर रहा करते थे। वे भूखे व्यक्तियों की भूख मिटाने के प्रति बहुत ही सजग रहा करते थे।  इस कारण उन्हें कई बार अपने परिवार वालों का कोट भाजन भी बनना पड़ता था।  लेकिन उन्होंने इसकी  तनिक भी परवाह नहीं की।  चूंकि वे  तो सीधे ईश्वर द्वारा भेजे गए एक विशेष दूत थे, जिन्हें अपने ईश्वरीय  कार्य के माध्यम से मानवता को फिर से पुनर्स्थापित करना था। उनका 15 अप्रैल, 1469, कार्तिक पूर्णिमा को राय भोई की तलवंडी, ननकाना साहिब,पंजाब, पाकिस्तान में हुआ था। वे इस धरा पर 70 वर्षों तक रहे थे ।  उनकी 22 सितंबर 1539 को हुई थी। उनके अनुयायी उन्हें प्रेम से नानक, नानक देव जी, बाबा नानक और नानक शाह नामों से सम्बोधित करते हैं। गुरु नानक देव जी का  व्यक्तित्व और कृतित्व  दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्म सुधारक, समाज सुधारक, कवि, देशभक्त और विश्व बंधुत्व आदि गुण से हो ओतप्रोत ह।  इनके पिता का नाम मेहता कालू चन्द खत्री ब्राह्मण तथा माता का नाम तृप्ता देवी था।
  गुरु नानक देव बचपन से ही प्रखर बुद्धिमत्ता के लक्षण दिखाई देने लगे थे। लड़कपन ही से वे  सांसारिक विषयों से उदासीन रहा करते थे। पढ़ने-लिखने में उनका मन नहीं लगा। इसी कारण उनका सात - आठ  साल की उम्र में स्कूल छूट गया था । चूंकि  भगवत्‌ प्राप्ति के सम्बन्ध में उनके प्रश्नों के आगे अध्यापक भी हार मान जाते थे । शिक्षक गण ही उन्हें   स सम्मान घर छोड़ने आ जाते थे । तत्पश्चात् सारा समय वे आध्यात्मिक चिन्तन और सत्संग में व्यतीत करने लगे थे । बचपन के समय में कई चमत्कारिक घटनाएं घटीं, जिन्हें देखकर गांव के लोग इन्हें दिव्य व्यक्तित्व मानने लगे थे। बचपन के समय से ही उनमें श्रद्धा रखने वालों में इनकी बहन नानकी तथा गांव के शासक राय बुलार आदि प्रमुख थे।
 गुरु नानक देव जी का विवाह बालपन मे सोलह वर्ष की आयु में गुरदासपुर जिले के अन्तर्गत लाखौ की नामक स्थान के रहनेवाले मूला की कन्या सुलक्खनी कर दिया गया था। बत्तीस वर्ष की अवस्था में उनके प्रथम पुत्र श्री चन्द का जन्म हुआ। चार वर्ष पश्चात् दूसरे पुत्र लखमी दास का जन्म हुआ। दोनों लड़कों के जन्म के उपरान्त 1507 में गुरु नानक देव अपने परिवार का भार अपने श्वसुर पर छोड़कर मरदाना, लहना, बाला और रामदास इन चार साथियों को लेकर तीर्थयात्रा के लिये निकल पड़े थे। गुरु नानक देव जी 1507 से लेकर 1539 तक सिर्फ और सिर्फ ईश्वरीय कृपा का प्रसाद ही बांटते रहे थे । उनके प्रवचन का विषय यह रहता था कि   ईश्वर क्या है ? ईश्वर की कृपा क्या है ?  ईश्वर के प्रति मनुष्य की क्या कर्तव्य होनी चाहिए ?  मनुष्य का जीवन कैसा होना चाहिए ?  आदि विषयों पर 32 वर्षों तक प्रवचन करते रहे थे। उनके प्रवचन में धीरे-धीरे कर श्रोताओं की संख्या बढ़ने लगी थी।  यही श्रोता आगे चलकर उनके शिष्य बने। यहीं से सिख धर्म का उदय हुआ। 
  गुरु नानक देव जी के जन्म और मृत्यु के संबंध में कई विवादास्पद तिथियां हमारे इतिहास की पुस्तकों में अंकित है। इस पर बराबर विवाद होता रहता है, लेकिन अधिकांश साहित्यकारों का वर्तमान में जो तिथि प्रचलित  है, वही मान्य है। गुरु नानक देव की यात्राओं के बारे में उपन्यास के दावे, साथ ही उनकी मृत्यु के बाद गुरु नानक के शरीर के गायब होने जैसे दावे भी बाद के संस्करणों में पाए जाते हैं।‌ सूफी साहित्य में उनके पीरों के बारे में चमत्कारिक कहानियों के समान हैं । गुरु नानक देव की यात्रा के आसपास की किंवदंतियों से संबंधित सिख जन मसाखियों में अन्य प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष उदार  हिंदू काव्यों,  पुराणों और  बौद्ध जातक कहानियां में दर्ज है।
   गुरु नानक देव जी के जीवन दर्शन को सर्वेश्वर वादी दर्शन के रूप में जाना जाता है । मूर्तिपूजा के संदर्भ में उन्होंने सनातन मत की मूर्तिपूजा की शैली के विपरीत एक परमात्मा की उपासना का एक अलग मार्ग मानवता को दिया। उन्होंने हिन्दू पंथ में सुधार के लिए  कार्य किया था। इसलिए उन्हें एक प्रखर दूरदृष्टा समाज सुधारक के नाम से भी जाना जाता है। ‌ उन्होंने तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक स्थितियों पर भी दृष्टि डाली है। सन्त साहित्य में नानक उन सन्तों की श्रेणी में हैं जिन्होंने नारी को बड़प्पन दिया है। हिन्दी साहित्य में गुरु नानक देव भक्तिकाल के अन्तर्गत आते हैं। वे भक्तिकाल में निर्गुण धारा की ज्ञाना श्रयी शाखा से सम्बन्ध रखते हैं। उनकी कृति के सम्बन्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल  ने हिन्दी साहित्य का इतिहास में दर्ज किया हैं कि- 'भक्तिभाव से पूर्ण होकर वे जो भजन गाया करते थे, उनका संग्रह, संवत् 1661 में ग्रन्थ साहब में किया गया है।'
  जीवन के अन्तिम दिनों में गुरु नानक देव की  ख्याति बहुत बढ़ गई थी। उनके विचारों में भी परिवर्तन हुआ था।  उनके विचारों में एक नया दर्शन था, जो मनुष्य को मनुष्यता से परिचय करवाता था । उन्होंने धर्म के अर्थ को मानवता की सेवा से  जोड़ कर  में प्रस्तुत किया था।उन्होंने करतारपुर नामक एक नगर बसाया, जो कि अब पाकिस्तान में है। उन्होंने एक बड़ी धर्मशाला उसमें बनवाई। इसी स्थान पर  उनका परलोक वास हुआ।मृत्यु से पहले उन्होंने अपने शिष्य भाई लहना को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया जो बाद में गुरु अंगद देव के नाम से जाने गए। गुरु नानकदेव भेदा भेद वादी कवि थे।  साथ ही वे एक अच्छे सूफी कवि भी थे। उनके भावुक और कोमल हृदय ने प्रकृति से एकात्म होकर जो अभिव्यक्ति की है, वह निराली है। उनकी भाषा 'बहता नीर' थी, जिसमें फारसी, मुल्तानी, पंजाबी, सिंधी, खड़ी बोली, अरबी के शब्द समा गए थे। गुरु ग्रन्थ साहिब में सम्मिलित 974 शब्द में, 19 रागों में, गुरबाणी में शामिल किया गया ।