कर्पूरी ठाकुर की राजनीति सदा जन सेवा को समर्पित रही थी 

(24 जनवरी, जननायक कर्पूरी ठाकुर की 101 वीं जयंती पर विशेष)

कर्पूरी ठाकुर की राजनीति सदा जन सेवा को समर्पित रही थी 

जननायक कर्पूरी ठाकुर का  झारखंड से बहुत ही गहरा लगाव था । उन्होंने झारखंड को समृद्ध बनाने के लिए कई महत्वपूर्ण योजनाओं को मूर्त रूप प्रदान किया था। देश की आजादी के बाद सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेतागण आदिवासियों को ठगते रहे थे । एकीकृत बिहार के मुख्यमंत्री  बनने के बाद कर्पूरी ठाकुर झारखंड के आदिवासियों की सुध ली थी। वे आदिवासियों की योजनाओं को मूर्त रूप प्रदान करने के लिए सीधे आदिवासी नेताओं और जनजाति समाज के लोगों से मिले थे। वे झारखंड को राजनीतिक तौर पर  मजबूत  बनाने  के लिए सामाजिक न्याय के कई नए युवा चेहरे को सामने लाए थे। वे बिहार के पहले मुख्यमंत्री व नेता थे, जो देश की आजादी के बाद सबसे अधिक बार झारखंड का दौरा किये थे।

  सामाजिक न्याय और समाजवाद के पुरोधा जननायक कर्पूरी ठाकुर  संपूर्ण जीवन त्याग और बलिदान से ओतप्रोत है। उनकी राजनीति सदा जन सेवा को समर्पित रही थी। वे छात्र जीवन से ही समतामूलक समाज के निर्माण के पक्षधर रहे थे । वे समाज में छोटे-बड़े , ऊंची-नीची जातिवाद के भेद को जड़ से मिटा देना चाहते थे। वे एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते थे, जिसमें ना कोई छोटा हो , ना कोई बड़ा हो। समाज में व्याप्त भेदभाव को वे बिल्कुल उचित नहीं मानते थे।  वे कर्म के सिद्धांत को जीवन की वास्तविक पूंजी मानते थे । वे मेहनत कर धन उपार्जन पर विश्वास रखते थे। उन्हें बेईमानी और झूठ की  बातों से सख्त नफरत थी। वे एक बार बिहार के उपमुख्यमंत्री और दो - दो बार मुख्यमंत्री रहे थें। उन्होंने बेईमानी का एक भी पैसा नहीं  लिया और ना ही अपने सहयोगियों को लेने दिया था । उनके इस स्वभाव से उनके साथ रहने वाले कई नेता गण बहुत दुःखी भी होते थे। उनके इस स्वभाव के कारण कई  नेतागण उनका साथ छोड़ कर चले जाते थे। कर्पूरी ठाकुर ने कभी भी ऐसे लोगों की प्रवाह नहीं की थी।
  कर्पूरी ठाकुर मात्र 14 वर्ष  की उम्र में स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े थे। उन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सत्य और अहिंसा को अपने जीवन का मूल मंत्र बना लिया था। आगे चलकर लोकनायक जयप्रकाश नारायण और प्रखर समाजवादी राम मनोहर लोहिया से उन्होंने समाजवाद की सीख ली थी। सत्य और समाजवाद उनके अंदर ऐसा समाया कि कभी बाहर निकला ही नहीं। 1942 के स्वाधीनता आंदोलन में छात्रों को संगठित करने में कर्पूरी ठाकुर ने अहम भूमिका निभाई थी। वे  ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ खुलकर बोला करते थे। वे जल्द ही ब्रिटिश हुकूमत की लाल सूची में अंकित हो गए थे। उन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया था। जेल से आने के बाद वे और निखर गए थे। स्वाधीनता आंदोलन में उनकी सक्रियता देखते बनती थी। यह क्रम उनका कभी टूटा नहीं। वे देश की आजादी के बाद एक समाजवादी नेता के रूप में वे संपूर्ण राष्ट्र में पहचाने जाने लगे थे। वे 1952 में पहली बार बिहार विधान सभा सदस्य चुने गए थे। वे तब से लेकर मृत्यु पूर्व तक वे बिहार विधान सभा के सदस्य बने रहे थे। 
 1967 में जब बिहार में महामाया प्रसाद जी की सरकार बनी थी। उस सरकार में कर्पूरी ठाकुर उपमुख्यमंत्री बनाए गए थे। वे उपमुख्यमंत्री के साथ  शिक्षा मंत्री का भी दायित्व संभाले हुए थे । शिक्षा मंत्री रहते हुए उन्होंने  आठवीं तक की पढ़ाई निशुल्क कर दिया था। मैट्रिक तक की परीक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता को उन्होंने समाप्त कर दिया था । उन्होंने ऐसा इसलिए किया था कि समाज के पिछड़े बच्चे अंग्रेजी के कारण मैट्रिक पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते हैं। जिस कारण पिछड़े विद्यार्थी उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते थे । ऐसा कर उन्होंने एक बहुत बड़ा कदम उठाया था । इस कदम की बिहार प्रांत सहित देश के कई हिस्सों में उनकी जमकर आलोचना हुई थी। लेकिन वे इससे बिल्कुल घबराए नहीं। ऐसा कर उन्होंने समतामूलक समाज निर्माण की दिशा में एक सार्थक पहल की थी ।
  श्रीमती इंदिरा गांधी के खिलाफ जब जयप्रकाश नारायण का संपूर्ण क्रांति का आंदोलन का बिगुल चंहुओर बज रहा था, तब कर्पूरी ठाकुर देशभर में घूम घूम कर जनता के बीच इंदिरा गांधी के विरोध जमकर अपनी बातों को रख रहे थे।  आपातकाल का उन्होंने जमकर विरोध किया था । देश से  इमरजेंसी की समाप्ति की घोषणा के बाद जब केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी थी।  तब बिहार में भी जनता पार्टी की सरकार बनी थी। बिहार विधानसभा के विधायक दल के नेता चुने जाने के बाद कर्पुरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री बने थे। इस पद पर रहते हुए उन्होंने गरीबों, अति पिछड़े वर्ग के लोगों को न्याय देने के लिए आरक्षण की घोषणा की थी।  कर्पूरी ठाकुर के इस कदम का पूरे राज्य में जमकर विरोध हुआ था। लेकिन वे अपनी इस घोषणा पर अटल  रहे थे। समाज के दलित,  अति पिछड़े वर्ग और गरीबों को आरक्षण के रूप में एक वरदान मिल गया था। अब वे आरक्षण के माध्यम से सीधे सरकारी नौकरियों में जा सकते थे। मुख्यमंत्री पद पर रहकर भी उनके आचार - विचार और व्यवहार में कोई भी तब्दीली नहीं हुआ था। उनका मुख्यमंत्री आवास चौबीसों घंटे जरूरतमंदों के लिए खुला हुआ रहता। वे जिस समाजवाद का समतामूलक समाज के निर्माण का  झंडा लेकर आगे बढ़ रहे थे,  इनके रूप रंग से स्पष्ट रूप से झलक रहे थे। वही साधारण कुर्ता - धोती, पुराना चप्पल और बिखरे बाल उनकी सादगी को परिभाषित करता था। मुख्यमंत्री बनने से पूर्व  उनका जो रहन-सहन था, वही रहन सहन मुख्यमंत्री बनने के बाद भी रहा था।
     एक बार कर्पूरी ठाकुर कोआस्ट्रीया जाने का अवसर प्राप्त हुआ था । तब उन्होंने अपने एक मित्र से फटा हुआ कोट उधार लिया था।   आस्ट्रीया  के शासक  उन्हें फटे कोट में देखकर एक नूतन कोट भेंट की थी । वे फटे पुराने कपड़े  जरूर पहनते थे, लेकिन जब मंच पर पहुंचते थे, तो उनके अंदर की ईमानदारी एक रौशनी रूप में प्रकट होता थी। जहां मंच पर बैठे अन्य नेतागण बौने लगते थे।
    जननायक कर्पुरी ठाकुर इस धरा पर 64 वर्षों तक जीवित रहे थे। 17 फरवरी 1988 को हुए इस दुनिया से रुखसत हो गए थे । उन्होंने अपने 64 वर्षों के जीवन काल में कभी भी अपनी नीतियों से समझौता नहीं किया था। सरकार चली जाए, उसकी भी उन्होंने परवाह नहीं की थी। वे मुख्यमंत्री रहे अथवा ना रहे , लेकिन नीतियों से कभी भी समझौता नहीं किया । उन्होंने राजकोष का गलत इस्तेमाल होने दिया था । अपनी संचिकाओं के साथ जब निर्णय लेने के लिए बैठते थे, तब वह एक सख्त प्रशासक की भूमिका में होते थे । वे रत्ती भर भी गलती होने नहीं देते थे। उनकी सहज उपस्थिति से अधिकारी कांप उठते थे । वे कठोर से कठोर बातों को बिल्कुल सहजता के साथ प्रकट करते थे। वे सामने वाले को सुधर जाने की हिदायत देते थे। वे एक अवसर भी प्रदान करते थे । दोबारा गलती को माफ भी नहीं करते थे।
  मुख्यमंत्री रहते हुए विधायकों के लिए सरकारी जमीन आवंटित की जा रही थी । उनके कई विधायक गण उन्हें जमीन ले लेने की बात कही थी। लेकिन उन्होंने  सरकारी जमीन लेने से मना कर दिया था । वे देश के पहले मुख्यमंत्री थे, जिनके पास अपना निजी कार नहीं था। और ना ही बहुमंजिला मकान था। उनका तो प्रादुर्भाव इस धरा पर अति पिछड़ों, दलितों , असहायों की सेवा करने के लिए हुआ था। वे सच्चे अर्थों में सामाजिक न्याय और समतामूलक के पुरोधा थे। संत कबीर की यह पंक्ति उनके जीवन पर बिल्कुल फिट बैठती है, 'जस की तस धर दीन्हीं चदरिया'।