हिंदी - मगही के प्रचार - प्रसार में मधुकर जी का जीवन समर्पित रहा था
(18 दिसंबर, प्रख्यात कवि, गीतकार शेष आनंद मधुकर की प्रथम पुण्यतिथि पर विशेष)
झारखंड के जाने-माने प्रख्यात साहित्यकार, कवि, गीतकार शेष आनंद मधुकर का संपूर्ण जीवन हिंदी और मगही भाषा के प्रचार-प्रसार को समर्पित रहा था। उन्होंने हिंदी और मगही भाषा के साधारण व बोलचाल में प्रचलित शब्दों को अपनी कविताओं और गीतों में इस तरह पिरोया कि आज भी लोगों की जुबान पर है। शेष आनंद मधुकर अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक मगही और हिन्दी भाषा में लगातार काम करते रहे थे । इतनी उम्र हो जाने के बावजूद मगहीऔर हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार के लिए लगातार यात्राएं भी करते रहे थे। मधुकर जी का यह समर्पण उन्हें मगही भाषा और हिंदी का मर्मज्ञ विद्वान के रूप में तब्दील कर दिया था। वे हिंदी और मगही भाषा के एक नामचीन शख्सियत बन गए थे।
उनकी लोकप्रियता राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर तक फ़ैल चुकी है। मगही भाषा में उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें 2018 में साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित भी किया गया था । शेष आनंद को साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त होने के हजारीबाग की साहित्यिक संस्था 'परिवेश' द्वारा उनका बहुत ही शानदार तरीके से अभिनंदन किया गया था। उस अभिनंदन समारोह में हजारीबाग के लगभग सभी साहित्यकार और साहित्यानुरागी सम्मिलित हुए थे। इसे संयोग ही कहा जाए कि उस अभिनंदन समारोह में मैं और भारत यायावर सम्मिलित नहीं हो पाए थे। जिसका आज भी मन में एक बोझ सा बना हुआ है। उस कार्यक्रम में शेष आनंद मधुकर बहुत ही सहजता के साथ अपनी बातों को रखे थे । उन्होंने मगही की विकास यात्रा में अपने अवदान को बहुत ही तर्क पूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया था। उन्होंने मगही भाषा की मिठास पर भी बहुत ही सारगर्भित बातें रखीं थीं। वे कार्यक्रम में बारी-बारी से सब की बातें बड़े ही ध्यान पूर्वक सुनते रहें थे। जब उनकी बोलने की बारी आई तब उन्होंने बड़े ही अदब और शालीनता के साथ सबकी बातों को रखा था। उनकी विद्वत उनकी वाणी से प्रकट होती रही थी। उनके उक्त भाषण की आज भी लोग चर्चा करते हैं।
वे जिस मंच पर भी जाते, मंच के केंद्र बिंदु बन जाया करते थे। लोग उनके सस्वर गीत सुनकर मंत्र मुग्ध हो जाया करते थे। मगही बिहार की बहुत ही लोकप्रिय भाषा है। आज भी मगही लाखों लोगों की बोलचाल की भाषा है। मगही भाषा के प्रति शेष आनंद मधुकर का लगाव जीवन पर्यंत बना रहा था। मगही में उनकी कविताएं और गीत पूरी तरह छंदोबध्ध हैं।
शेष आनंद मधुकर मृदुभाषी, मिलनसार, हमेशा हंसमुख रहने वाले व्यक्ति थे। वे अपनी बातों को बहुत ही सहजता के साथ रखा करते थे। वे थोड़े ही देर बातचीत में सामने वालों को अपना बना लेते थे।
वे एक प्राध्यापक के बतौर हिंदी के विभागाध्यक्ष के रूप में 1999 में संत कोलंबा कॉलेज से सेवानिवृत हुए थे। वे संत कोलंबा कॉलेज के हिंदी के प्राध्यापक रहते हुए विनोबा भावे विश्वविद्यालय में भी स्नातकोत्तर के छात्रों को हिंदी पढ़ाया करते थे। वे समय के बहुत ही पाबंद थे। वे छात्रों को बहुत ही मन से पढ़ाया करते थे। छात्रगण भी उनके क्लास को छोड़ना पसंद नहीं करते थे। छात्रगण उनका काफी सम्मान करते थे। सेवा निवृत्ति के बाद भी छात्र गण घर पर आकर उनसे पढ़ाई संबंधी जानकारियां लिया करते थे। उनके अंतर्गत कई शोधार्थियों ने पीएचडी पूरी की थी। वे छात्रों के नायक रूप में भी जाने जाते रहे थे।
शेष आनंद मधुकर का जन्म बिहार के ग्राम दरियापुर, थाना टिकारी, गया ,बिहार में 8 दिसंबर 1939 को हुआ था। ग्रामीण परिवेश में उनकी प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा हुई थी। बचपन से ही उन्हें शिक्षक बनने का शौक था। मगही की पारंपरिक गीतों को स्कूल और कॉलेज के मंचो से बराबर गया करते थे। वे उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद शिक्षा की सेवा से जुड़ गए थे। मगही भाषा के प्रति उनका यह लगाव छात्र जीवन से ही था । यह लगाव जीवन पर्यंत बना रहा था। वे मगही भाषा को जन-जन की भाषा के रूप में प्रचारित और प्रसारित करना चाहते थे। इस निमित्त उन्होंने काफी काम भी किया। मगही भाषा को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर तक ख्याति दिलाने में उनके महती योगदान को सदा याद किया जाता रहेगा।
उन्होंने वर्ष 1960 में साहित्य सृजन के क्षेत्र में कदम रखा था। फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनकी साहित्य साधना के 63 वें वर्ष में उनका निधन हो गया था। उनके विदा हो जाने से जाना मगही भाषा और हिंदी के प्रचार प्रसार के काम में बड़ा झटका लगा था। । वे अनवरत मगही भाषा और हिंदी के एक साधक के रूप में क्रियाशील रहें थे। 1960 से ही उनकी कविताएं देश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में छपने लगी थीं। मगही भाषा में लिखी गई उनकी कविताओं पर जितनी समीक्षाएं लिखी गईं, इससे पूर्व मगही भाषा के किसी भी कवि की कविताओं पर इतनी समीक्षाएं नहीं लिखी गई। उनकी कविताएं प्रकाशित होने के साथ ही लोकप्रिय हो जाया करती थीं । वे मगही भाषा और हिंदी में समान रूप से लिखा करते थे। लेकिन हिंदी में लिखी गई उनकी रचनाएं पाठकों के बीच ज्यादा लोकप्रिय नहीं हो पाई।
शेष आनंद मधुकर की मगही और हिंदी में पांच से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हुईं। वे मृत्यु से पूर्व तक मगही भाषा पर ही काम कर रहे थे। उनके घर में उनकी लिखित काफी पांडुलिपियों पड़ी हुई हैं, जो कई पुस्तकों का आकार ग्रहण कर सकती हैं। उन्होंने मगही भाषा में विभिन्न विधाओं में अपनी रचनाओं को प्रस्तुत किया। शेष आनंद के पूर्व मगही भाषा की इतनी विधाओं पर किसी अन्य लेखक अथवा कवि ने काम नहीं किया। उनकी प्रसिद्ध हिंदी रचनाओं में 'एकलव्य', 'मगही कविता के बिम्ब तथा भगवान बिरसा' शामिल हैं।
शेष आनंद मधुकर अपने नाम के अनुरूप सदा आनंदित रहने वाले एक बेमिसाल व्यक्ति थे। वे सदा लोगों को आनंद ही वितरित किया करते थे। उनकी मगही की कविताओं में एक ओर मगही की संस्कृति, रीति - रिवाज और परंपराएं नजर आती हैं, तो दूसरी ओर सामाजिक रूढ़ियों को कैसे ध्वस्त कर एक नए समाज का निर्माण किया जाए ? के भी बीज मिलते हैं।
उनसे सीधे कई बार मगही कविताओं को सुनने का मुझे अवसर प्राप्त हुआ। एक बार कवयित्री कविता सिन्हा के साथ शेष आनंद के घर जाने का अवसर प्राप्त हुआ था। उस समय कविता सिन्हा शेष आनंद मधुकर के अंतर्गत पीएचडी कर रही थी । उस दिन शेष आनंद के घर पर हम तीनों की दो घंटे से अधिक बातचीत हुई थी। शेष आनंद मधुकर जी का बातचीत का अंत उनकी कविताओं से हुआ करता था। जब वे अपनी कविताओं का पाठ किया करते थे, तब उनके अंग - प्रत्यंग देखते बनता था । कविताएं सिर्फ उनके मुख से ही सस्वर नहीं निकलती थी, बल्कि उनकी आंखें,ललाट की भाव भंगीमा, दोनों हाथ सब कुछ कविताएं कहती थी। कविता सुनकर खुद आनंद का अनुभव करते थे । जब मैं उनसे पूछा कि आप अपने जीवन में सबसे ज्यादा आनंद किस कार्य को कर महसूस करते हैं ? इस प्रश्न का जवाब उन्होंने बहुत ही शालीनता के साथ यह कहकर जबाब दिया था कि 'जब मैं गीत- कविता लिखता हूं,। उसमें खो जाता हूं । समय कैसे बीत जाता है? पता ही नहीं चलता है। जब मैं गीत - कविता सुनाता हूं,उसी में खो जाता हूं । समय कैसे बीत जाता है? पता ही नहीं चलता। अर्थात कविता गीत लिखकर गाकर ही मुझे सबसे अधिक आनंद की अनुभूति होती है।' उनके ये शब्द हर साहित्यानुरागियों को स्मरण करना चाहिए । इन शब्दों से सीखने की जरूरत है । शेष आनंद मधुकर ने मगही भाषा और हिंदी के क्षेत्र में अतुलनीय कार्य किया इसके बाद भी वे अपने आप को एक शोधार्थी ही मानते थे। वे कहा करते थे कि अभी तो मैं मगही भाषा और हिंदी में काम करना शुरू किया है । अभी तो और बहुत कुछ काम करने की जरूरत है।