आचार्य विनोबा से प्रभावित होकर चंबल के कुख्यात डाकुओं ने आत्मसमर्पण कर दिया था

पाकिस्तान यात्रा के अंतिम दिन उन्होंने लोगों से कहा- "ऊपर वाले ने बहुत-सी नस्लें, बहुत रंग के लोग, बहुत-सी जुबाने और बहुत-से धर्म बनाए है, ताकि दुनिया में विविधता की बहार हो। एक चीज हम सबको सदा याद रखना चाहिए कि मूल रूप से हम केवल इंसान हैं।"

आचार्य विनोबा से प्रभावित होकर चंबल के कुख्यात डाकुओं ने आत्मसमर्पण कर दिया था

विनोबा को कश्मीर यात्रा के दौरान डाकू मानसिंह के पुत्र तहसीलदार सिंह का जेल से लिखा पत्र मिला था। वह जेल में फांसी की सजा का दिन था। उसने मरने से पहले विनोबा के दर्शन करने की अभिलाषा जाहिर की । विनोबा ने अपनी कश्मीर यात्रा के प्रबंधक मेजर यधुनाथ सिंह को जेल में मिलने भेजा। जेल में तहसीलदार सिंह से मिलने के बाद वह चम्बल व मानसिंह गिरोह के कुछ प्रमुख डाकुओं से मिले । उन्होंने आकर विनोबा को बताया कि यदि वह चम्बल का दौरा करें, तो बहुत-से डाकू आत्मसमर्पण कर सकते हैं। फिर वे अपराध का जीवन छोड़ देंगे। विनोबा को यह विचार पसंद आया। उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्रियों ने इस विचार का स्वागत किया। केंद्रीय गृहमंत्री पंत ने भी इसका अनुमोदन किया। संबद्ध प्रशासनिक व पुलिस अधिकारियों को विनोबाजी का पूरा साथ देने के निर्देश जारी कर दिए गए। विनोबा ने अपना अभियान 7 मई, 1960 को एक प्रार्थना सभा के साथ शुरू किया। फतेहाबाद में डाकू रामअवतार ने विनोबा के सामने हथियार डालकर आत्मसमर्पण किया तथा भविष्य में कोई अपराध न करने की शपथ ली। विनोबा ने उपस्थित प्रसिद्ध अधिकारियों को सम्बोधित किया—“कोई जन्म से डाकू नहीं होता। यह केवल शोषण, कंजूसी, क्रूरता तथा संवेदनहीनता का परिणाम है। ये डाकू मूल रूप से सीधे, बहादुर तथा निडर लोग हैं। इन्हें अच्छा व न्यायपूर्ण व्यवहार देकर भला व्यक्ति बनाया जा सकता है।” । इसके बाद कुख्यात डाकू लच्छी पंडित ने परिवार सहित आत्मसमर्पण किया। लुक्का व उसके गैंग ने भी स्वयं को विनोबा के हवाले कर दिया। विनोबा बोले-“डाकू समस्या के तीन कारण हैं—गरीबी, आपसी दुश्मना और पुलिस और चौथा कारण भी है, वह है दलगत राजनीति और चुनाव। । बहत-से पुलिस अधिकारियों तथा राजनेताओं को यह बात चुभ गई। पुलिस, डाकू व कुछ नेताओं की सांठ-गांठ तो सर्वविदित बात थी। अफवाहें फैलाई गई कि विनोबा की गतिविधियों से पुलिस का मनोबल गिर रहा है। डकैतों का माफी के वादे दिए जा रहे हैं। कुछ डाकू सीधे माफी भी चाहते थे। विनोबा ने उनसे कहा कि कानून तो अपना काम करेगा। वह अलग मामला है। हां, उनके मामले में सहानुभूति जरूर दिखाई जाएगी, क्योंकि उन्होंने स्वेच्छा से कानून का साथ दिया है। उन्होंने आत्मसमर्पण करने वाले डाकुओं की सहायता के लिए संघ के कार्यकर्ताओं की एक समिति बनाई। इस समिति ने डाकओं की सहायता की, बचाव पक्ष तैयार किए। इसने चंदा इकट्ठा कर डाकुओं को बसाने के लिए प्राप्त भूमि को खेती योग्य बनाया तथा डाकुओं के परिवार लोगों को कुटीर उद्योग में प्रशिक्षित किया।

विनोबा भावे का जन्म 11 सितम्बर , 1895 के दिन आज के महाराष्ट्र राज्य के कोलाबा जिले के गागोदा नामक ग्राम के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। यह उस गांव का एकमात्र ब्राह्मण परिवार था। बालक का नामकरण विनायक नरहरि भावे हुआ। माता उनको विनय कहकर पुकारती थीं। बाद में यही विनायक भावे जब गांधीजी के साबरमती आश्रम में स्वेच्छा से भर्ती हुए, तो उनके संत सरीखे गुणों को देख किसी ने उन्हें विनोबा भावे नाम दिया। जिस नाम से वह जगत प्रसिद्ध हुए। उनके पिता का नाम नरहरि शंभूराव भावे था तथा माता का रुक्मिणी देवी। एक बहन व तीन भाइयों में विनायक सबसे बड़े थे। माता माता का विनायक के जीवन पर सर्वाधिक प्रभाव रहा। उनकी माता का नाम रुक्मिणी देवी तथा पिता का नाम नरहरी भावे था। उनकी माता रुक्मिणी देवी बहुत गम्भीर स्वभाव की तथा धार्मिक विचारों वाली महिला थीं। माता से ही विनायक को अनुशासन, बलिदान, त्याग, पवित्रता तथा सेवा की शिक्षा मिली।

रुक्मिणी देवी का सारा जीवन पुत्र विनायक के लिए एक पाठ था

माता रुक्मिणी देवी का बेटे विनायक के बुद्धि चातुर्य पर विश्वास का अंदाज़ा इस घटना से लगाया जा सकता है। एक बार उन्होंने भगवान को चावल के एक लाख दाने चढ़ाने का संकल्प लिया। अब वह प्रतिदिन चावल लेकर बैठ जातीं और एक-एक दाने गिन-गिनकर भगवान का नाम स्मरण करते हुए रखती जातीं। यह देख उनके पति ने सुझाया-“भाग्यवान! इस तरह दाने गिनने से तो तुम्हें एक लाख की गिनती पूरी करने में महीनों लग जाएंगे। तुम ऐसा क्यों नहीं करती कि एक तोला (लगभग 10 ग्राम) चावल तौलकर गिन लो कि एक तौल में कितने दाने होते हैं। फिर गुणा करके जान लो कि एक लाख दाने चावलों का भार कितना होगा। उतने तौल के चावल भगवान को चढ़ा दो।” ___ रुक्मिणी देवी को कोई सटीक उत्तर नहीं सूझा। वह चुपचाप बैठी रहीं, परंतु उनका मन कहता था कि दाने गिन-गिनकर एक लाख की गिनती पूरी करना ही ठीक है तौलना नहीं। उन्होंने सोचा-‘विनय आएगा तो उससे पूछंगी। वह बताएगा सही उत्तर। _ विनायक घर आया तो माता ने अपनी समस्या बेटे को बता दी। विनायक समस्या पर कुछ देर तक सोचता रहा फिर उसके चतुर दिमाग को एक हल सूझ गया और वह बोला—“मां! जब तुम चावल का एक दाना चुनकर रखती हो, तो तुम्हारा मन भगवान के नाम का स्मरण करता है। असली उददेश्य एक लाख बार भगवान को स्मरण करना है,गणित का अभ्यास करना नहीं ।”

विनायक के अपने आदर्श व नियम थे

विनायक की पढ़ने में अत्यधिक रुचि थी। वह विश्व प्रसिद्ध लेखकों की रचनाएं पढ़ा करते थे।विनायक में भावार्थ सीखने की बहुत भूख थी। अपनी मातृभाषा मराठी के अतिरिक्त उन्होंने गुजराती, हिंदी, इंगलिश, फ्रैंच व संस्कृत भी सीख डाली थी। बाद में स्वतंत्रता आंदोलन में दक्षिण भारत की बैलोट जेल में विनोबा के रूप में जेल प्रवास के समय तमिल, तेलुगू, कन्नड़ व मलयालम सीखी। अपने पिता की ही तरह विनायक के भी अपने आदर्श व नियम थे। दूसरों के कहने की विनायक ने कभी परवाह नहीं की। एक बार विनायक सेंट्रल लाइब्रेरी में पुस्तकें पढ़ रहे थे। गर्मी की दोपहरी थी। लू चल रही थी। विनायक ने कुर्ता उतारकर एक ओर रख दिया और अधनंगे ही कुर्सी पर बैठकर पढ़ने लगे। लाइब्रेरी क्लर्क को यह अच्छा नहीं लगा और वह बोला—“महाशय! सार्वजनिक स्थानों में कपड़े पहनने का एक ढंग होता है, शिष्टाचार समझने के लिए बुद्धि चाहिए।” विनोबा ने उत्तर दिया-“भगवान ने बुद्धि देने में मेरे मामले में काफी उदारता से काम लिया है। मेरे पास यह जानने के लिए काफी बुद्धि है कि मैं किस प्रकार कपड़े पहनूं?” मामला मुख्य लाइब्रेरियन तक जा पहुंचा, जो कि एक अंग्रेज था। विनायक को उसके कक्ष में पेश होने का आदेश मिला। विनायक ने कुर्ता अपने बाएं कंधे पर लटकाए हुए कक्ष में प्रवेश किया तथा लाइब्रेरियन के सामने जा खड़े हुए। लाइब्रेरियन ने तेज आवाज में पूछा-“क्या तुम जानते हो कि शिष्टाचार क्या होता है?” “जानता हूं।” विनायक का उत्तर था। “क्या मैं जान सकता हूं शिष्टाचार में क्या-क्या होता है?” विनायक ने जवाब दिया – “शिष्टाचार का पहला नियम तो यह है कि,जब कोई आपसे बात रहा हो और वह आपके सामने खड़ा हो,तो उसे बैठने के लिए आमंत्रित किया जाता है।” जवाब सुनकर लाइब्रेरियन झेंप गया।स्वयं को सम्भालते हुए बोला – “क्षमा कीजिए,कृपया बैठिए।” उनके बैठने के बाद लाइब्रेरियन ने बेढंगे तौर पर कुर्ता कंधे पर लटकाकर अधनंगे होने का कारण पूछा।विनायक ने कहा – “महोदय!शिष्टाचार के ढंग हर देश में वहाँ की स्थिति के अनुसार अलग अलग होते हैं।हमारा देश आपके इंग्लैंड की तरह ठंडा नहीं है, जहां बारह महीने सूट पहन कर रहना पड़ता है। यह देश गर्म है।यहाँ काम कपड़े पहनना सुविधाजनक व स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है।” विनायक का जवाब सुनकर लाइब्रेरियन संतुष्ट हो गया।

विनायक आध्यात्मिक तथा मानसिक स्तर पर प्रयोग करते थे

एक बार विनायक एक ताला खरीदने एक दुकान में गए। वहां उन्होंने एक ताला चुना और मूल्य पूछा। दुकानदार ने ताला का वास्तविक मूल्य से ज़्यादा क़ीमत बताया । विनायक ने दुकानदार द्वारा बताया गया रक़म दे दिया, साथ ही यह भी बता दिया कि ताला इतने मूल्य का नहीं है। इसके बाद वह रोज उस दुकान के सामने से गुजरते। दुकान की ओर देखे बिना अपने मस्तिष्क से वह यह संदेश प्रसारित करते कि तुमने ताले का अनुचित मूल्य लिया है। एक दिन वह हुआ जिसकी विनायक को अपेक्षा थी। दुकानदार ने आवाज देकर उसे बुलाया और कुछ पैसे देते हुए बोला- “उस दिन गलती से मैंने ताले का मूल्य ज्यादा ले लिया था। यह लो पैसे जो ज्यादा ले लिए थे मैंने।” विनायक ने स्वयं को साबित कर दिखाया कि मानसिक शक्ति का प्रयोग करके दूसरों से उनकी गलतियों को सुधारा जा सकता है।

गांधी जी ने विनायक से बनाया आचार्य

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह के अवसर पर मोहनदास कर्मचंद गांधी आए थे। उन्होंने राजकुमारों की एक सभा को भी सम्बोधित किया था। सारे राजकुमार अपने आभूषण व हीरे-जवाहरात धारण करके आए थे। गांधीजी ने कहा—“यदि आप लोग इन गहने-जेवरों को उतारकर एक ओर नहीं रखेंगे, तो हमारे देश के लिए स्वतंत्रता प्राप्त करना असंभव होगा।” गांधीजी ने एक और अवसर पर कहा कि निर्भयता ही अहिंसा की ताकत है। मानसिक उत्पीड़न शारीरिक आघात से अधिक दुखदायी होता है।उस समय विनायक बनारस में ही प्रवास कर रहे थे। गांधी जी के इन बातों ने उन्हें बहुत प्रभावित किया।विनायक ने गांधी जी को पत्र लिखकर उनके द्वारा कही गई कुछ बातों का स्पष्टीकरण माँगा। गांधी जी ने उत्तर भेज दिया।विनायक ने और जानकारी प्राप्त करने के लिए और पत्र लिखे,तो गांधी जी ने एक नोट लिखकर भेजा -“अगर भली प्रकार सब जानने की इच्छा है,तो साबरमती आश्रम में मेरे पास आकर रहो।”साथ में एक पुस्तिका भी थी,जिसमें आश्रम के नियम व उद्देश्य लिखे थे।परिचय में लिखा था -‘आश्रम का उद्देश्य आश्रमवासियों को ऐसी समाजसेवा व देश सेवा के लिए प्रेरित करना है,जो आगे चलकर समस्त मानव जाति के लिए हितकारी हो।’

आश्रम के नियम कड़े थे। उनका पालन आवश्यक बताया गया था।प्रत्येक आश्रमवासी को ग्यारह नैतिक मूल्यों के पालन का संकल्प धारण करना था।यह मूल्य थे –सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, सादा भोजन, स्वेच्छा से निर्धनता का वरण कर साधारण जीवन अपनाना,शारीरिक श्रम,चोरी से परहेज़,केवल स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग,आत्मनिर्भरता,अस्पृश्यता का विरोध और सहनशीलता ।

विनायक को यह सब पढ़कर अचम्भा हुआ।यह कैसा राजनीतिज्ञ है,जो नैतिक मूल्यों के सहारे देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्त करने का संघर्ष छेड़े हुए है।विनायक की अंतरात्मा ने आवाज़ दी -“यही वह व्यक्ति है,जो तुझे उस मार्ग पर ले जाएगा,जो ईश्वर की ओर जाता है,जिसकी खोज में तुमने अपने घर का परित्याग किया है।” अब साबरमती आश्रम ही उनकी मंज़िल थी।वह सीधे साबरमती आश्रम जा पहुँचे। आश्रम पहुँच कर अपने व्यवहार और कर्तव्यनिष्ठा से उन्होंने गांधी जी दिल जीत लिया।धीरे धीरे विनायक से विनोबा हो गए और गांधी जी के सबसे प्रिय बन गए।

जीवन व शिक्षा दो अभिन्न जोड़ी हैं

जनवरी, 1923 में विनोबा ने ‘महाराष्ट्र धर्म’ नाम से एक मासिक पत्रिका छापनी शुरू की। इसमें उनके विचार, लेख व धर्म के विभिन्न ग्रंथों के विभिन्न पत्रों पर व्याख्याएं छपती थीं। इसमें अस्पृश्यता निवारण व हरिजन सेवा की आवश्यकताओं के बारे में भी सामग्री होती थी। पत्रिका गांधीजी द्वारा आश्रमों के लिए प्रतिपादित 11 नैतिक नियमों के महत्त्वों को भी गहराई से समझाने का प्रयत्न करती थी। विनोबा की लेखनी शिक्षा के बारे में भी जागरूक थी। उन्हें पता था कि शिक्षा का भारत जैसे पिछड़े देश के लिए क्या महत्त्व है। उनका कहना था कि जीवन व शिक्षा दो अभिन्न जोड़ी हैं। मनुष्य आयु पर्यन्त शिक्षार्थी रहता है। विनोबा उस समय की शिक्षा प्रणाली से असंतुष्ट थे । वह चाहते थे कि शिक्षक अपने चरित्र में राष्ट्रीय गुणों व आदर्शों के अनुरूप मूल्य आत्मसात करें। गीता विनोबा भावे का सर्वाधिक प्रिय धार्मिक ग्रंथ था। गीता पर विनोबा ने लेख व पुस्तकें लिखीं तथा गीता पर व्याख्यान व प्रवचन तो अनगिनत दिए। जेल में भी वह कैदियों को गीता के उपदेशों का प्रवचन सुनाया करते थे।

अपने जीवनकाल में कभी कोई पुरस्कार नहीं लिया

उन्होंने अपने जीवन में जो असीमित समाज सेवाएं कीं, उनके बदले कभी कोई पुरस्कार, मैडल अथवा उपाधि स्वीकार नहीं की। भारत सरकार ने उन्हें देश का सर्वोच्च असैनिक विभूषण ‘भाररत्न’ मरणोपरांत देने की घोषणा की, परंतु विनोबा भावे के पवनार आश्रम ने यह पुरस्कार ठुकरा दिया, क्योंकि यह विनोबा के आदर्शों के अनुरूप नहीं होता। जिस व्यक्ति ने अपने जीवनकाल में कोई पुरस्कार स्वीकार न किया वह मरणोपरांत क्यों लेता? विनोबा ने एक बार अपने कार्यों के बारे कहा था—’मैं जो समाज सेवा रहा हूं, उसके लिए मेरी प्रशंसा मत करो और न मेरे गुण गाओ। मैं कोई दान-बलिदान नहीं कर रहा हूं। यह सब कार्य मैं अपने लाभ के लिए कर रहा हूं। मैंने ईश्वर की खोज में घर-परिवार का परित्याग कर दिया था। अब मैं जानता हूं कि गरीबों और दलितों की सेवा ही ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग है।

गीता में था अटूट विश्वास

विनोबा के दिल में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गीता में दिए उपदेश के प्रति अटूट श्रद्धा थी। विनोबा की गीता पर लिखी पुस्तकें विश्व-भर की अधिकतर भाषाओं में अनुवादित हो चुकी हैं। लाखों की संख्या में बिकी हैं और बिक रही हैं। गीता के संदर्भ में विनोबा द्वारा लिखी अथवा उन द्वारा दिए प्रवचनों के संकलन रूप में प्रकाशित पुस्तकें

  • गीताध्याय संगति : यह पुस्तक विनोबा ने गांधीजी के सुझाव पर लिखी थी। इसमें गीता के अध्यायों के परस्पर संबंधों पर प्रकाश डाला गया है।
  • गीताई : गीता का मराठी में अनुवाद। गीता के मूल रूप के अनुसार ही विनोबा ने उसे मराठी में उतारा है।
  • गीता चिंताणिका : गीताई लिखने के समय के अपने अनुभवों, उभरे भावों व विचारों का संकलन।
  • गीताई कोष : गीता में प्रयुक्त शब्दों के आध्यात्मिक अर्थों का शब्दकोष ।
  • साम्यसूत्र : मराठी गीताई की व्यवस्था। ।
  • गीता प्रवचन : यह उन सब प्रवचनों का संकलन है, जो विनोबा ने जल प्रवासों के दौरान कैदियों के समक्ष दिए थे। अंग्रेजी में यह ‘टॉक्स आन गीता’ नाम से उपलब्ध है।
  • स्थिति प्रशादर्शन : गीता के दूसरे अध्याय के अंतिम 18 श्लोकों पर दिए व्याख्यानों का संकलन। अंग्रेजी में यह ‘स्टैंड फॉस्ट विजज्म’ नाम से छपा है।

गांधी जी के आंदोलनों के प्रमुख स्तंभ थे आचार्य विनोबा भावे

सन 1939 में जब नाजी जर्मनी ने अपने पड़ोसी देशों पर आक्रमण विश्व युद्ध का आरम्भ किया, तब ब्रिटेन ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। भारत की अंग्रेज सरकार ने भी जर्मनी के विरुद्ध युद्ध घोषित किया तो भारतीय नेताओं ने इसका विरोध किया। उनका कहना था कि भारत को युद्ध में नहीं जाना चाहिए। कांग्रेस पार्टी की सहानुभूति ब्रिटेन तथा फ्रांस के साथ थी। कुछ शर्तों पर वह ब्रिटेन का साथ देने को तैयार थी। उसने अंग्रेज सरकार के साथ सौदेबाज़ी की कोशिश की। पेशकश यह थी, यदि ब्रिटिश सरकार युद्ध के बाद भारत को स्वशासन का अधिकार देने का वादा करती है, तो कांग्रेस उसका साथ देने को तैयार है। अंग्रेजों ने यह मांग ठुकरा दी। अब कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार का खुला विरोध करने का निर्णय किया। उसने यह दलील दी कि भारत को युद्ध में घसीटे जाने का कोई औचित्य नहीं है। भारतीयों को यह तय करने का भी हक नहीं है कि युद्ध में उनकी क्या भूमिका होगी, तो भारत यह युद्ध क्यों लड़े? अंग्रेज सरकार के विरुद्ध देशव्यापी ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ छेड़ने का निर्णय लिया गया। इसका नेतृत्व गांधीजी को सौंपा गया था। आंदोलन 17 अक्तूबर, 1940 को आरम्भ हुआ। गांधीजी ने विनोबा को । अपना पहला सत्याग्रही बनाने का निर्णय किया, क्योंकि वह अहिंसा के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध थे। पिछली बार जब गांधीजी ने अहिंसक असहयोग आंदोलन छेड़ा था, तो उसे बीच में ही छोड़ना पड़ा, क्योंकि आंदोलन अहिंसा से भटककर हिंसा व तोड़-फोड़ की ओर मुड़ गया था। गांधीजी नहीं चाहते थे कि यह आंदोलन भी उसी तरह भटक जाए। उनके लिए अहिंसा का सिद्धांत सर्वोपरि था। गांधीजी ने विनोबा को उनके पवनार आश्रम से अपने पास वर्धा बुला लिया और कहा -“विनोबा! आप जो कुछ कार्य कर रहे हैं, वह छोड़कर क्या ‘सविनय आंदोलन’ का प्रथम सत्याग्रही बनने के लिए स्वयं को उपलब्ध करा सकते हैं, विनोबा मुस्कुराकर बोले-“गांधीजी! आपका जब भी बुलावा आता है, तो मैं अपना सारा काम दूसरों को सौंपकर मुक्त होकर ही आता हूं।” जब गांधीजी ने अपने ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ के लिए विनोबा को अपना 6 प्रथम सत्याग्रही बनाने की घोषणा की, तो कुछ लोगों को अजीब लगा, क्योंकि विनोबा के बारे में लोग बहुत कम जानते थे। कुछ ने प्रश्न भी उठाया कि एक गुमनाम व्यक्ति को क्यों इतना बड़ा श्रेय दिया जा रहा है। आंदोलन में विनोबा को तीन बार गिरफ्तार कर जेल भेजा गया। पहली बार विनोबा को तीन महीने कैद की सजा हुई। उन्हें दिसम्बर में छोड़ा गया। हर अगली गिरफ्तारी में सजा की अवधि बढ़ती गई। उन्होंने अपने साथी कैदियों को जो प्रवचन सुनाए और धर्म व सामाजिक कर्तव्यों के बारे में बताया। उनके संकलन बाद में पुस्तक रूपों में प्रकाशित किए गए। गांधीजी विनोबा के बारे में सब जानते थे, इसलिए जब भी विनोबा जेल से छूटकर आते, गांधीजी पूछते-‘तो विनोबा! इस बार कौन-सा नया विचार पैदा करके जेल से ला रहे हो?’ साढ़े चार वर्ष बाद जलाई, 1945 को सारे नेता रिहा किए गए, जिनमें विनोबा भी थे। इस अवधि में विनोबा सारे देश में चर्चित हो चुके थे। सबको स्पष्ट आभास हो गया था कि आवश्यकता पड़ने पर गांधी जी के बाद देश का नैतिक व आध्यात्मिक मार्गदर्शन करेगा।

जेल से छूटने के बाद विनोबा ने एक सभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि- स्वराज्य का असली अर्थ सब द्वारा शासन है। यह केवल अहिंसा द्वारा संभव है। फासीवाद, नाजीवाद और साम्राज्यवाद में कोई अंतर नहीं है। यह अहिंसा से दूर हैं। यह बात सरकार के लिए कठिनाइयां पैदा करती है, जो पहले ही मुश्किल में है। गांधीजी ने इस व्यक्तिगत सत्याग्रह के लिए मुझे प्रेरित किया है। मैं लोगों से अपील करता हूं कि वे इस युद्ध में किसी भी रूप में योगदान न दें। यदि मुझे गिरफ्तार न किया गया, तो मैं सरकार को अहिंसा का चिंतन समझाऊंगा। युद्ध के भयानक नतीजों के बारे में बताऊंगा और यह तथ्य भी कि फासीवाद, नाजीवाद तथा साम्राज्यवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

दरगाह के भीतर ही पूजा-पाठ व आरती की थी

देश के विभाजन के कारण पाकिस्तान से लाखों शरणार्थी भागकर भारत में आए थे और पश्चिम में उन्हें दिल्ली व पंजाब के कैम्पों में रखा गया था। नेहरूजी ने विनोबा से विनती की कि वह कैम्पों का दौरा करें और पीड़ित शरणार्थियों को भावनात्मक सहानुभूति दें तथा उनके पुनर्वास के कार्य में सरकार मदद करें। विनोबा ने पहले ही अपने उद्देश्य को स्पष्ट किया-‘शरणार्थियों को गुजर-बसर के लिए पूरी सहायता मिलनी चाहिए, जो कि पाकिस्तान में अपना सर्वस्व खोकर आए हैं। मेरा उद्देश्य विभाजन के फलस्वरूप वातावरण में जो घृणा और कटुता फैली है, उसे मिटाकर शांति व भाईचारे की मिठास लानी है। केवल प्रेम द्वारा ही यह सम्भव है। यह काम सरकार नहीं कर सकती। कठिनाई के इस दौर में प्रशासन की सहायता के लिए लोगों और स्वयंसेवी संस्थाओं को आगे आना होगा। विनोबा ने दिल्ली और पंजाब के शरणार्थी कैम्पों का दौरा किया, जहां पाकिस्तान से आए लोगों के दिल घृणा व बदले की भावना से भरे थे। वे बदला लेने के लिए भारत को हिंदू राष्ट्र में बदलने की बातें कर रहे थे। विनोबा ने उनसे कहा-“भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का विचार छोड़ें। पाकिस्तान अपने देश में जो कुछ कर रहा है, उससे प्रभावित न हों। हम पहले मानव हैं, फिर हिंदू, मुस्लिम या सिख।” गुड़गाँव में उन्होंने मेवातियों से कहा-“भगवान ने मानव मस्तिष्क को दो विशेष गुण दिए हैं, वह हैं याद रखने की और भूलने की क्षमता। उन बातों को भूल जाइए जो आपमें कटुता पैदा करती हैं। हमें अच्छी बातें याद रखनी चाहिए और बुरी यादें भुला देनी चाहिए। इस देश की पुरानी परम्परा यही रही है कि इसने दूसरों के विचारों तथा धर्मों को सदा सम्मान दिया है। यही परम्परा हमें निभानी है।” वह अजमेर भी गए। वातावरण तनावपूर्ण था। ख्वाज़ा का उर्स पर्व आने वाला था। मुसलमान भयभीत थे कि उर्स के अवसर पर दंगे-फसाद भड़काए जाएंगे। उनका डर दूर करने के लिए विनोबा वहां एक सप्ताह ठहरे। वह प्रतिदिन ख्वाज़ा की दरगाह पर जाते थे। मुस्लिम जनता ने विनोबा का हार्दिक स्वागत किया। दरगाह के भीतर ही उन्होंने विनोबा को पूजा-पाठ व आरती की सुविधा दे दी। विनोबा ने उपस्थित लोगों से कहा-“भारत सभी धर्मों का देश है। हमारे सब के शरीर इस धरती से पैदा हुए हैं और इसी धरती में समा जाते हैं, चाहे किसी भी धर्म से शरीर संबंधित हो, इसलिए हमें साथ मिलकर प्रेम व भाईचारे की भावना से रहना चाहिए। हमारे दिलों में एक-दूसरे के लिए स्थान होना चाहिए।” विनोबा ने देखा कि उनकी सभाओं में महिलाएं नहीं होतीं, तो उन्होंने मुस्लिम समुदाय से कहा-“आप रूढ़िवाद त्याग दीजिए। इन सभाओं में और जीवन के दूसरे क्षेत्रों में महिलाओं का होना आवश्यक है।” – अक्तूबर के महीने में वह बीकानेर गए। वहां कुछ सवर्ण लोगों को मंदिर में पूजा करने से रोका गया था, क्योंकि उन्होंने एक हरिजन बस्ती में सफाई कार्यक्रम में भाग लिया था। विरोध में वही लोग मंदिर के बाहर भूख हड़ताल पर बैठे थे। विनोबा ने उनसे भूख हड़ताल छोड़ने की अपील की। उन्होंने कहा- “भूख हड़ताल करने की बजाय आप लोग संकल्प लें कि इस मंदिर में वे कदम नहीं रखेंगे, जब तक इसमें हरिजनों को प्रवेश की आज्ञा नहीं मिलती, जो मंदिर सबके लिए खुला न हो, वहां भगवान नहीं हो सकता। ऐसा मंदिर एक मकान-भर है, जिसमें पत्थर की मूर्ति रखी है।

विनोबा भावे ने स्वयं कई आंदोलन चलाए जिनमे प्रमुख थे :

कंचनमुक्ति आंदोलन:

कंचनमुक्ति का अर्थ है सोने से आजादी । वर्तमान सारी अर्थव्यवस्थाएं सोने पर आधारित हैं । देश के स्वर्ण भंडार को आधार मानकर उसके बदले नोट व सिक्के जारी किए जाते हैं। विनोबा को यह व्यवस्था खलती थी। वह इसे शोषण और भ्रष्टाचार की मुद्रा मानते थे। प्रयत्न यह किया गया कि आवश्यकता की सारी चीजें आश्रम में ही पैदा हों या बनाई जाएं, न बाजार से कुछ खरीदने की दरकार होगी न पैसों की आवश्यकता, फिर भी कुछ आवश्यकता पड़े तो ‘माल के बदले माल’ का फार्मूला अपनाया जा सकता था। विनोबा तो बैंकिंग प्रणाली के भी आलोचक थे। वह कहते थे कि संस्थाओं व कम्पनियों द्वारा अपने बैंक खातों में बड़ी रकमें जमा क्यों रखते हैं? यह पैसा उपयोग में क्यों नहीं है? क्यों यह पैसा रचनात्मक कार्यों के लिए ऋण के रूप में नहीं दिया जाता? या खुद संस्थाएं योजनाएं बनाकर जमा रकम को खर्च नहीं कर रहीं? पैसों का प्रयोग करने में खातेदार असफल क्यों हैं? विनोबा का कंचनमुक्ति आंदोलन चलता रहा।

भू-दान आंदोलन:

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद विनोबा भावे के द्वारा संचालित सर्वाधिक चर्चित आंदोलन रहा और देश-विदेश तक इसकी गूंज पहुंची।

कछ लोगों का विचार था कि भू-दान भूमि को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटकर उपज घटा रहा है। विनोबा ने कहा- “मेरा भू-दान दिलों को जोड़ रहा है और प्यार की उपज बढ़ा रहा है।” कुछ ने यह प्रश्न भी किया—”तो क्या आप यह समझते हैं कि भू-दान द्वारा आप भूमि की सारी समस्याएं हल कर लेंगे?” विनोबा ने उत्तर दिया- “सुनिए महोदय! भगवान राम, कृष्ण, बुद्ध, पैगम्बर मोहम्मद व ईसामसीह भी विश्व की सारी समस्याएं हल नहीं कर सके, तो मैं क्या चीज है। विश्व की समस्याएं तो विश्व ही हल कर सकता है। मैं तो मात्र भूमिहीन किसानों की समस्या अपनी सोच में आए एक उपाय से हल करने का प्रयास कर रहा हूं।” भूदान के लिए अपने सम्पूर्ण पदयात्रा के पश्चात पूरे देश से उन्हें भू-दान में 12,000 एकड़ से भी अधिक भूमि मिल चुकी थी। देशवासियों से सन् 1857 स्वतंत्रता संग्राम के शतकीय वर्ष सन् 1957 तक भू-दान में 50 लाख एकड़ भूमि-दान की मांग की।

उन्होंने एक पांच सूत्री कार्यक्रम सुझाया। यह पांच सूत्र थे—आंतरिक शुद्धि, ग्रामों की सफाई, शारीरिक श्रम के प्रति आदर, शांतिसेना तथा सूतांजलि । सूतांजलि कार्यक्रम में रचनात्मक कार्यों में सक्रिय कार्यकर्ताओं को प्रमाणस्वरूप प्रतिदिन अपने हाथ से कते सूत की हर निश्चित मात्रा विनोबा को अर्पित करनी थी।

जिसने देश को अपना जीवन दे दिया, उसपर भी आरोप लगे

भू-दान आंदोलन के बारे में देश में कुछ विरोधी स्वर भी थे। विनोबा के आलोचक भी थे। हिंदुस्तानी झगड़ालू व ईर्ष्यालु स्वभाव कभी छुट्टी पर नहीं जाता। कुछ लोग बोले-“विनोबा बड़े भू-पतियों का दलाल है।”सच्चाई यह है कि मैं निर्धनों और भूमिहीनों का दलाल हूं। मैं उन्हीं के बीच रहता हूं, उन जैसा ही जीवन व्यतीत करता हूं। मैं बड़े भू-पतियों का दलाल भी बनूंगा, यदि वे मुझे अपनी भूमि दान में दे दें।” विनोबा का उत्तर था। कुछ लोगों ने कहा- “विनोबा भू-दान द्वारा देश में गरीबी बांट रहा है। विनोबा ने मुंहतोड़ उत्तर दिया—“यदि देश में गरीबी है, तो लोगों को अपना हिस्से की गरीबी मिलनी चाहिए । दुख की बात तो यह है कि एक बड़ी जनसंख्या गरीबी की रेखा से बहुत नीचे है और उन्हें अपने हिस्से की गरीबी तक नसीब नहीं हो रही है।”

उत्तर प्रदेश का मंगरोठ पहला ग्राम था, जो विनोबा को ग्रामदान में मिला

गांव की जमीन लेने के बाद उसे दोबारा सभी दानियों में बराबर बांटा गया था। यह सझाव वास्तव में उसी गांव के बड़े भू-पति शत्रुघ्न सिंह ने दिया था। वह एक जाने-माने स्वतंत्रता सेनानी भी थे। इस गांव में केवल दो परिवार ग्रामदान से बाहर रहे। सर्वोदय कार्यकर्ता उसी गांव को ग्रामदान में स्वीकार करते थे, जहां कम-से-कम 80% परिवार योजना का भाग बनने को राजी होते या गांव की कुल भूमि का ग्रामदान में कम-से-कम 50% भाग का योगदान होता। ग्रामदान आंदोलन उड़ीसा में तेजी पर आया। उन्हें दूसरे ग्रामदान के रूप में वहां ग्रामपुर गांव मिला। फिर तीसरा गांव भी मिला। लोगों में ग्रामदान के प्रति बहुत रुचि जागी और आंदोलन सफल रहा। जब सन् 1955 के गणतंत्र दिवस पर विनोबा ने उड़ीसा में प्रवेश किया, तब तक उनके कार्यकर्ताओं को 93 गांव ग्रामदान में मिल चुके थे। विनोबा 8 महीने उड़ीसा में रहे और इस अवधि में उन्होंने 719 गांव और ग्रामदान में प्राप्त किए। तमिलनाडु में ग्रामदान गांवों की संख्या 40 से बढ़कर 175 हो गई।

केरल में प्रसिद्ध गुरुवायूर मंदिर है। इसमें हरिजनों को प्रवेश दिलाने के लिए गांधीजी को भूख हड़ताल करनी पड़ी थी। विनोबा वहां अपने कुछ फ्रांसीसी मित्रों के साथ पहुँचे । विनोबा ने पुजारियों से पूछा-“यह मेरे फ्रांसीसी मित्र हैं। ईसाई है। क्या ये भी मेरे साथ मंदिर में प्रवेश कर सकते हैं?” पुजारियों ने विनम्रता से असमर्थता प्रकट की और विनोबा से अकेले जाने का निवेदन किया। विनोबा बोले-“खेद है, फिर मैं भीतर नहीं जाऊंगा, क्योंकि यदि ईसाई मित्रों को बाहर छोड़कर भीतर गया, तो मुझे वहां भगवान नहीं मिलेंगे।”

जब विनोबा कठुआ में थे, तो चीन द्वारा तिब्बत हड़प लिए जाने के कारण दलाईलामा भागकर भारत आए थे और उन्होंने यहां आकर शरण ली थी। इससे चीन रुष्ट हो गया था। विनोबा बोले- “हमारा दस हजार वर्षों का इतिहास ही यह है कि यहां अनगिनत लोग, जातियां, नस्लें, धर्म व विचार आए और सबने यहां शरण पाई। वैसे ही दलाईलामा आए और भारत ने उन्हें शरण दी। हमारे चीनी दोस्तों को यह अच्छा नहीं लगा। मैं उन्हें बताना चाहता हूं कि इसमें हमारे देश की प्रतिष्ठा व परम्परा का प्रश्न है। यहीं बुद्ध का जन्म हुआ था।

आचार्य विनोबा भावे ने पाकिस्तान जाकर भी 15 एकड़ भूमि भू-दान रूप में इकट्ठी की

5 सितम्बर, 1962 को विनोबा ने पूर्वी पाकिस्तान की धरती पर कदम रखा। वह 16 दिन पाकिस्तान में ही रहे। विशाल भीड़ ने उनका स्वागत किया। पाकिस्तान में भी उन्होंने भू-दान आंदोलन जारी रखा। उनका कहना था कि उन्हें लग ही नहीं रहा है कि वह किसी और देश में हैं। यहां विनोबा को 15 एकड़ भूमि भू-दान में मिली। हर जगह उनसे भारत व पाकिस्तान को लेकर तरह-तरह के प्रश्न लोगों तथा पत्रिकाओं द्वारा पूछे जाते रहे। उनका जवाब भी वह अपने सूफी अंदाज में ही देते। _एक ने उनसे पूछा- “आप प्रेम की बातें करते हैं, तो आप कश्मीर मामले को हल करने की कोशिश क्यों नहीं करते?” विनोबा ने उत्तर दिया-“यह एक राजनीतिक मामला है। मैं यहां राजनीति पर बहस करने नहीं आया हूं। अगर मेरा उद्देश्य राजनीति होता, तो मैं आप जैसे दोस्तों के पास आने की बजाय पश्चिमी पाकिस्तान में प्रेसीडेंट अयूब खान के पास गया होता।” पाकिस्तान यात्रा के अंतिम दिन उन्होंने लोगों से कहा- “ऊपर वाले ने बहुत-सी नस्लें, बहुत रंग के लोग, बहुत-सी जुबाने और बहुत-से धर्म बनाए है, ताकि दुनिया में विविधता की बहार हो। एक चीज हम सबको सदा याद रखना चाहिए कि मूल रूप से हम केवल इंसान हैं।”

सन् 1982 के दक्षिणार्द्ध में विनोबा का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ा। शरीर अंतिम चरण में पहुंच गया था। 5 नवंबर को उन्हें दिल का दौरा पड़ा। उनकी हालत काफी कुछ सुधरी, परंतु 8 नवंबर के बाद विनोबा ने दवा, भोजन या पानी कुछ भी लेने से इंकार कर दिया। इंदिरा गांधी भी उन्हें राजी न कर सकीं। डॉक्टरों को विनोबा के शरीर को शांत व स्थिर देखकर अचम्भा हुआ। कोई अकड़न या मरोड़ नहीं आए। 15 नवंबर, 1982 को सुबह के नौ बजे विनोबा की सांस धीमी होने लगी और साढ़े नौ बजे पूर्ण विराम लग गया। । इस प्रकार विनोबा भावे के शरीर ने आत्मा को मुक्त कर दिया। ऊपर स्वर्ग की ओर एक और यात्रा के लिए।