श्रद्धांजलि : रोज केरकेट्टा आदिवासी चेतना की एक सशक्त आवाज़ थीं 

रोज केरकेट्टा ने कई परेशानियों को झेलते हुए जो उच्चतर शिक्षा हासिल की, यह अपने आप में एक बड़ी बात है। वह छात्र जीवन से ही आदिवासी महिलाओं की दुर्दशा को देखकर उनके अधिकारों लिए लगातार संघर्ष करती रही थीं। वह सीधे तौर पर राजनीति से जुड़ी नहीं थीं, लेकिन झारखंड एक अलग प्रांत बने, इस निमित्त उन्होंने झारखंड आंदोलन से जुड़कर आदिवासी महिलाओं सहित अन्य महिलाओं में जो जागृति लाने का काम किया था, बेमिसाल रहा था।

श्रद्धांजलि : रोज केरकेट्टा आदिवासी चेतना की एक सशक्त आवाज़ थीं 

झारखंड की प्रसिद्ध आदिवासी लेखिका, कवयित्री,साहित्यकार डॉ रोज केरकेट्टा का जाना संपूर्ण साहित्य जगत के लिए एक अपूर्णीय क्षति है। उनका संपूर्ण जीवन भाषा साहित्य और महिलाओं के विकास को समर्पित रहा था। वह न सिर्फ आदिवासी लेखिका थीं बल्कि हिंदी साहित्य पर भी लगातार काम करती रही थी । उनका जन्म जिस कालखंड में हुआ था, देश गुलाम था।  देश में स्त्री - पुरुष दोनों का शिक्षा निम्न स्तर पर था। महिलाओं की स्थिति बहुत ही दयनीय थी । ऐसे में रोज केरकेट्टा ने कई परेशानियों को झेलते हुए जो उच्चतर शिक्षा हासिल की, यह अपने आप में एक बड़ी बात है। वह छात्र जीवन से ही आदिवासी महिलाओं की दुर्दशा को देखकर उनके अधिकारों लिए लगातार संघर्ष करती रही थीं। वह सीधे तौर पर राजनीति से जुड़ी नहीं थीं, लेकिन झारखंड एक अलग प्रांत बने, इस निमित्त उन्होंने झारखंड आंदोलन से जुड़कर आदिवासी महिलाओं सहित अन्य महिलाओं में जो जागृति लाने का काम किया था, बेमिसाल रहा था।
  रोज केरकेट्टा समस्त आदिवासी भाषा, खड़िया और हिन्दी की एक प्रमुख लेखिका, शिक्षाविद्, आंदोलनकारी और मानवाधिकार कर्मी के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल रही थी। उनका जन्म झारखंड प्रांत के सिमडेगा जिले के कइसरा सुंदरा टोली गांव में एक खड़िया आदिवासी समुदाय में हुआ।  यह मेरा सौभाग्य है कि उनसे दो बार मिलने का अवसर भी प्राप्त हुआ था। चूंकि मेरी दोनों बेटियों की शादी सिमडेगा में ही हुआ । इस कारण उनसे मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। रोज दीदी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जितनी लोकप्रिय रहीं,वह उतनी ही सहज और सरल थीं। उनका बात करने का अंदाज सबसे निराला था । दूसरे की बातों को बहुत ही उत्साह के साथ सुनती थीं । वह  जवाब बहुत ही संतुलित और सारगर्भित देती थीं । उनकी बातों में एक दर्शन और संदेश भी छुपा रहता था।
 रोज केरकेट्टा झारखंड की आदि जिजीविषा और समाज के महत्वपूर्ण सवालों को सृजनशील अभिव्यक्ति देने के साथ ही जनांदोलनों को बौद्धिक नेतृत्व प्रदान करने तथा संघर्ष की हर राह में आप अग्रिम पंक्ति में रही थीं। उनके  ये  सारे कार्य राजनीति को प्रभावित करते थे, लेकिन उन्होंने कभी भी सीधे तौर पर राजनीति का दामन नहीं थाम था।  और न ही उनकी  कोई राजनीतिक लालसा थी।  उनके समग्र आंदोलन पर गंभीरता पूर्वक  विचार किया जाए तो सच्चे अर्थों में रोज केरकेट्टा एक समाजिक योद्धा थीं। वह जीवन पर्यन्त समाज के उत्थान, आदिवासियों के उत्थान, आदि भाषा के उत्थान और हिंदी भाषा के उत्थान के लिए संघर्ष करते रही थीं। इसके साथ ही वह झारखंड में प्रचलित डायन प्रथा के उन्मूलन के लिए लगातार संघर्ष करती रही थी । उनका मानना था कि डायन प्रथा  के कारण महिलाओं को बहुत ही ओछी  नजरों से देखा जाता है ।‌ इसलिए डायन प्रथा जैसे  अंध विश्वास का अंत होना ही चाहिए । बीते कुछ वर्षों से उनका स्वास्थ्य अनुकूल नहीं रहने के बावजूद वह डायन प्रथा उन्मूलन के बैठकों में लगातार जाती रही थीं।  आदिवासी भाषा-साहित्य, संस्कृति और स्त्री सवालों पर डा. रोज केरकेट्टा ने कई देशों की यात्राएं की थीं।
 उन्होंने अपने जीवन काल में जो कुछ भी रचा सामाजिक जागरण की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । उनकी रचनाएं आदिवासी महिलाओं सहित देश की उन सभी महिलाओं को समर्पित है, जो वर्षों से शोषित हैं । उन्होंने  शोषित महिलाओं को एक नई राह दिखाने का काम भी किया। उनकी कृतियों की एक लंबी फेहरिस्त हैं। उनकी कृतियों में हो खड़िया लोक कथाओं का साहित्यिक और सांस्कृतिक अध्ययन,(शोध ग्रंथ) प्रेमचंदाअ लुङकोय (प्रेमचंद की कहानियों का खड़िया अनुवाद), सिंकोय सुलोओ (खड़िया कहानी संग्रह), हेपड़ अवकडिञ बेर (खड़िया कविता एवं लोक कथा संग्रह), पगहा जोरी-जोरी रे घाटो (हिंदी कहानी संग्रह), सेंभो रो डकई (खड़िया लोकगाथा) खड़िया विश्वास के मंत्र (संपादित), अबसिब मुरडअ (खड़िया कविता संग्रह) और स्त्री महागाथा की महज एक पंक्ति (वैचारिक निबंधों का संग्रह) आदि हैं।
   रोज केरकेट्टा के  पिता का नाम एतो खड़िया उर्फ प्यारा केरकेट्टा, जो एक लोकप्रिय शिक्षक, समाज सुधारक, राजनीतिज्ञ और सांस्कृतिक अगुआ थे।  रोज केरकेट्टा का विवाह सुरेशचंद्र टेटे से हुआ था। जिनसे उनके वंदना टेटे और सोनल प्रभंजन टेटे दो संतान हैं। वंदना टेटे अपने नाना प्यारा केरकेट्टा और मां की तरह झारखंड आंदोलन से जुड़ी रही । वंदना  टेटे तीस वर्षों से सामाजिक-सांस्कृतिक व साहित्यिक क्षेत्र में सक्रिय हैं। रोज केरकेट्टा की प्रारंभिक शिक्षा कोंडरा (जिला गुमला), खुँटी टोली एवं सिमडेगा (जिला सिमडेगा) में हुई थी। उन्होंने बी. ए. सिमडेगा कॉलेज और एम. ए. रांची विश्वविद्यालय, रांची  से किया । उन्होंने एक शिक्षक के रूप में अपने करियर की शुरुआत की थी।  प्रारंभिक दिनों में एक स्कूल के शिक्षक के रूप में अपनी पहचान बनाने में बहुत सफल रही थी । बाद के कालखंड में यूनिवर्सिटी के  प्राध्यापक के रूप में अपनी सेवा दी थी।
 डॉ रोज केरकेट्टा विगत पच्चास वर्षों से भी अधिक समय से शिक्षा, सामाजिक विकास, मानवाधिकार और आदिवासी महिलाओं के समग्र उत्थान के लिए व्यक्तिगत, सामूहिक एवं संस्थागत स्तर पर सतत सक्रिय रहीं थीं । उनका  अपने राज्य स्तरीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के साथ जुड़ाव रहा था। आदिवासी, महिला, शिक्षा और साहित्यिक विषयों पर आयोजित सम्मेलनों, आयोजनों, कार्यशालाओं एवं कार्यक्रमों में व्याख्यान व मुख्य अतिथि  के रूप में आमंत्रित होती रहती थी। इसके अलावा वह झारखंड नेशनल एलायंस ऑफ वीमेन, जुड़ाव, मधुपुर, संताल परगना,बिरसा, चाईबासा,आदिम जाति सेवा मंडल, रांची, झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा,प्यारा केरकेट्टा फाउण्डेशन, रांची आदि  संस्थाओं से जुड़ी हुई थीं।
   वह ग्रामीण, पिछड़ी, दलित, आदिवासी, बिरहोर एवं शबर आदिम जनजाति महिलाओं के बीच शिक्षा एवं जागरूकता के लिए विशेष प्रयास करतीं  रही थी।  उन्होंने झारखंड आदिवासी महिला सम्मेलन की संस्थापक और 1986 से 1989 तक अन्य संस्थाओं एवं संगठनों के सहयोग से उसका संयोजन और संचालन भी किया था।  झारखंड गैर-सरकारी महिला आयोग की अध्यक्ष  2000 से 2006 तक  रही थीं।
वह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर  के कई बड़े सेमिनारों में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करती रही थीं ,जिनमें राष्ट्रीय नारी मुक्ति संघर्ष सम्मेलन, पटना, रांची और कोलकाता,रांची सम्मेलन का संयोजन,  मानवाधिकार पर मुम्बई, बंगलोर, दिल्ली, कोलकाता और छत्तीसगढ़,  एशिया पैसिफिक वीमेन लॉ एंड डेवलेपमेंट कार्यशाला, चेन्नई 1993, बर्लिन में आयोजित आदिवासी दशक वर्ष के उद्घाटन समारोह 1994 में।
 वह विगत कई वर्षों से झारखंडी महिलाओं की त्रैमासिक पत्रिका ‘आधी दुनिया’ का संपादन कार्य से जुड़ी थीं। स्वास्थ्य खराब रहने के बावजूद यह पत्रिका हर तीन महीने पर पाठकों तक पहुंच जाया करती थी।  इस पत्रिका ने महिलाओं में एक नई जागृति भरने का काम किया है । रोज के हर अंक के संपादकीय में एक नई कहानी होती थी । अब रोज इस दुनिया में नहीं रहीं । उनकी कमी हमेशा इस पत्रिका के  पाठकों को खलती रहेगी। इसके अतिरिक्त उनकी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, समाचार पत्रों, दूरदर्शन तथा आकाशवाणी से सभी सृजनात्मक विधाओं में हिन्दी एवं खड़िया भाषाओं में सैंकड़ों रचनाएं प्रकाशित एवं प्रसारित हैं। उनकी कई  रचनाएं  अन्य भारतीय भाषाओं में भी अनुवाद हो चुकी हैं। उनके चले  जाने से यह क्रम रूक गया।  उनके निधन से देश ने एक आदिवासी चेतना की सशक्त आवाज को हमेशा हमेशा के लिए खो दिया है ।‌उनका यह जुझारूपन सदैव देश की आधी आबादी महिलाओं को संघर्ष के लिए प्रेरित करती रहेगी।