राज्य की 83 फ़ीसदी आबादी को प्रभावित करनेवाली शिक्षा व्यवस्था की कहीं चर्चा नहीं । कैसे होगा विकास ? कैसे रुकेगा पलायन?
बिहार में विधानसभा चुनाव चल रहा है । सभी राजनीतिक दल बिहार को आसमान पर बिठाए बैठे हैं । सब एक से बढ़कर एक वादे कर रहे हैं । लेकिन समाज के विकास में सबसे अहम भूमिका निभाने वाली शिक्षा व्यवस्था को लेकर किसी ने अब तक कुछ भी नही कहा है । जबकि बग़ैर अच्छी शिक्षा व्यवस्था के किसी भी तरह से सामाजिक विकास की कल्पना भी नही की जा सकती है ।
सरकार ने साइकिल, पोशाक ,मध्यान भोजन ,छात्रवृति जैसी तमाम योजनाओं के माध्यम से छात्रों को विद्यालय की ओर खींचने की कोशिश तो की है , लेकिन शिक्षा के असल उद्देश्य यानी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के मामले में पूरी तरह फ़ेल रही है । इसका सबसे बड़ा कारण इस व्यवस्था की रीढ़ – शिक्षकों की अनदेखी करना है। एक जमाने में नालंदा के विक्रमशिला जैसे विख्यात शिक्षण केंद्र जो भारतवर्ष का गौरव हुआ करता था । पूरे विश्व से छात्र यहां ज्ञान की प्राप्ति के लिए आते थे । बीच के वर्षों में इस केंद्र ने अपनी प्राचीन परंपरा को स्थापित किए रखा। लेकिन आजादी के बाद से बिहार में शिक्षा के गिरते स्तर ने धीरे धीरे इस महान एवं गौरवशाली परंपरा को सियासत की भेंट चढ़ा दी । बिहार में चाहे स्कूली शिक्षा हो या उच्च शिक्षा सब की दशा एक ही है ।
आपको बता दें कि वर्ष 2009 में बिहार में सरकारी विद्यालयों में करीब 27 लाख बच्चों का नामांकन पहली कक्षा में हुआ था । वर्ष 2018 आते आते 17.8 लाख विद्यार्थियों ने बिहार बोर्ड के मैट्रिक परीक्षा में भाग लिया। यानी सीधे-सीधे मतलब निकलता है कि पहली कक्षा से दसवीं तक आते-आते 9 लाख बच्चे सरकारी स्कूल से गायब हो गए। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि राज्य की वर्तमान शिक्षा व्यवस्था कैसी है ?2017 -18 के आंकड़े के अनुसार विद्यालयों में नामांकन का स्तर काफ़ी चिंताजनक है ।
नामांकित छात्रों की संख्या विद्यालयों की संख्या
0 13
>20 171
20-30 336
30-40 620
बिहार सरकार ने 2019 में वैसे सभी स्कूलों को बंद करने का निर्देश जारी किया जहां नामांकन या तो शुन्य था या 20 से कम पहुंच गया था । ऐसे में हर साल विद्यालयों में नामांकन तो कम हो ही रही है साथ ही बीच में स्कूल छोड़ देने का दर भी बढ़ती जा रही है । एक बात और गौर करने लायक है कि सरकारी लाभ लेने के लिए बच्चे दाखिला तो ले लेते हैं परंतु गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई बिहार- पब्लिक स्कूलों और प्राइवेट ट्यूशन के द्वारा ही करते हैं ।
इसके कई मुख्य कारण हैं :-
(1) राज्य के लगभग 96.4 % विद्यालयों में शिक्षक छात्र का अनुपात ठीक नहीं है ।
(2) 52.3 %विद्यालयों में शिक्षक कक्षा का अनुपात बेमेल है ।
(3) 40% विद्यालयों में शौचालय की सुविधा नहीं है यदि है जी तो बच्चों के द्वारा उपयोग में नहीं लाए जाते हैं या फिर उन्हें उपयोग नहीं करने दिया जाता है।
(4) 35 से 40% विद्यालय में पुस्तकालय ही नहीं है जो कि विद्यार्थियों के आकर्षण का केंद्र रहता है ।
हालांकि मिड-डे मील के द्वारा सरकार ने बच्चों को स्कूल में रोके रखने में कुछ हद तक सफलता पाई है , परंतु इसमें आए दिन घोटाले होते रहने के कारण अधिकांश विद्यालयों में न तो सही ढंग से रसोई की व्यवस्था है न ही बच्चों को बैठाकर खिलाने की व्यवस्था । ज्यादातर विद्यालयों में या तो बच्चों को खुले स्थानों में खिलाया जाता है या बरामदे में ही बैठा कर भोजन कराने की व्यवस्था है । भोजन बनाने की प्रक्रिया और खिलाने की प्रक्रिया में स्वच्छता का अभाव भी एक बड़ा कारण है ।
गौरतलब है कि बिहार में शिक्षा का अधिनियम लागू हुए करीब 15 वर्ष हो चुके हैं । पर ज्यादातर मामलों में यह कानून फाइलों में ही बंद नजर आता है । केंद्र सरकार की सर्व शिक्षा अभियान और राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के तहत राज्य सरकार को हजारों करोड़ रुपए मिलते हैं । इस अभियान के तहत हर 5 किलोमीटर की परिधि में कम से कम 1 माध्यमिक स्कूल खोलने का लक्ष्य रखा गया है । यदि वास्तव में इस अभियान को धरातल पर उतारा जाए तो राज्य में 949 मध्य विद्यालयों को उन्नत किया जाना है ।पर हकीकत किसी से छुपा नहीं है । बिहार इन तमाम लक्ष्यों से काफी दूर है ।
राज्य की करीब 65% पंचायतों में माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक विद्यालय नहीं है । राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के तहत यह निश्चित किया गया है कि प्रत्येक ग्राम पंचायत में कम से कम एक माध्यमिक स्कूल होना चाहिए । विद्यालयों में शिक्षक , शैक्षणिक संसाधन सहित तमाम आवश्यक चीजों की कमी है । बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए गैर शैक्षणिक गतिविधियों का आयोजन बस फाइलों में ही होता है ।
बिहार में सबसे पहले 2008-09 में नियमित रूप से इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए उच्च विद्यालयों को उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के रूप में प्रोन्नत करने की प्रक्रिया शुरू की गई थी । लेकिन बिना किसी नियोजित तैयारी के लायी गई इस योजना के कारण उच्च विद्यालय से मैट्रिक करने वाले छात्रों को फिर से वहीं से 11वीं और 12वीं करने के लिए विवश होना पड़ा । उन सभी विद्यालयों में शिक्षक सहित तमाम शैक्षणिक संसाधनों की कमी अभी तक बरकरार है । इंटरमीडिएट की पढ़ाई के नाम पर केवल फाइलें सजी हुई है । राज्य सरकार को विद्यालयों में 11वीं और 12वीं की पढ़ाई शुरू करने से पहले मुकम्मल तैयारी करनी चाहिए थी । प्रत्येक विषय के लिए योग्य शिक्षकों की बहाली , विद्यालय का संसाधन युक्त भवन , पुस्तकालय, विज्ञान के लिए प्रयोगशाला सहित तमाम संसाधनों की व्यवस्था करनी चाहिए थी । लेकिन कई सत्र बीत जाने के बावजूद आज भी सभी विभागों – विज्ञान , कला और वाणिज्य आदि में छात्रों का नामांकन तो हो रहा है लेकिन पढ़ाई से संबंधित सुविधाएं और संसाधन बिल्कुल ही शून्य हैं । ऐसे हाल में छात्रों की उपस्थिति और पढ़ाई की बात सोचना सरकार के लिए मूर्खतापूर्ण है ।
गौरतलब है कि 2006 में सरकार ने शिक्षक नियुक्ति के नियमों को बदलकर नए सिरे से नियोजन इकाई का निर्माण किया था । जिसकी जिम्मेदारी पंचायत स्तर से राजव्यवस्था को दी गई थी । लेकिन तब से लेकर अभी तक विद्यालय में सभी स्तर पर डिग्री लाओ और नौकरी पाओ के तरीके से शिक्षक के पद भरे जा रहे हैं ।परिणाम स्वरूप इस पद के लिए वही लोग आते हैं जो हर तरफ से निराश हो चुके होते हैं । स्वाभाविक रूप से ऐसी शिक्षा का स्तर घटना ही है । इससे सरकार की मंशा पर सबसे बड़ा सवाल खड़ा होता है ।
धीरे-धीरे अपने निम्नतम स्तर की ओर जाती सरकारी शिक्षण संस्था और हर रोज खुलते महंगे प्राइवेट विद्यालय और कोचिंग संस्थान ,बड़े-बड़े उद्योगपतियों ,राजनेताओं सहित तमाम संपन्न लोगों द्वारा शिक्षा व्यवस्था को एक व्यवसाय के रूप में अपनाना – यह बताने के लिए काफी है कि सरकार का कदम सरकारी शिक्षा को पूर्णतया समाप्त कर उसका निजीकरण करना है । गिरती शिक्षा व्यवस्था राज्य की बर्बादी को मुकम्मल करने के लिए काफी है । शिक्षा का मुद्दा राज्य में निवास करने वाले लगभग 83 फ़ीसदी आबादी के जीवन और अस्तित्व को प्रभावित करती है ।
राज्य में शिक्षा की गिरती व्यवस्था के लिए यहां के शिक्षा मंत्री भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं ।आजादी के बाद से लेकर अभी तक यदि शिक्षा मंत्री की बात की जाए तो कुछ को छोड़कर सब ने शिक्षा के स्तर को नीचे ही गिराया है ।कर्पूरी ठाकुर के द्वारा अंग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त करने के फैसले ने बिहार की जनता को आधुनिकता के दौर में पीछे कर दिया । वाजिब सी बात है कि अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म होने के बाद बिहार वासियों का अंग्रेजी के प्रति रुझान काफी कम हुआ । हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त होने से बहुजन वर्ग का रुझान शिक्षा की ओर तेज हुआ है । लेकिन धीरे-धीरे अंग्रेजी से दूर होते जाने के कारण आधुनिकता की मुख्यधारा से बहुजन वर्ग दूर होते चले गए । आज लगभग सभी क्षेत्रों में अंग्रेजी का ज्ञान अनिवार्य है । इसके बिना अच्छी नौकरी की कल्पना नहीं की जा सकती है । अतः कर्पूरी जी का अंग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त करना एक वर्ग विशेष के लिए नुकसानदायक ही रहा । रामराज सिंह ने गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने की काफी हद तक कोशिश की । केदार पांडे सरकार के कार्यकाल में परीक्षाओं के रिजल्ट की समीक्षा करना अति आवश्यक है । इनके समय में उत्तीर्ण होने वाले छात्रों की संख्या कहीं-कहीं 10% भी नहीं थे । शिक्षा की इस क़दर गिरती व्यवस्था ने ही जयप्रकाश आंदोलन की नींव तैयार कर दी थी ।इस आंदोलन में 80% बहुजन वर्ग के पीड़ित छात्र शामिल थे । इस आंदोलन का मुख्य नारा शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन और भ्रष्टाचार विरोध था ।हाँलाँकि उस समय के मुख्यमंत्री अब्दुल गफ़्फ़ूर खान को बिहार का सबसे ईमानदार मुख्यमंत्री के रूप में याद किया जाता है ।
बिहार में गिरती शिक्षा व्यवस्था के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार नए शिक्षकों की बहाली में नियोजन नीति को माना जा सकता है । विश्लेषकों का कहना है कि राज्य में प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता पर जाली या परीक्षा में नकल से प्राप्त डिग्री-सर्टिफिकेट वाले योग्य शिक्षकों की नियुक्ति का ग्रहण लग चुका है। एक रिपोर्ट के अनुसार 2005 में नियुक्त किए गए हाई स्कूल में 90 फ़ीसदी शिक्षकों को अपने विषय का ज्ञान ही नहीं था ।वही पहले से कार्यरत विद्यालय के शिक्षकों सहित हाई स्कूल के शिक्षकों में 50 % शिक्षक सिफारिश पर नौकरी कर रहे हैं । दूसरी ओर कुछ अच्छे शिक्षक भी हैं जो पढ़ाना ही नहीं चाहते हैं । ऐसे में वहां कोचिंग संस्थानों की भरमार लगी है । जिनका उद्देश्य सिर्फ़ धन कमाना रह गया है । बिहार के स्कूल में शिक्षकों के पढ़ाने और बच्चों को सीखने का स्तर गुणवत्ता के लिहाज से काफी नीचे है । एक तरफ बिहार का गौरवशाली शैक्षणिक इतिहास है तो दूसरी तरफ आज इस राज्य का शैक्षणिक पिछड़ापन । यह सचमुच काफी दुख देने वाला विरोधाभास है । पिछले डेढ़ दशक में बिहार में साक्षरता वृद्धि की दर 17% होने को रिपोर्ट में शुभ संकेत माना गया है लेकिन इस साक्षरता वृद्धि के बावजूद बिहार में साक्षरता का प्रतिशत 63.8 तक ही पहुंच पाया है जो देश के अन्य राज्यों की तुलना में सबसे कम है।