"आंखें बंद थी तो सब दिखता था,आंखें खुली नहीं की सब ओझल हो गया" :- अनंत धीश अमन
"आंखें बंद थी तो सब दिखता था,आंखें खुली नहीं की सब ओझल हो गया"

गया जी । इसे सुनकर थोड़ी देर मैं मौन रह गया, कितनी बड़ी बात कितनी सहजता से आज छोटी सी बच्ची "मेरी सखी" ने मुझसे कहा, जिसे सुनकर मैं बड़ा हैरान रह गया ! क्योंकि जब मैंने आत्मसात किया तो पाया कि यह शब्द नहीं और ना कोई वाक्य है यह तो दर्शन है।
इसे हम दूसरे रूप में भी समझ सकते हैं, उदाहरण के तौर पर समय के साथ-साथ हमारे अंदर परिपक्वता आती है किंतु यह सत्य नहीं है कि इस परिपक्वता में हम सभी धीरे-धीरे संवेदनहीन होते जाते हैं, जैसे वृक्ष के नव कोपल पत्ते और पके पत्ते के बीच जैसा अंतर होता है, ठीक वैसा ही अंतर हमारे परिपक्वता के अंदर भी होता रहता है । एक समय जब हम पूर्ण रूप से परिपक्व हो जाते हैं, तब ठीक उसी प्रकार जिस तरह से वृक्ष के पत्ते पेड़ से अलग हो जाते हैं, हम भी इस संसार से अलग हो जाते हैं । वह अलग बात है वृक्ष से अलग हुए पत्ते मिट्टी में मिल खाद्य हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार हम भी इस संसार के पंचतत्व में विलीन हो जाते हैं।
हमारे अंदर की संवेदना ही हमें दूसरे के दर्द का एहसास कराती है ठीक उसी प्रकार वृक्ष के नव कोपल पत्ते ही हमें संवेदना का एहसास करती और आकर्षित करती हैं ।
जीवन में ध्यान में जब हम एकाग्र होते हैं आंखें बंद करते हैं हमें सब कुछ दिखाई देने लगता है किस रूप से हमारे अंदर गलतियां है क्या सुधार कर सकते हैं मन इस पर चिंतन करने लगता है, किंतु आंख खुलते हैं सब ओझल हो जाता है आखिर कौन सी ऐसी वजह है क्या आंख खुलने के बाद हम स्वयं को परिवर्तित कर लेते हैं या इस संसार के मोह से ग्रसित हो जाते हैं । दोनों में से कुछ भी वजह हो सकता है, किंतु सत्य है की जब हम सभी बच्चे होते हैं तो आंखें बंद होने के बावजूद हम मां के आंचल को पकड़े होते हैं और जब हम बड़े होते हैं आंखें खुल जाती हैं, जिसे ज्ञान कहते हैं तब हम आंचल से दूर हो जाते हैं।
किंतु सच्चा ज्ञान तो वही है जब आंखें बंद हुआ करती है और उसके बावजूद सब कुछ देख लेते हैं और झूठा ज्ञान वही है जब खुलने के बावजूद भी कुछ नहीं देख पाते है।
यह विषय एक छोटी बच्ची ने जिसे हमने अपना सखी माना है, उसने आज यह दर्शन कराया है, ऐसे तो कहानी सुनाना उसे पसंद है, और खुद से कहानियों को बनाना भी उसे पसंद है, उसने ही कहा आज मुझे आंख बंद थी तो सब कुछ दिखता था आंख खुली तो कुछ नहीं दिखता है पहले में छोटी थी अब मैं बड़ी हो गई।
बच्चों के भावों में किसी तरह का छल कपट नहीं होता है, इसलिए उसका हर स्वभाव और भाव हमें पसंद आता है, और हम सभी उसमें आनंदित होते हैं, किंतु जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है लोगों के अंदर छल-कपट का भाव उभरने लगता है, वैसे-वैसे हम मतलब के लोग हो जाते हैं और हमारा ज्ञान किसी कोने में सिमट कर रह जाता है।