झारखंड में छठ महापर्व मनाने का गौरवशाली इतिहास
प्रकृति ने झारखंड प्रांत की संरचना भी कुछ विशेष रूप से की है, वहीं प्रत्यक्ष देव सूर्य की उपासना भी प्रकृति की ही पूजा है। आज भी ग्रामीण और वन क्षेत्र में रहने वाले अधिकांश लोगों का जीवन प्रकृति के जीवन शैली पर आधारित है।
छठ महापर्व का झारखंड प्रांत से बहुत ही गहरा संबंध है । छठ पर्व की शुरुआत झारखंड में कब से हुई ? इसका गौरवशाली इतिहास भी बड़ा ही दिलचस्प है । एक प्रचलित पौराणिक कथा के अनुसार द्वापर युग में पांडवों की पत्नी द्रोपदी ने पांडवों के राजपाठ वापसी के लिए रांची जिले के नगड़ी ग्राम में स्थित एक कुआं के जल से भगवान सूर्य को अर्ध्य अर्पित की थी। इस प्रदेश में छठ पर्व की शुरुआत यहां से मानी जाती है। वहीं एकीकृत बिहार के मुंगेर जिले में स्थित शिलाखंड पर त्रेता युग में माता सीता ने अपने पति भगवान राम को ब्रह्म हत्या से मुक्ति के लिए सूर्य को अर्घ्य अर्पित की थी । इन दोनों प्रचलित कथाओ से यह बात खुलकर सामने आती है कि छठ पूजा का प्रचलन बिहार में झारखंड से भी पुराना है। आज झारखंड में मनाया जाने वाला छठ पर्व महापर्व के रूप में तब्दील हो चुका है। शोध बताता है कि छठ पूजा में जो कर्म कांड देखने को मिलते हैं, यह सब एकीकृत बिहार से आया।
चूंकि हम सब जिस प्रांत में रहते हैं, वनों से लदा रहने के कारण ही इसका नाम झारखंड पड़ा । आज भी देश के अन्य प्रांतों की तुलना में सबसे अधिक वन क्षेत्र झारखंड में ही विद्यमान है। पठारी क्षेत्र होने के बावजूद इस प्रांत में वन संपदा की अधिकता यह बताती है कि यह क्षेत्र प्रारंभ से ही प्रकृति के बिल्कुल निकट रहा है। प्रकृति ने झारखंड प्रांत की संरचना भी कुछ विशेष रूप से की है, वहीं प्रत्यक्ष देव सूर्य की उपासना भी प्रकृति की ही पूजा है। आज भी ग्रामीण और वन क्षेत्र में रहने वाले अधिकांश लोगों का जीवन प्रकृति के जीवन शैली पर आधारित है। ये लोग शहर की जीवन शैली में रहने वाले लोगों की तुलना में ज्यादा संयमित, धैर्यवान, सहनशील, सहज और सरल होते हैं। सूर्य की उपासना का सीधा मतलब है, प्रकृति से पूरी तरह जुड़े रहना। यहां से बहने वाली प्रमुख नदियों में दामोदर, स्वर्णरेखा, सोन, बराकर, अजय, पुनपुन, दक्षिण कोयल, औरंगा आदि नदियों की उपस्थित यह बताती है कि बीते हजारों साल से लोग इन नदियों में स्नान कर प्रत्यक्ष देव सूर्य की आराधना करते रहे हैं। तब शायद इस आराधना को छठ पर्व के नाम से न जोड़ा जाता हो, किंतु इस क्षेत्र के वासी प्रत्यक्ष देव सूर्य की भक्ति से जरूर जुड़े रहे। आज भी हजारों की संख्या में लोग इन नदियों में स्नान कर सुबह-सुबह प्रत्यक्ष देव सूर्य को जल अर्पित करते रह रहे हैं।
झारखंड प्रांत के चौबीसों जिलों में कई ऐसे तालाब आज भी विद्यमान हैं, जो छठ तालाब के नाम से जाने जाते हैं। इन तालाबों की उपस्थिति यह दर्शाती है कि इनके निर्माण के पूर्व से इस प्रांत में छठ महापर्व का आयोजन बड़े ही दूध आपके साथ होता चला रहा है । इन तालाबों का निर्माण आज से ढाई तीन सौ वर्ष पूर्व हुआ था। हजारीबाग जिले में स्थित एक मशहूर तालाब है, जो छठ तालाब के नाम से मशहूर है। इस तालाब का निर्माण छठ के अवसर पर सूर्य देव को अर्घ्य अर्पित के लिए हुआ था। छठ तालाब के निर्माण के समय ही इस स्थल पर एक सूर्य देव का मंदिर का भी निर्माण हुआ था। संभवत इस सूर्य मंदिर को इस जिले का पहला सूर्य मंदिर होने का गौरव प्राप्त है। हर वर्ष कार्तिक और चैत्र मास में होने वाले छठ महापर्व पर हजारों की संख्या में भक्तगण सूर्य को अर्घ्य अर्पित करते हैं। इस तालाब का निर्माण लगभग दो वर्ष पूर्व हुआ था। इससे प्रतीत होता है कि झारखंड प्रांत में छठ पर्व बीते कई वर्षों से होता चला रहा है। कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी के दिन हम सब जो प्रत्यक्ष देव सूरज की आराधना करते हुए अर्ध्य के रूप में अर्पित करते हैं, यह सीधे तौर पर प्रकृति की ही पूजा है । आदिकाल से इस क्षेत्र में निवास करने वाले आदिवासी मूल के लोग किसी न किसी रूप से भगवान सूर्य की पूजा करते रहे हैं। आज भी इन सबों का नाता जल और जंगल से उसी रूप में बना हुआ है।
जब झारखंड प्रांत में प्रचलित त्योंहारों के प्रचलन और इसके इतिहास पर शोध करेंगे तो यह बात खुलकर सामने आती है कि बिहार प्रांत की चर्चा लाजमी हो जाती है। चूंकि झारखंड प्रांत आज से पच्चीस वर्ष पूर्व बिहार प्रांत का ही एक हिस्सा था। बिहार प्रांत में झारखंड रहने के बावजूद दोनों क्षेत्रों मैं निवास करने वाले लोगों के रहन-सहन, रीति रिवाज, भाषा और संरचना में काफी भिन्नता यही थी। यही कारण रहा कि इस पठारी क्षेत्र से एक अलग प्रांत निर्माण की आवाज उठी थी। लंबे संघर्ष के बाद 15 नवंबर, 2020 को भगवान बिरसा मुंडा की जयंती पर झारखंड अलग प्रांत का निर्माण हुआ था। एकीकृत बिहार में झारखंड प्रांत का होने के कारण नौकरी, रोज़ी - रोजगार और अन्य कार्यों से रोजाना हजारों की संख्या में लोगों का आना-जाना लगा रहता था। यह क्षेत्र प्रकृति के ज्यादा करीब होने के कारण यहां आने वाले लोगों को लुभाता रहा है । लोग नौकरी, रोज़ी - रोजगार के लिए इस पठारी क्षेत्र में जरूर आए लेकिन इस यहां की आबो हवा लोगों को बहुत पसंद आई । यहां अन्य प्रांतों की तुलना में प्रदूषण कम लगा। अपराध की घटनाएं भी यहां काम घटित होती रही थी । यही कारण रहा कि लोग काफी संख्या में इस क्षेत्र में बसते चले गए। लोग इस क्षेत्र में बसे तो जरूर साथ में अपनी भाषा, रीति रिवाज रहन-सहन और जीवन शैली को भी साथ स्थापित करते चले गए। आज इस क्षेत्र में भोजपुरी, मगही और मैथिली बोलने वाले लाखों की संख्या में स्थाई रूप से निवास कर रहे हैं। अब झारखंड ही उनकी जन्मभूमि और कर्म भूमि बन चुकी है।
बिहार प्रांत में हिंदू धर्मावलंबियों द्वारा मनाए जाने वाले प्रमुख त्योहारों में एक छठ पर्व को माना जाता है। इस प्रांत के लोग बीते हजारों वर्षों से बहुत ही धूमधाम के साथ छठ की पूजा करते रहे हैं। चूंकि बिहार से काफी संख्या में लोग झारखंड में आ बसे थे । ये लोग झारखंड में बिहार के तर्ज पर ही इस प्रांत में छठ पूजा की प्रथा की शुरुआत की थी। चार दिनों तक चलने वाली यह पवित्र पूजा लोगों को बहुत पसंद आई और देखते ही देखते कारवां बनता चला गया। आज छठ पर्व पर इस प्रांत के लगभग लोग किसी न किसी रूप में शामिल होते हैं। इस पर्व की पवित्रता देखते बनती है । इस छठ पर्व के संबंध में जो जानकारी मिली है कि दूसरे धर्म, पंथ के लोग भी छठव्रती को सूप और धनराशि अर्पित कर स्वयं को धन्य मानते हैं।
एक प्रचलित पौराणिक कथा के अनुसार झारखंड में द्वापर युग में द्रोपदी ने रांची के नगड़ी गांव में स्थित एक कुआं पर पांडवों की राजपाठ वापसी और मंगल कामना के लिए सूर्य को अर्घ्य अर्पित की थी। वनवास के दौरान अर्जुन ने इस कुएं के पास तीर मार कर पानी निकला था। द्रोपदी ने जब इस कुआं के जल से सूर्य को अर्घ्य अर्पित की, उसके बाद पांडवों के दिन धीरे-धीरे कर सुधरने लगे थे। पांडवों को राजपाठ वापस हो गया। उनके राजपाठ में फिर से खुशहाली आ गई थी। आज भी हजारों की संख्या में नगड़ी के इस कुआं पर छठव्रती अर्ध्य अर्पित करते हैं। छठव्रती इस कामना से इस कुआं से भगवान सूर्य को अर्घ्य करते हैं कि उनके घर में सुख, समृद्धि और शांति बनी रहे। कई लोग पुत्र - पुत्री कामना लेकर भी मनौती करते हैं। कई लोगों ने यहां तक बताया कि इस कुआं के तट पर खड़े होकर पुत्र की कामना को लेकर मनौती किया था। उसकी कामना पूर्ण हुई । वे हर वर्ष यहां आते हैं। छत की पूजा करते हैं।
एक अन्य प्रचलित पौराणिक कथा के अनुसार त्रेतायुग में माता सीता ने अपने पति मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम को ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्ति के लिए बिहार के मुंगेर जिले में स्थित एक शिलाखंड पर छठ पूजा की थी। यह स्थल 'सीता चरण' के नाम से मशहूर है। माता सीता ने बहुत ही नियम पूर्वक अस्ताचलगामी सूर्य और उगते हुए सूर्य को जल अर्पित की थी। ऐसी मान्यता है कि माता सीता द्वारा छठ पूजा किए जाने के बाद भगवान राम ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्त हुए थे । तब से ही लोग यहां छठ की पूजा करते रहे हैं । मुंगेर में स्थित इस शिलाखंड में माता सीता द्वारा पहली बार छठ किए जाने के बाद से ही लोग यहां छठ की पूजा करते रह रहे हैं। यह स्थल छठ पूजा का एक प्रमुख केंद्र बन चुका है। हर वर्ष लाखों की संख्या में छठव्रती यहां छठ पूजा में सम्मिलित होते हैं और भगवान सूर्य को अर्ध्य अर्पित करते हैं।
