सबको हंसाने वाला निर्मल जैन खुद हंसता हुआ चला गया

जीवन महत्वपूर्ण है। उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है, जीवन को आनंद के साथ जीना। जीवन में सब कुछ रहते हुए भी लोग इस जीवन के मर्म को समझ नहीं पाते हैं । बहुत सारे लोग सब कुछ रहते हुए भी दुःख में जीवन जीते हैं। इसे समझने की जरूरत है : निर्मल जैन

सबको हंसाने वाला निर्मल जैन खुद हंसता हुआ चला गया

हजारीबाग नगर के प्रतिष्ठित वस्त्र व्यवसायी सह समाजसेवी निर्मल जैन का नाम स्मरण होते ही चेहरे पर खुद व खुद हंसी - खुशी की लकीरें उभर आती। आज की बदली सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में वास्तविक हंसी और खुशी सबके चेहरे से हवा हवाई होती चली जा रही है । कई लोग तो दिखावे के तौर पर हंस और खुश हो लेते हैं । लेकिन वास्तविक हंसी और खुशी ज्यादातर लोगों के चेहरे से गायब ही है। वहीं निर्मल जैन ने अपना संपूर्ण जीवन वास्तविक हंसी और खुशी के साथ जिया। उनका जीवन कम  संघर्ष पूर्ण नहीं रहा। विरासत में मिली गल्ला किराना की दुकान को रिद्धि सिद्धि वस्त्र दुकान में परिवर्तित कर खुद को एक मुकाम तक पहुंचाया। लेकिन उन्होंने अपने संघर्ष व परेशानियों को कभी भी व्यवहारिक और  पारिवारिक जीवन में शामिल नहीं होने दिया। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन एक साक्षी भाव के साथ जिया। इसी का तकाजा रहा‌ कि उनके चेहरे पर सदैव मुस्कान बनी रही थी। वे अपना व्यवसाय करते हुए विभिन्न व्यावसायिक और सामाजिक संगठनों से जुड़कर कार्य करते रहे थे। वे हजारीबाग खुदरा खाद्यान्न व्यवसाय संघ, हजारीबाग चैंबर आफ कमर्स एंड इंडस्ट्रीज और मेन रोड व्यवसायी संघ संस्थापक सदस्यों में एक थे। वे हजारीबाग की एक आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, वैचारिक और सामाजिक संस्था सागर भक्ति संगम से जुड़कर प्रतिदिन सैकड़ो लोगों को अपने चुटकुले और कविताओं से लोटपोट कर दिया करते थे।
  हजारीबाग में आजादी के समय सन 1947 में उनका जन्म हुआ। 3 दिसंबर 2025 को उन्होंने अंतिम सांस ली। वे  इस धरा पर लगभग 78 वर्षों तक रहें। उनके निधन से समाज ने एक महत्वपूर्ण व्यक्ति को खो दिया है। उनका जाना समाज के लिए अपूर्णिया क्षति के समान है। वे जीवन भर खुद खुश रहकर लोगों के बीच खुशियां बांटते रहें थे। उन्होंने हजारीबाग के हिंदू हाई स्कूल से हायर सेकेंडरी और संत कोलंबा महाविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई पूरी की थी। वे स्कूल जीवन से ही अपने पिता मंगल चंद लुहाड़िया को गल्ला किरण की दुकान में मदद किया करते थे । यह क्रम उनका महाविद्यालय की पढ़ाई पूरी होने तक जारी रही थी।‌ वे पढ़ लिखकर कुछ बनना चाहते थे।  लेकिन कम उम्र में ही उनके कंधों पर घर की पूरी जवाबदेही आ जाने के कारण कुछ बनने के सपने को उन्होंने हमेशा हमेशा के लिए त्याग दिया था। एक तरफ पिता का गिरता स्वास्थ्य और दूसरी और दुकान की जवाब देही उनके समक्ष थी। इन दोनों चुनौतियों को उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया और पूरी निष्ठा के साथ अपनी दुकान और पिता की सेवा की। पिता के निधन के बाद दुकान की पूरी जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई थी। इससे वे तनिक भी विचलित नहीं हुए।  उन्होंने पिता के साथ रहकर जो दुकान का काम सीख, अब काम आया।
  उन्होंने अपनी चारों बेटियों को उच्च शिक्षा प्रदान किया।  समय के साथ अपनी चारों बेटियों की शादी अच्छे घरों में की। उन्होंने अपने एकमात्र पुत्र पंकज कुमार लुहाड़िया को भी उच्च शिक्षित किया।‌ इसके बाद उन्होंने अपने प्रतिष्ठान रिद्धि सिद्धि की पूरी बागडोर अपने बेटे को सौंप दिया। अब वे  एक सहायक की भूमिका में आ गए थे । इतनी उम्र होने के बावजूद भी उन्होंने विश्राम करना उचित नहीं समझा बल्कि एक युवा की तरह ही दुकान आते और ग्राहकों से बिक्री किया करते थे। वे ग्राहकों से घर परिवार के सदस्य की तरह बातचीत किया करते थे। ग्राहक भी उनके इस कुशल व्यवहार से बहुत ही खुश रहते थे । वे  अपने ग्राहकों से  वस्त्र बेचने के क्रम में  चुटकुले, मुहावरे और छोटी-छोटी प्रेरणादायी  कहानियां सुना कर मंत्र मुग्ध कर दिया करते थे । ऐसा करने से कभी-कभी उनकी दुकानदारी में नुकसान में हो जाया करता  था, लेकिन इसका उन्हें तनिक भी मलाल नहीं रहता था। इस  संबंध में उन्होंने कहा था कि 'जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण खुशी है। पैसा तो आता और जाता रहेगा । अगर पैसे में सारी खुशी होती तो हर धनवान व्यक्ति खुश होता, लेकिन वह तो बाहर से दिखावे के  तौर पर खुश है। वह तो  अंदर से दुःखी है । इसलिए जीवन के लिए वास्तविक खुशी ही सबसे महत्वपूर्ण है।'
    वह एक सफल व्यवसायी के साथ एक अच्छे मित्र भी थे। उनके कुशल व्यवहार के कारण उनके मित्रों की सूची बहुत लंबी थी। उनका ज्यादातर समय दुकान में ही बीतता था। जब भी कोई मित्र उस रास्ते से गुजर रहा होता तो एक बार उनसे जरूर मिलाया करता था।‌ जब भी किसी मित्र के साथ कोई परेशानी आती, वे सदा मित्रों की परेशानियों के सामाधान में साथ खड़े हो जाते थे। वे एक जिंदा दिल इंसान थे।  उनकी जिंदादिली उनकी आवाज से झलकती थी । उनकी रौबदार आवाज में  कशिश थी। इसलिए लोग उनकी  इस रौबदार आवाज के लिए उन्हें टाइगर के नाम से भी पुकारा करते थे। उनसे मिलने जुलने वाले ज्यादातर लोग निर्मल कुमार जैन के नाम से संबोधित न कर टाइगर के नाम से ही बुलाते थे। वे टाइगर के नाम से ही ज्यादा लोकप्रिय हो गए थे। उनकी यह  रौबदार आवाज जीवन के अंतिम णों तक बनी रही थी।
   उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी खुशी और हंसी को कभी भी गायब नहीं होने दिया। यह उनके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि रही।  उन्होंने अपने चुटकुलों के माध्यम से हंसी और खुशी को एक नया आयाम दिया। हंसने और हंसाने का यह शौक उनका बचपन से ही था । उनका यह शौक जीवन के अंतिम क्षणों तक बना। लोगों को हंसाने के लिए  वे  नियमित रूप से अखबार और पत्रिकाओं से  चुटकुले ढूंढ ढूंढ कर काट कर रख लिया करते थे। फिर फुर्सत के क्षण में याद कर लिया करते थे।  वे समय-समय पर इन्हीं चुटकुलों को लोगों को सुना कर लोटपोट कर दिया करते थे । उन्होंने सार्वजनिक तौर पर यह कई बार कहा कि  इन चुटकुलों को  विभिन्न पत्र पत्रिकाओं से संकलित किया है। इसके अलावा भी कुछ खुद से रचित चुटकुले भी लोगों को सुनाई करते थे। एक बार मैंने  उनसे कहा कि इन चुटकुलों को संकलित करें एक पुस्तक का रूप दे दीजिए।  इस बात पर उन्होंने कहा कि 'भाई साहब ! इन चुटकुलों को तो मैं अखबारों और पत्रिकाओं से काटकर लोगों के ज़ेहन में डाल कर आजाद कर दिया हूं । फिर बेचारे चुटकुलों को पुस्तक में कैद कर दूं ? यह मुझे नहीं होगा। मैं कोई कवि थोड़े  न हूं। हंसता हूं।  लोगों के हंसाता हुआ, इस दुनिया से चला जाऊं, बस ! में यही चाहता हूं।' 
    एक बार एक मुलाकात के दौरान उन्होंने  कहा कि  'जीवन महत्वपूर्ण है। उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है, जीवन को आनंद के साथ जीना। जीवन में सब कुछ रहते हुए भी लोग इस जीवन के मर्म को समझ नहीं पाते हैं । बहुत सारे लोग सब कुछ रहते हुए भी दुःख में जीवन जीते हैं। इसे समझने की जरूरत है।  कोई क्या लेकर आया है ? और क्या लेकर जाएगा ? जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कुछ है, तो ईमानदारी पूर्वक जीवन जीना। अपने सुख और फायदे के लिए किसी को कष्ट देना महा पाप है।  जो अपना है  ही नहीं और न होगा, उसके लिए व्यर्थ चिंता करने से कोई फायदा नहीं है। जीवन ईश्वर का अनमोल उपहार है। इस अनमोल उपहार को आनंद के साथ जीना ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
  मृत्यु से चार दिन पूर्व ही वे अपने लिवर  की जांच के लिए अपने बेटे के साथ इलाज के लिए रांची गए हुए थे। ऐसी परिस्थिति  में भी उन्हें अपनी बीमारी की कोई चिंता नहीं थी।  वहां पर उन्होंने  मैरिजों चुटकुला सुना कर लोटपोट कर दिया था।  ऐसे जिंदादिल इंसान थे,निर्मल कुमार जैन लुहाड़िया ।